पंधरा साल का एक लडका घर कि अमीरी, रुतबा और तामझाम से तंग आकर हमेशा के लिए घर छोड देता हैं। जाते जाते अब्बू कहते हैं, “तूम जा तो रहे हैं, मगर तुम्हें इस घर से कुछ नही मिलेंगा। जमीन, जायदाद से तूम बेदखल किये जाओगे। हो सकता हैं, तुम्हारे घर लौटने के रास्ते भी बंद हो जाये!”
‘सबकुछ तुम्हे मुबारक!’ कहकर वह गुस्से में आग बबुला होकर निकल जाता हैं। फिर कभी वह उस घुटनभरे माहौल में नही लौटा। य़ह कहानी सुनाते हुए प्रो. शुज़ा की आवाज भर्रा जाती हैं।
शुज़ा औरंगाबाद स्थित डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय मे राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। जो एक जमाने में प्रसिद्ध स्कॉलर और विद्वान रहे डॉ. मोईन शाकिर के बेटे हैं। डॉ. शाकिर का नाम आज शायद ही किसी को याद होंगा। पर 70 और 80 के दशक में कलोनियल लेखकों को इनके लिखे लेखों पर अपना आर्ग्युमेंट करने पसीने छुट जाते थे।
डॉ. शुज़ा शाकिर बताते हैं की, “(उनके) दादा एक जमींदार थे। घर मे दौलत का बडा तामझाम हुआ करता था। नौकर-चाकर, घोडे और शानोशौकत थी। ये सामंती व्यवस्था अब्बू को पसंद नही थी। जिसे लेकर आए दिन विवाद होते और बखेडे खडे होते। एक दफा सब से तंग आकर उन्होंने वसमत (परभणी जिला) का घर छोड दिया।”
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व्यक्तित्व कि छाप
पंधरा साल के मोईन शाकीर के दिमाग पर हैदराबाद के निज़ामी शासन को उख़ाड फ़ेकने कि घटनाएं ताज़ा थी। मुक्ती आंदोलनों से वह परिचित थे, शायद यही वजह रही की जमींदारी, शानोशौकत और सामंती व्यवस्था से उन्हें परहेज था। वह एक कमिटेड इन्सान थे और उसी इमानदारी के साथ वह जिन्दगी बिताते रहे। आगे चलकर भी उन्होंने कभी हालातों से समझौता नही किया।
1940 में जन्मे शाकिर दसवीं क्लास के बाद घर छोडा था। आगे कि सारी पढ़ाई उन्होंने अपने बलबूते की। घर से एक रुपया भी नही लिया। गुजर-बसर के लिए उधर-उधर के छोटे-मोटे काम काम कर लेते और बचा टाइम पढ़ाई में लगा देते। एम. ए. होने के बाद उन्होंने औरंगाबाद का गर्वमेंट कॉलेज जॉईन कर लिया, बाद में वहां वे यूनिवर्सिटी आए।
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर शाकिर के करिबी दोस्तों में से एक थे। वे अपनी किताब ‘भारत के मुस्लिम विचारक’ में लिखते हैं, “डॉ. मोईन शाकिर बहुअयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे बेहद संवेदनशील थे। राज्यशास्त्र के राजनैतिक सिद्धान्तो, राजकीय प्रणालियों, प्रक्रियाओं और राजनैतिक व्यवहार जैसे विषयों पर उनका गहरा प्रभुत्व था।”
मुस्लिम विचारक और चिंतक अब्दुल कादर मुकादम शाकिर के दोस्तों में से हैं, उन्होंने मुझे बताया कि “मेरी उनसे पहली मुलाकात 1975 के आस पास नासिक के देवलाली के एक कॉन्फ्रन्स में हुई। उसके दो-तीन बाद वह मेरे घर के खाने के मेज पर बैठे थे। पहली मुलाकात में उनकी और मेरी गहरी दोस्ती हो गई। वह बेहद प्रभावी व्यक्ति थे। उनका सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर गहरा अध्ययन था। इसलिए नजरिया भी बिलकूल स्पष्ट और दूरदृष्टी वाला था।”
जी. एन. शर्मा से लेकर दिल्ली के प्रो. रणधीर सिंग, फकरुद्दीन बेन्नूर, असगरअली इंजिनिअर तथा प्राच्यविद्या के जानकार शरद् पाटील जैसे विद्वानों से उनके बेहद आत्मीय और मधूर संबंध थे। विद्यार्थीयों मे उनकी खासी लोकप्रियता थी। उनका कमरा सदा छात्र और मिलनेवालों से भरा रहता। विश्वविद्यालय के अलावा राज्य और देशभर से जानेमाने लोग उनसे मिलने और मार्गदर्शन लेने आते।
1980 के दशक में जब महाराष्ट्र में मराठवाडा विश्वविद्यालय के नामांतर का आंदोलन चल निकला तब बहुत कम लोग उसके समर्थन में खडे थे। डॉ. शाकिर ऐसे इन्सान थे जिन्होंने न सिर्फ खुलकर समर्थन किया, बल्कि मराठवाडा परिसर में घुमकर स्थिति का जायजा भी लिया।
जहां जहां आंदोलकों पर हमले हुए वहां पहुँचकर उन्होंने पीडित लोगो से बात की। छात्राओं के एक विशेष टीम का गठन कर उन्हें घटनास्थलों पर भेजा। और रिपोर्टो को छोटी-छोटी पुस्तिका के रूप मे प्रकाशित भी किया। इस आंदोलन के राजनीति का उन्होंने सर्वस्पर्शी शोध किया था। जो अध्ययन और संशोधन के लिए उपयोगी माना जाता हैं।
प्रो. बेन्नूर मानते हैं की, शाकिर अध्यापक कम और पॉलिटकल एक्टिविस्ट ज्यादा थे। वे हर समय समाज और मुसलमानों को बुद्धिवादी बनाने के फ़िराख में रहते। वे कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रीय सदस्य थे। वामपंथी विचारधारा उनके जिन्दगी का अहम हिस्सा थी। वे मार्क्सवाद को जिते थे और उन विचारों का प्रसार करते। मित्र तथा छात्रों को पार्टी का सदस्य बनने के लिए प्रेरणा देते। उन्होंने सोव्हियत रूस का भी दौरा किया था।
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स्पष्ट और सटिक विचारधारा
प्रो. बेन्नूर अपनी आत्मकथा ‘कुदरत’ मे लिखते है, “यूनिवर्सिटी में उनका कैबिन कई अर्थों में क्रांतिकारी विचारों का दहकता हुआ अग्निकुंड था। बातचीत के माध्यम से प्रगतिशील विचारों का छिडकाव सदा जारी रहता। वहीं दूसरी और काव्यशास्त्र विनोद भी साथ में चलता। उर्दू कविता उनका पसंदीदा शौक था। उर्दू के साथ मराठी और अंग्रेजी साहित्य में भी उनकी रूचि थी।”
औरंगाबाद के डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर मराठवाडा यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर रहे नागनाथ कोतापल्ले उनके करिबी मित्रों में से एक थे। उन्होंने मुझे बताया की “शाकिर का वाङ्मय और साहित्य प्रेम लाजवाब था। हम कई घंटे साहित्य पर बात करते। मराठी साहित्यिक रचनाओं के साथ विश्व के साहित्य जगत में क्या चल रहा है, उन्हें पता रहता। अंग्रेजी साहित्य का उनका ज्ञान अपरिमित था।”
शाकिर हिन्दुवादी सांप्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी थे। उन्होंने इंदिरा गांधी के आपातकाल का खुलकर विरोध किया। कहते हैं, इमरजन्सी के खिलाफ यूनिवर्सिटी में दो लोगो ने मोर्चा निकाला, जिसमें एक भालचंद्र नेमाडे और दूसरे डॉ. मोईन शाकिर थे। सरकारी पद पर रहते हुए आपातकाल के दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी के दमनकारी नीतियों का खुलकर विरोध किया।
औपचारिक बातचित में प्रो. बेन्नूर ने मुझे एक दफा बताया था, शाकिर सिंडिकेट काँग्रेस के नीति और जनता पार्टी के प्रयोग के घोर विरोधी थे। एक बार तो वे महाराष्ट्र के समाजवादीयों से लड़ पड़े थे। शाकीर अपने लेखों के माध्यम से गैरकाँग्रेसी राजनीति के आड पनप रही पोलिटिकल सांप्रदायिकता, हिन्दुवादी राजनीति, समाजवादीयों और आरएसएस कि गठजोड़, मुसलमानों को हाशिए पर धकेलना, उलेमाप्रणित हठधर्मिता के खिलाफ जमकर प्रहार करते।
डॉ. शाकिर ने कभी वैचारिक समझौता नही किया। यहीं वजह रही कि एक दफा उन्होंने प्रसिद्ध समाजवादी और चिंतक ए. बी. शहा को उनके ‘न्यू क्वेस्ट’ पत्रिका के लिए लिखने से स्पष्ट रूप से मना किया। कभी ए. बी. शहा के साथ काम करनेवाले अब्दुल कादर मुकादम ने इस बारे में मुझे बताया –
“शाकिर ने एक बार बताया था की, शाह ने मुझसे कहा हैं, आप (न्यू) ‘क्वेस्ट’ के लिए लिखे, मैंने कहा, आपको CIA कि तरफ से पैसे आते हैं और आप उसके अजेंडे पर काम करते हो। जिसका मकसद हैं, मुसलमानों के गलत छवी बनाना। आपके और मेरे विचार बिलकूल जुदा हैं, इसलिए मैं आपके लिए लिख नही सकता। इसपर शहा ने उनसे कहा, पहले आते थे पैसे, अब नही आते, चाहो तो आप कागज़ात देख सकते हैं।”
प्रो. बेन्नूर ने भी इसपर सहमती जताते हुए मुझसे कहा था, “शाकिर एक कमिटेड इन्सान थे। उनके व्यक्तित्व में नही था कि ऐसे अजेंडे के लिए अपना कोई सहयोग होने दे।”
शीत युद्ध के बाद अमरिका ने कई देशों के संघठन, लेखकों, पत्रिकाए और संपादकों को पैसों के साथ अन्य सहयोग दिया था। जिसका मकसद सोव्हियत रूस के खिलाफ वातावरण बनाना था। आरोप था कि शहा के ‘Indian Association for Cultural Freedom’ को भी ये पैसे मिलते थे। शहा उस समय मुसलमानों के सामाजिक सुधार के लिए हमीद दलवाई के साथ ‘मुस्लिम सत्यशोधक मंडल’ नाम का एक संघठन चलाते थे। और न्यू क्वेस्ट पत्रिका निकालते थे। जिसमें लिखने के लिए डॉ. शाकिर ने मना किया था।
यह बात अलग हैं कि डॉ. शाकिर इससे पहले ‘क्वेस्ट’ जो 1976 में बंद हो गई थी, उसमें लिखते थे। जिसके मुख्य संपादक वी. वी. जॉन थे और सहयोगी संपादक के रूप में शहा और लईक फतेहअली थे। प्रो. बेन्नूर ने मुझे बताया था कि उस समय कई लेखकों को पता भी नही था कि किस-किस मैगझीन को CIA के पैसे मिलते हैं। खैर…
CIA के पैसो को लेकर यह विवाद आज तक नही थमा हैं। 2017 में यह विवाद फिर गर्माया था जब जियोल विथनी कि ‘Finks: How the CIA Tricked the World’s Best Writers’ किताब आने के बाद उन लेखकों और संपादको के नाम सामने आये जिन्हें सीआईए से पैसे मिले थे। इस किताब से पहली दफा खुले रूप से ए. बी. शहा संपादित ‘न्यू क्वेस्ट’ पत्रिका और दिलिप चित्रे का नाम प्रकाश में आया।
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प्रकाशित कार्य
डॉ. शाकिर मूल रूप से अंग्रेजी भाषा मे लिखा करते। उनके लिखे आर्टिकल इकोनॉमिक पॉलिटिकल विकली, मेनस्ट्रीम, दि सोशालिस्ट और क्वेस्ट में प्रकाशित होते। अंग्रेजी मे लिखने कि वजह से महाराष्ट्र के गैरअंग्रेजी पाठक उनके विचारों से महरूम रह जाते। इस कमी को आगे चलकर वामपंथी विचारधारा वाली ‘मागोवा’ पत्रिका ने पुरा किया। इसमें उनके लेख मराठी में अनुवादित किए जाते।
मागोवा महाराष्ट्र कि एकमात्र मराठी पत्रिका थी जिसमें उनके लेख छपते। इसकी वजह बताते हुए संपादक सुधीर बेडेकर कहते हैं, “मुस्लिम मार्क्सवादीयों कि संख्या बहुत कम थी। कई वामपंथी मुस्लिम विषयों पर लिखते पर वे सारे लेख वास्तव से परे होते। डॉ. शाकिर बेधडक और स्पष्ट रूप से किसी का मुलाहिजा नही रखते। उन्हें जो गलत लगता उसपर लिखते। हम उनके आर्टिकलों का अनुवाद कर प्रकाशित करते। जिसे अच्छा रिस्पॉन्स मिलता।”
डॉ. मोईन शाकिर कि कूल 13 किताबे प्रकाशित हैं। जिसमें ‘खिलाफत टु पार्टिशन’, ‘सेक्युलराजेशन ऑफ मुस्लिम बिहेवियर’, ‘पॉलिटिक्स अँड सोसायटी, राम मोहन रॉय टू नेहरू’, ‘कम्युनॅलिझम इन इंडिया’, ‘गांधी, आज़ाद अँड नॅशनलिझम’, ‘मुस्लिम इन फ्री इंडिया’, ‘डेस्टिनी ऑफ इंडियन मुस्लिम’, ‘पॉलिटिक्स ऑफ मायनॉरिटीज’, ‘इस्लाम अँड इंडियन पॉलिटिक्स’, ‘मुस्लिम अँड नॅशनल काँग्रेस’ आदी प्रमुख हैं। ‘स्टेट अँड पॉलिटिक्स अँड कंटेम्पररी इंडिया’ ये उनकी आखरी किताब थी जो 1983 मे प्रकाशित हुई थी।
आखिरी चरण में डॉ. शाकिर ने अपने गुरु जी. एन. शर्मा पर लिखे गौरव ग्रंथ का संपादन कार्य हाथ में लिया था। परंतु दुर्भाग्य से उसे पूरा नहीं कर पाए और अचानक चल बसे। उस ग्रंथ का नाम ‘रिलिजन स्टेट अँड पॉलिटिक्स इन इंडिया’ था। यह किताब 1988 में प्रकाशित हुई। इस ग्रंथ में उन्होंने भारतीय राज्य व्यवस्था, राजनीति और धर्म के आपसी द्वंद का चिकित्सिक अध्ययन करने वाले लेख थे।
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किताबो को मान्यता
शाकिर ने अपने मार्क्सवादी नजरिए से इस्लाम के नाम पर हो रही राजनीति पर प्रहार किया। इस्लाम उनके विश्लेषण का विषय नहीं था। बल्कि मुस्लिम समाज, उसकी आर्थिक, राजनीतिक प्रेरणा और आकांक्षाएं तथा उसके नेता और उनकी राजनीति उनके अध्ययन के विषय रहे हैं।
उन्होंने आरएसएसप्रणित हिन्दुवादी विचारधारा पर जमकर हमला बोला। संघ के मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक नजरिये पर उन्होंने खुलकर लिखा हैं। राजनीतिक सुधार तथा कलोनियल लेखकों के एकांगी विचारों कि उन्होंने महत्वपूर्ण संदर्भो के साथ आर्ग्युमेंट किया। मध्ययुगीन इतिहास को लेकर मुसलमानों के प्रति हो रही नफरत के राजनीति का उन्होंने जवाब दिया।
अपने लेखन तथा भाषणो से उन्होंने सामाजिक संघठनों के कार्यपद्धती की खुलकर आलोचना की। वे कभी किसी के धमकी और आलोचना से नही डरे। बेन्नूर लिखते है, “महाराष्ट्र में समाजवादी विचारों के प्रेरणा से चल रहे आंदोलन मुसलमानों का गलत चित्रण करते। मुसलमानों का सर्वांग और यथार्थवादी चिंतन करने के बजाय मुसलमानों को लताड़ना ही उनके कामों का उद्देश था। ऐसे समय में डॉ. शाकिर ने मुसलमानों के सामाजिक राजनीतिक आर्थिक तथा प्रथा-परंपरा में लिप्त मसलो पर खुलकर बात की है।”
डॉ. मोईन शाकिर कि लिखी किताबे स्पष्ट और दूरदृष्टीवाली होती. भारतीय मुस्लिम, डॉ. इकबाल, कम्युनल सोसायटी, खिलाफत, विभाजन कि राजनीति, गांधीझम, नेहरुवियन आदी विचारों पर बिलकूल सटिकता से उन्होंने प्रकाश डाला हैं। आज भी उनके लेख और उनकी लिखी किताबे संदर्भ के तौर पर देश-विदेश में पढ़े-प़ढ़ाई जाती हैं।
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आपसी विवाद से रहे दूर
एक स्पष्टवक्ता और मुलाहिजा न रखने वाले शाकिर से यूनिवर्सिटी और विभाग के काफी सहयोगी नाराज और नाखुश रहते। विश्वविद्यालय के इस अंदरुनी राजनीति से वे खफा रहते। कोतापल्ले बताते है, “वे कभी इसपर ज्यादा बात नही करते। वे कहते इन बातो का कोई मतलब नही होता। यूनिवर्सिटी कि राजनीति में दखल देना मतलब ‘कोयले के दलाली में हाथ काले करना हैं।”
डॉ. शाकिर मार्गदर्शक और वैचारिक दिशादर्शक के रूप मे जाने जाते। बेन्नूर अपनी बायोग्राफी में लिखते हैं, “शहा और दलवाई के बाद उनके समर्थकों के वैचारिक दिवालियापन से जब मैं उकता गया तो मुस्लिम सत्यशोधक मंडल से इस्तिफ़ा दिया। जिसके बाद मुझे काफी मानसिक परेशानीयों का सामना करना पडा। आगे कि दिशा स्पष्ट करने मैं शाकिर के पास औरंगाबाद चला गया। वहां इंजिनिअर भी आये थे, उन दोनो के साथ हुई चर्चा ने मुझे फिर से खडे होने और नये से सामाजिक कार्य करने कि प्रेरणा मिली।”
मुकादम भी कुछ ऐसा ही किस्सा बयान करते हैं, “दलवाई के इंतकाल के बाद मेरे खिलाफ संघठन के लोग गुटबाजी करने लगे। जिसमें यदूनाथ थत्ते भी एक थे। मैं इस सब से परेशान था। इस उधेडबून से निकलने मैंने शाकिर से बात की। वह जब भी मुंबई आते तो मुझे जरूर फोन लगाते।
एक दिन उनका फोन आया, कहा, जीपीओ (बोरिबंदर स्थित डाक कर्मचारीयों कि निवासी बिल्डिंग वहां उनके दोस्त रहते) आ जाओ मिलते हैं। मैं पहुँच गया। शाम छह से लेकर रात बारा बजे तक हम इसी मसले पर बात करते रहे। अगली सूबह मैं सबकुछ भूल कर कॉन्फिडन्स के साथ खडा हुआ।”
डॉ. नागनाथ कोतापल्ले बताते हैं कि, “उनसे मिलनेवाले लोग इसी तरह के मसले-मसाईल लेकर आते। मुस्लिम ही नही बल्कि गैरमुस्लिमों कि संख्या भी इसमे अधिक थी। वह सभी के मसले हल करते। पर अपनी निजी परेशानीयों का जिक्र किसीसे नही करते। पर अंदर ही अंदर उन्हे वह समस्या कचोटती रहती।”
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मौत के बाद हुआ था विवाद
कोतापल्ले डॉ. शाकिर के साथ बिताई 12 जून कि वह आखरी शाम के बारे याद करते हुए बताते हैं, “किसी सेमिनार के लिए वे अमरिका जाने वाले थे। वहां किसीने उन्हें लेक्चर के लिए आमंत्रित किया था। पर विश्वविद्यालय ने उन्हें परमीशन नही दी। उस समय न्या. एम. पी. कानडे कुलगुरू थे। उन्होंने शाकिर के विभागप्रमुख बनाने मे रोडे अटकाए थे और अमरिका जाने से भी रोका था। इसपर शाकिर ने कहा, कोई चाहे लाख रोके मैं तो जाऊंगा, वापस आने के बाद देखेंगे क्या होता हैं!”
कोतापल्ले ने उस रात खाना शाकिर के घर पर ही खाया। रात साढ़े ग्यारह तक वे और उनके अन्य दोस्त शाकिर के साथ गप लडाते बैठे थे। कुलगुरू के राजनीति को लेकर उस बैठक मे कोई बात नही हुई। साहित्य और राजनैतिक हालात पर बहसबाजी चलती रही और देर रात वह घर चले गए।
डॉ. कोतापल्ले बताते है, “दूसरे दिन सूबह उन्हें हार्टअटैक आया, जिसके बाद उन्हेंं अस्पताल में भर्ती किया गया। इस बारे में हमें किसी को कुछ पता नही था। दोपहर साडे तीन के दरमियान फोन आया जिसमें उनके निधन कि दुखद खबर मिली। जो मेरे लिए सदमा रही।”
उनके मौत के बाद हुआ एक विवाद काफी दिनों तक चर्चा में रहा। तीन दिन बाद कुछ शरारती तत्वों ने उनके खिलाफ गुटबाजी शुरू की। उनका मानना था कि शाकिर मुस्लिम नहीं थे। कम्युनिस्ट होने के चलते वे नास्तिक थे। इस गूट कि भूमिका थी कि नास्तिक लोगों को मुस्लिम कब्रिस्तान में जगह नही मिलनी चाहीए।
प्रो. बेन्नूर अपनी आत्मकथा ‘कुदरत’ में लिखते हैं, “इन गुटों की हिम्मत का आलम यह था कि वह कमिश्नर के पास निवेदन लेकर गए कि पुलिस सुरक्षा में डॉ. शाकिर का शव कब्रिस्तान से निकाला दिया जाए।
विवाद गर्माने के बाद औरंगाबाद के प्रतिष्ठित मुस्लिम, साहित्यिक और कुछ विद्वान धर्मगुरु स्वर्गीय शाकिर के समर्थन में आगे आए। इमारत ए शरिया मराठवाड़ा के धर्मगुरु मौलाना अब्दुल वाहिद ने धार्मिक किताबों का हवाला देकर घोषणा कर दी कि कट्टरपंथी गुटों की मांग नाजायज है।”
बेन्नूर लिखते है, “शहर के प्रमुख मुस्लिमों ने इस अनुचित मांग का विरोध किया और कब्र से शव को वापस बाहर निकालना पूरी तरह शरीयत के विरोध में माना। प्रसिद्ध शायर बशर नवाज़ ने चुनौती दी कि यदि शरीयत के आधार पर ही तय होना है तो कितने मुसलमान सही अर्थों में मुसलमान रहेंगे? काफी विवाद के बाद हालात सामान्य होते गए।”
डॉ. शाकिर ने कभी भी इस्लाम और पैगंबर साहब की आलोचना नहीं की। उन्होंने कभी इस्लाम को नकारा नही। उन्होंने खुद को नास्तिक भी नही कहा था, ना ही कभी कुरआन के खिलाफ बयानबाजी कि थी। पर उन्होंने उलेमा और मुसलमानों सांप्रदायिक राजनीति का विरोध जरूर किया था।
बेन्नूर ‘भारत मुस्लिम विचारक’ मे लिखते हैं, “उनका मत था कि कुरआन की मूल प्रेरणा और संदेश उदारवादी, समाजवादी और सहिष्णुता से ओतप्रोत रहा है। उनका जनजागृति अभियान मुस्लिम जनता के लिए था और उनकी आलोचना का निशाना मुस्लिम धर्मगुरु और सांप्रदायिक समूह थे।
डॉ. मोईन शाकिर उच्चकोटि के विद्वान थे। उनका सारा जीवन सामाजिक कार्य के प्रति समर्पित रहा। उनकी कोशिश थी कि समाज बुद्धिवादी बने।पर अफसोस आज तीन दशक बाद भी यह असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति अपनी पहचान के लिए मोहताज हैं।
के राघवेंद्र राव ने अगस्त 1987 में EPW में लिखे श्रद्धांजली लेख में मोईन शाकिर के मौत को भारत के राजनीति विज्ञान की डिसिप्लिन के लिए बड़ा नुकसान माना था। उन्होंने कहा था, शाकिर के मौत का शोक जताने का सबसे अच्छा तरीका दुखः व्यक्त करना नहीं है, बल्कि उनकी उपलब्धियों का जश्न मनाना है।
महाराष्ट्र में शाकिर सामाजिक संघठनो, वैचारिक गुटों तथा मामूली लेखकों के ओछी राजनीति का शिकार बने। जिसे महज अपने स्वभाव याने आलोचना करना, स्पष्टवक्ता होना, काम के प्रति इमानदारी, लेखन के प्रति समर्पित भाव और बेधडक रहने का शिकार होना पड़ा।
13 जून 1987 को उनका निधन हुआ। उस समय उनकी उम्र केवल 47 साल थी। आज उनकी 33वीं बरसी पर इस महान प्रतिभा को खिराज़े अकिदत…
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।