भगत सिंह कहते थे, ‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष जरुरी नहीं’

देशवासियों को इंकलाब जिंदाबादऔर साम्राज्यवाद मुर्दाबादका क्रांतिकारी नारा दे, जंग-ए-आज़ादी में निर्णायक मोड़ लाने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह की इस साल 90वीं पुण्यतिथि है। बरतानिया हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्जाम में 23 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी।

इस कठोर सजा पर वे जरा से भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गए। महज साढ़े तेईस साल की छोटी सी उम्र में शहादत के लिए फांसी का फंदा हंसकर चूमने वाले, क्रांतिकारी भगत सिंह समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासत का क्रांतिकारी प्रतीक हैं।

शहीद करतार सिंह सराभा उनके आदर्श थे। जिनका फोटो वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे। भगत सिंह ने जैसे ही होश संभाला, क्रांतिकारी संगठन नौजवान भारत सभाऔर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशनसे जुड़ गए। यह बतलाना भी लाजिमी होगा कि इस संगठन के नाम में सोशलिस्टशब्द उन्हीं के सुझाव पर जुड़ा था।

भगत सिंह को बचपन से पढ़ने-लिखने का जुनूनी शौक था। साल 1924 में जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तब उनकी उम्र महज सतरह साल थी। प्रताप’ (कानपुर), ‘महारथी’ (दिल्ली), ‘चांद’ (इलाहाबाद), ‘वीर अर्जुन’ (दिल्ली) आदि समाचार पत्रों और पंजाबी पत्रिका किरतीमें उनके कई लेख प्रकाशित हुए।

हिंदी, पंजाबी, उर्दू व अंग्रेजी चारों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। छोटी सी ही उम्र में उन्होंने खूब पढ़ा। दुनिया को करीब से देखा, समझा और व्यवस्था बदलने के लिए जी भरकर कोशिशें कीं। अंग्रेज सरकार के पब्लिक सेफ्टी बिलट्रेड डिस्प्यूट बिलके खिलाफ उन्होंने 8 अप्रेल, 1929 को केंद्रीय असेम्बली में बम फेंककर, अपनी गिरफ्तारी दी। बम फेंकने का मकसद किसी को घायल करना-जान से मारना नहीं था, बहरी अंग्रेज हुकूमत के कान खोलना था।

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विचारधारात्मक स्पष्टता

लाहौर की सेन्ट्रल जेल में बिताए अपने दो सालों में भगत सिंह ने खूब अध्ययन, मनन, चिंतन व लेखन किया। किताब हिस्ट्री ऑफ दि रेव्युल्यूशनरी मूवमेंट इन इंडिया’, ‘दि आईडियल सोशलिज्म’, ‘एट दि डोर ऑफ डेथऔर अपनी जीवनी उन्होंने जेल के कठिन हालात में ही लिखी थी। भगत सिंह ने जेल के अंदर से ही न सिर्फ क्रांतिकारी आंदोलन को बचाए रखा, बल्कि उसे विचारधारात्मक स्पष्टता भी प्रदान की।

7 अक्टूबर, 1930 को बरतानिया हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्जाम में भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई। सजा सुनाए जाने के पांच महीने बाद 23 मार्च, 1931 को उनको दो साथियों सुखदेव और राजगुरू के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया।

फाँसी के पहले 3 मार्च को भगत सिंह ने अपने छोटे भाई कुलतार को भेजे एक खत में अपने जज्बात कुछ इस तरह से पेश किए थे,

उसे ये फ़िक्र है हरदम, नया तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है

हमें ये शौक है देखें, सितम की इन्तिहा क्या है

…हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली

ये मुश्ते खाक है फानी, रहे न रहे।

क्रांतिकारी भगत सिंह सिर्फ जोशीले नौजवान नहीं थे, जो कि जोश में आकर अपने वतन पर मर मिटे थे। उनके दिल में देशभक्ति के जज्बे के साथ एक सपना था। भावी भारत की एक तस्वीर थी। जिसे साकार करने के लिए ही उन्होंने अपना सर्वस्वः देश पर न्यौछावर कर दिया। फांसी से पंद्रह दिन पहले उन्होंने अपने एक साथी से कहा था,

अगर मुझे छोड़ दिया गया, तो अंग्रेजों के लिए मैं एक मुसीबत बन जाऊंगा। अगर मुस्कुराहटों की माला पहने मैं मर गया, तो हिंदुस्तान की हर मां अपने बच्चे को भगत सिंह बनाना चाहेगी और इस तरह आजादी की लड़ाई में सैंकड़ों बहादुर पैदा होंगे, तब इस शैतानी ताकत के लिए क्रांति का यह मार्च रोकना बहुत मुश्किल होगा।

इतिहास गवाह है, भगत सिंह की फांसी के बाद, अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ मुल्क में जो जन ज्वार उभरा, वह फिर थामे नहीं थमा। कुछ बरसों में ही अंग्रेजों को आखिरकार इस देश से रुखसत होना पड़ा। 

भगत सिंह सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि युगदृष्टा, स्वप्नदर्शी, विचारक भी थे। वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी। भगत सिंह ने कहा था कि मेहनतकश जनता को आने वाली आज़ादी में कोई राहत नहीं मिलेगी।

यही नहीं अपनी मां को लिखे एक खत में उन्होंने कहा था, “मां, मुझे इस बात में बिल्कुल शक नहीं, एक दिन मेरा देश आज़ाद होगा। मगर मुझे डर है कि गोरे साहबकी खाली की हुई कुर्सी में काले/भूरे साहब बैठने जा रहे हैं।उनकी भविष्यवाणी अक्षरशः सच साबित हुई। देश आजाद जरूर हो गया, लेकिन सत्ताधारियों का किरदार और आम आदमी के जानिब उनका बर्ताव नहीं बदला।

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क्रांतिकारी स्प्रिट की जरूरत

आजादी के बाद मुल्क में जिन आर्थिक सुधारों का तसव्वुर क्रांतिकारियों ने किया था, वह आज तक नहीं हुआ है। अमीर-गरीब के बीच दूरी खतम होने की बजाय, और ज्यादा बढ़ी है। आज देश में प्रतिक्रियावादी शक्तियों की ताकत पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ी है।

पूंजीवाद, बाज़ारवाद, साम्राज्यवाद के नापाक गठबंधन ने सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है। अपने ही देश में हम आज दुष्कर परिस्थितियां में जी रहे हैं। चहुं ओर समस्याएं ही समस्याएं हैं। कहीं समाधान नज़र नहीं आ रहा है। ऐसे माहौल में भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पूर्व के विचार याद आते हैं,

जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वह हिचकिचाते हैं, इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्प्रिट पैदा करने की जरूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।

लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते में ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की तरक्की रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रांति की स्प्रिट ताज़ा की जाए। ताकि इन्सानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।

अफसोस, आज़ादी मिलने के बाद नई पीढ़ी में क्रांति की वह स्प्रिट उतरोत्तर कम होती गई। जिसके परिणामस्वरूप आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्र भारत में बढ़ते सांप्रदायिक रुझान और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उभार ने भगत सिंह की चिंताओं को सही साबित किया है।

बीते दो-तीन दशक में साम्राज्यवाद का नंगा नाच सारी दुनिया ने देखा है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया समेत कई देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के शिकार हुए हैं। भगत सिंह ने साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादियों के इरादे पूर्व में ही भांप लिए थे।

लाहौर साजिश केस में विशेष ट्रिब्यूनल के सामने साम्राज्यवाद पर अपने बयान में भगत सिंह ने कहा था, “साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों एवं कानूनों को क़त्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकाण्ड भी आयोजित करते हैं अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते है।

जहां कई लोग उनकी नादिरशाही शोषणकारी मांगों को स्वीकार न करें या चुपचाप उनकी ध्वस्त कर देने वाली और घृणा योग्य साजिशों को मानने से इन्कार कर दें, तो वह निरअपराधियों को खून बहाने में संकोच नहीं करते। शांति व्यवस्था की आड़ में वे शांति व्यवस्था भंग करते हैं।

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क्रांति की नई परिभाषा

पराधीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ भगत सिंह द्वारा उस समय दिया गया यह बयान, मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में भी प्रासंगिक जान पड़ता है। अफगानिस्तान और इराक में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर अमेरिका ने जो किया वह किसी से छिपा नहीं।

संयुक्त राष्ट्र संघ और आर्थिक संस्थाओं मसलन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संघ का इस्तेमाल अमेरिका अपने साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए कर रहा है। यानी मौजूदा परिस्थितियां खुद भगत सिंह की बात को हू-ब-हू सच साबित करती हैं। भगत सिंह साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के घोर विरोधी थे। सच मायने में वे भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते थे।

भगत सिंह की सारी जिन्दगानी पर यदि हम गौर करें, तो उनकी ज़िन्दगी के आखिरी चार साल बेहद क्रांतिकारी थे। इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताये। लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का लंबा सफर तय किया। क्रांति की नई परिभाषा दी।

अंग्रेजी हुकूमत, नौजवानों में भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता और क्रांतिकारी छवि से परेशान थी। लिहाजा अवाम में बदनाम करने के लिए भगत सिंह को अतिवादी तक साबित करने की कोशिश की गई। मगर क्रांति के बारे में खुद, भगत सिंह के विचार कुछ और थे।

वे कहते थे, “क्रांति के लिए खूनी संघर्ष जरुरी नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा को कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।

भगत सिंह ने क्रांति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था, “क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसको इस प्रकार के घातक हमलों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो।

यानी भगत सिंह हक़, इन्साफ की लड़ाई में हिंसा को नाजायज मानते थे। उनकी लड़ाई सिर्फ व्यवस्था से थी। आदमी का आदमी द्वारा जो शोषण होता है, उस अमानवीय सोच से थी। सत्ता में सर्वहारा वर्ग काबिज हो, यही उनकी ज़िन्दगी का आखिरी मक़सद था। भगत सिंह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार हमें एक नई क्रांति की राह दिखलाते हैं।

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