वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता के हिमायती ‘सरदार’

ज हम जिस भारत को देखते हैं, उसका तसव्वुर शायद ही सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम के बिना पूरा हो। पटेल ही वे शख्सियत थे, जिन्होंने हमारे देश के छोटे-छोटे रजवाड़ों और राजघरानों को एक कर भारत में शामिल किया। सारी रियासतों को एकसूत्र में बांधा।

उनकी मजबूत इच्छा शक्ति, बेहतरीन नेतृत्व का ही कमाल था कि 600 देशी रियासतों का देखते-देखते भारतीय संघ में विलय हो गया। बिस्मार्क ने जिस तरह से जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, ठीक उसी तरह से पटेल ने भी आजाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में अपना योगदान दिया।

देश के एकीकरण में सरदार पटेल के महान योगदान की वजह से ही उन्हें लौह पुरूष कहा जाता है। आधुनिक भारत के निर्माता के रुप में ही नहीं, बल्कि देश की आज़ादी के संघर्ष में भी उनका अहम योगदान है। आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तरह पटेल की भी नेतृत्वकारी भूमिका थी।

सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नडियाद में एक किसान परिवार में हुआ। वह खेड़ा जिले के करमसाद में रहने वाले झावेर भाई पटेल की चौथी संतान थे। उनकी लगभग पूरी शिक्षा स्वाध्याय से ही हुई। लंदन जाकर उन्होने बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे।

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गांधी विचारों से प्रभावित

दीगर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह वे भी महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थे। गांधी जी के विचारों से ही प्रेरित होकर उन्होने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। उन्होंने अंग्रेज हुकूमत की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार अहिंसक और नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड़े।

अपने इन आंदोलनों के जरिए उन्होंने खेड़ा, बरसाड़ और बारदोली के किसानों को इकट्ठा किया और उनकी समस्याओं को जोरदार तरीके से उठाया। जाहिर है कि अपने इस काम की वजह से वह जल्द ही देश और कांग्रेस के कद्दावर लीडरां की कतार में शामिल हो गए। आगे चलकर उन्हें दो बार कांग्रेस के सभापति बनने का गौरव प्राप्त हुआ।

स्वतंत्रता आंदोलन में पटेल ने सबसे पहली भूमिका खेड़ा संघर्ष में निभाई। गुजरात का खेड़ा खण्ड (डिविजन) उन दिनो भयंकर सूखे की चपेट में था। किसान अकाल से मुश्किल में थे और यहां तक कि उन्हें खाने के लाले पडे़ हुए थे। ऐसे विकराल हालात में किसानों ने अंग्रेज सरकार से टैक्स में छूट की मांग की।

अंग्रेज हुकूमत ने किसानों की इस मांग को निर्ममता से ठुकरा दिया। जब यह मांग मंजूर नहीं हुई, तो पटेल एवं गांधीजी ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कोई टैक्स नहीं देने के लिये प्रेरित किया। किसानों का यह संघर्ष रंग लाया और आखिरकार अंग्रेज सरकार को उनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा। किसानों को उस साल टैक्स में राहत मिली। स्वतंत्रता आंदोलन में पटेल की यह पहली कामयाबी थी।

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सरदार’ की उपाधि 

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान साल 1928 में गुजरात में हुआ बारदोली आंदोलन, एक और ऐसा प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व पटेल ने किया। उस वक्त प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस फीसदी तक इजाफा कर दिया था।

पटेल ने किसानों को एक बार फिर अपने साथ लेकर, इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। अंग्रेज सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए पहले तो कठोर कदम उठाए, लेकिन यहां भी आखिरकार उसे झुकना पड़ा। सरकार ने किसानों की सारी मांगें मान लीं।

न्यायिक अधिकारी बूमफील्ड और राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने सारे मामलों की जांच कर तीस फीसदी लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए, इसे घटाकर 6.3 फीसदी कर दिया।

इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद बारदोली की महिलाओं ने पटेल को सरदारकी उपाधि प्रदान की। सरदार पटेल के इन कारनामों पर महात्मा गांधी की भी नजर थी। किसान संघर्ष एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के अंतर्सबंधों की व्याख्या, खास तौर से बारदोली किसान संघर्ष के संदर्भ में करते हुए उन्होंने कहा था,

इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुंचा रही है और हम सबको स्वराज की मंजिल तक पहुंचाने में ये संघर्ष सीधे स्वराज के लिए संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

महात्मा गांधी की यह बात, आगे चलकर पूरी तरह से सही साबित हुई और इस तरह के छोटे-छोटे संघर्ष ही देश को आज़ादी की राह पर ले गए।

देश की आज़ादी के बाद पटेल की भूमिका खत्म नहीं हुई, बल्कि उनके सामने अब नई चुनौतियां थीं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती, देश की छोटी-छोटी रियासतों को एक करने की थी। आज़ाद भारत में उन्हें उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी मिली।

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रियासत विलय के नायक

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय रियासतों के विलय की मुश्किल जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। सबसे पहले रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा, रियासतों को तीन विषयों सुरक्षा, विदेश तथा संचार व्यवस्था के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा।

वास्तव में पटेल की सबसे ज्यादा आलोचना उनके रियासतो के विलय को लेकर अपनाई भूमिका पर हुई हैं, जिसपर आजतक बहस जारी हैं

सच बात तो यह है कि पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व से ही यानी संक्रमण काल में पी.वी. मेनन के साथ मिलकर, कई देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरंभ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देशी राजाओं को समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना मुमकिन नहीं होगा।

नतीजतन तीन को छोड़कर, बाकी सभी रजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर, बाकी भारतीय रियासतें भारत संघमें शामिल हो गईं।

जूनागढ़ के नवाब के खिलाफ जब बहुत विरोध हुआ, तो वह भागकर पाकिस्तान चले गए। इस तरह जूनागढ़ भी 9 नवम्बर, 1947 को भारत में मिल गया। सबसे ज्यादा दिक्कत हैदराबाद के विलय में आई। हैदराबाद के निज़ाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया।

इस सीधी-सीधी बगावत का पटेल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने तुरंत वहां भारतीय सेना भेजी और निज़ाम को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया। इस तरह साल 1948 में हैदराबाद का विलय भी महज चार दिन के संघर्ष के बाद भारत में हो गया।

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चीन को बताया भावी शत्रू

आज़ाद भारत की पहली सरकार में हालांकि विदेश विभाग नेहरू के पास था, लेकिन कई बार उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में पटेल का भी जाना होता था। पटेल बड़े दूरदर्शी थे और यदि उनकी दूरदर्शिता का फायदा उस समय लिया जाता, तो आज की जो कई बड़ी समस्याएं हैं, उनका जन्म ही नहीं होता। यह बात नेहरू और पटेल के बीच हुए पत्र व्यवहार से मालूम चलती है।

साल 1950 में नेहरू को लिखे अपने एक खत में उन्होंने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान करते हुए, चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में उन्होंने चीन को देश का दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था।

उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा। पटेल की यह सभी बातें बाद में सही साबित हुईं। चीन ने भारत को धोखा दिया और आज भी हमारे देश के प्रति उसका रवैया सुधरा नहीं है।

दोस्ती का ढोंग रचकर, वह हमारे देश के खिलाफ नित्य नई-नई साजिशें रचता रहता है। गृहमंत्री के रूप में पटेल ने देश को और भी कई योगदान दिए। मसलन उन्होंने ही भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर, इसे भारतीय प्रशासनिक सेवाएं यानी आईएएस बनाया। यदि सरदार पटेल कुछ साल और जिन्दा रहते, तो नौकरशाही का भी कायाकल्प कर देते।

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राष्ट्रीय एकता के हिमायती

सरदार पटेल राष्ट्रीय एकता के बेजोड़ शिल्पी थे। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय एकता की खातिर उन्होंने जो कुर्बानियां दीं, वह बेमिसाल हैं। देश की एकता और अखंडता कायम रहे इसके लिए उन्होंने अपनी जिन्दगी के आखिर तक काम किया।

नागरिकों के नाम अपने एक संदेश में उन्होंने कहा था, यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे की उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है। उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ जिम्मेदारियां भी हैं।

सरदार पटेल का यह संदेश आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक है। यदि हर भारतीय देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से समझ ले, तो हमारी राष्ट्रीय एकता को कोई नहीं तोड़ सकता।

आज़ादी के बाद पटेल को ज्यादा लंबी जिन्दगी नहीं मिली। 15 दिसंबर, 1950 को मुंबई में उनका निधन हो गया। अनेक विद्वानों का उनके बारे में कहना है कि पटेल, बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन टाइम्सकी राय इन सबसे जुदा थी।

इस अखबार ने पटेल के निधन के बाद लिखा, बिस्मार्क की सफलताएं, पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं।पहले स्वतंत्रता आंदोलन और फिर उसके बाद पूरे देश को एक सूत्र में बांधने में सरदार पटेल ने जिस तरह से अपना अमूल्य योगदान दिया, इससे बेहतर उन पर शायद ही कोई दूसरी टिप्पणी हो सकती है।

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