अनुवाद में कठिन शब्दों को निकालने कि ‘आज़ादियां’ है

पंडित रतन नाथ सरशार’ (1846-1903) उर्दू के एक विलक्षण लेखक थे जिनकी सबसे बड़ी रचना तीन हज़ार पृष्ठों में फैला उपन्यास फ़सान-ए-आज़ादहै जिसे 19वीं शताब्दी के सामाजिक – सांस्कृतिक इतिहास का एक प्रामाणिक दस्तावेज भी माना जाता है।

यह महाउपन्यास सामंती समाज की पतनशीलता के साथ-साथ आधुनिक विचारों के आगमन को भी बहुत सुंदरता से प्रस्तुत करता है। मानव स्वभाव और संबंधों की सजीव प्रस्तुति के साथ-साथ हास्य-व्यंग का पुट और भाषा की गतिशीलता उपन्यास को महत्वपूर्ण बनाते है।

यह उपन्यास हिन्दी में उपलब्ध नहीं है। प्रेमचंद ने इसका एक बहुत संक्षिप्त रूपांतरण आज़ाद कथाके नाम से किया था जो प्रकाशित है, लेकिन शायद तीन हज़ार पृष्ठों के फसान-ए-आज़ादको कुछ और जानने की ज़रूरत है।

फसान-ए-आज़ादके एक बहुत छोटे प्रसंग का हिंदी पाठ नीचे दिया जा रहा है। प्रयास है कि मूल भाषा की शैली और स्वरूप बना रहे। इसके साथ साथ हिन्दी का पाठक समझ ले; फारसी अरबी के कठिन शब्दों को या तो सरल कर दिया जाए और यदि बहुत जरूरी न हों तो निकाल दिया जाए। इस कोशिश में कई तरह की आज़ादियांली गई हैं।

यह एक बूढ़े पति का ख़त है जो उसने अपनी जवान पत्नी को लिखा है।

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ख़त

मेरी अलबेली, छैल छबीली, तुनक मिज़ाज, नाजुक बदन, आग भभूका, चांदी के बदन वाली, नौ उम्र, नौ जवान, कमसिन, नादान बीवी, मतवाली बीवी को उसके उम्र दराज़, घाट घाट का पानी पिये, झुकी कमर वाले, संजीदा शौहर की उठती जवानी देखना नसीब हो। अरे तुम जुग जुग जिओ और तुम पूतों फलो और दूधों नहाओ। अट्ठारह लड़के हो और अट्ठारह दूनी छत्तीस छोकरियां।

जब मैं दहलीज़ में कदम रखूं तो सब बच्चे अब्बा आए, अब्बा आए, खिलौने लाए, पटाखे लाए कहकर दौड़ पड़ें। मगर डर यह है कि तुम भी अभी कमसिन हो, उनकी देखा देखी कहीं मुझे अब्बा न कह उठना के पास पड़ोस की औरतें मुझे उंगलियों पर नचाएँ और उल्लू बनाएं।

मुझे तुमसे इतनी मोहब्बत है जितनी किसी को अपने जिगर के टुकड़े से होती है। मेरी नानी को मैं ऐसा प्यारा न था जितनी तुम मुझे प्यारी हो और क्यों न हो तुम्हारी परदादी को मैंने गोदो में खिलाया है और मेरी बहन ने उन्हें दूध पिलाया है। मुझे तुम्हारी दादी की ख़ाला का गुड़िया खेलना इसी तरह याद है जैसे किसी को सुबह का खाना याद हो।

मगर तुम ने मेरे साथ में, मेरे दिल के साथ जो किया वही है जो पतझड़ चमन और बिजली आशियाने के साथ करती है। लेकिन मुझ में एक बड़ी खूबी यह है कि मैं परले सिरे का बेहया हूं और क्यों न हूँ,शर्म तो दुल्हन को ज़ेब देती है। बन्दा तो चिकना घड़ा है।

माना कि आंखों में नूर नहीं मगर ताड़ने को सब कुछ ताड़ जाता हूं। सुनाई नहीं देता लेकिन सुनकर कह सकता हूं के जवान औरत की आवाज़ है। पीर हूं लेकिन वे पैर नहीं हूं। हाथ में राशा सही पर सहारे की ज़रूरत नहीं। तुम मेरे बुढ़ापे का सहारा हो। खासतौर से मेरी बीवी हो। गो कमजोरी के मारे मरता हूं मगर तुम्हारी मुहब्बत का दम भरता हूं।

तुम्हारा प्यारा प्यारा मुखड़ा, रसीले नैना, नशीली अखियां, गोरी गोरी बहियाँ जिस वक्त याद आती हैं कलेजे पर सांप लोटने लगता है। वो रसीले होंठ, महकती हुई जुल्फे, वो बादल जैसी मस्ताना चाल, वो रंग रूप, कभी चांद और कभी सूरज। वो चांदनी रात में निखर कर निकलना। कभी मुस्कुराना कभी खिलखिलाना। किसका शर्माना, कैसा लजाना, और तो और तुम्हारी फुर्ती से दिल लोटपोट है, कलेजे पर चोट है।

आंगन से जो लहराती निकलीं तो तड़ से कोठे पर ।ये चुलबुलापन। और वहां से पलक झपकते में छज्जे पर और वहां से छलांग मारी तो आंगन में। बादल की तरह अठखेलियां और फिरकी की तरह चारों तरफ घूमना। मोर की तरह झूमना। कभी खेलते खेलते मेरी गंजी चंदिया पर टीप जमाई।

कभी शोखी से वह डांट बताई के कलेजे का पानी हो गया। कभी आप ही आप रोना। कभी दिन दिन भर सोना। अल्हड़पन के दिन। बारह बरस का सिन। तेरे बेसाख्तापन पन के क़ुर्बान। बीवी जान ले, कहा मानो। हमें ग़नीमत जानो।

मैं सुबह का चिराग हूँ हवा चले न चले। अब बुझा के अब बुझा। डूबता हुआ सूरज हूं अब डूबा के अब डूबा। मैं नाव हूं जिसमें पानी भर चुका है। मुझे सताने का मतलब है मरे को मारना।

तुम खूब जानती हो कि मैं मीठा बोलता हूं। सत्तर बरस हुए के दांत चूहे के हवाले किए। तब से हलवे पर बसर है। जो रोज हलवा खाएगा उसकी ज़बान मीठी क्यों न हो जाएगी। वह मीठी मीठी बातें कहूं कि लब बंद हो जाएं। मगर तुम भी बेक़ुसूर हो।

तुम्हारे गोद में खेलने के दिन हमारा कुछ ऊपर सौ बरस का सिन। तुम जवान जहान यहां झुकी हुई कमर। तुम्हारे सीने में दम और यहां बे दम। तुम्हारी जवानी फटी पड़ती है और यहां कलेजा फटा पड़ता है। लेकिन हमारा इश्क़ बला का इश्क़ है……

(फारसी के शेर)

तुम लाख रूठो फिर भी हमारी हो। बीवी हो। जिगर का टुकड़ा हो। प्यारी हो। वो शुभ घड़ी याद करो जब हम दूल्हा बने, पुराने सर पर नई पगड़ी जमाए। सेहरा लटकाए। मेहंदी लगाए। उल्लू की दुम फ़ाख्ता, होश बाख़ता। मुर्गी के बराबर घोड़िया पर सवार आये थे। और तुम दुल्हन बनी सोलह सिंगार किये घूंघट से झांक रही थीं।

हमारे गालों की झुर्रियां, हमारा पोपला मुंह, हमारी टेड़ी कमर देख कर खुश तो न हुई होगी। वो लब पे आई हंसी देखो मुस्कुराती हो…अब एक नसीहत कर रहा हूँ याद रखना। देखो एक तो मेले ठेलें न जाना दूसरे आसपास की छोकरियों को गोइयाँ न बनाना।

ख़ुदा करे जब तक ज़मीन और आसमान क़ायम हैं तुम जवान रहो और नादान रहो। अल्हड़पन दिन दूनी तरक़्क़ी पाए और जोबन रोज़-ब-रोज़ बढ़ता जाए। हमारे सफेद बाल तुम्हें भाएँ। जलने वाले जल जाएं।

तुम्हारा बूढ़ा नाबालिग़

शौहर

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भाषा की खिड़की

कन्नड़ भाषा में अनूदित और प्रकाशित मेरी कहानियों का एक संकलन बीते दिनों मिला। अनुवाद श्री डी. एन. श्रीनाथ ने किया है जो शिमोगा में रहते हैं और हिन्दी कन्नड़ के अच्छे अनुवादक है।

मेरी रचनाओं के जितने अनुवाद भारतीय भाषाओं में हुए हैं उतने विदेशी भाषाओं में नहीं हुए। कभी-कभी सोचता हूं कि इसकी क्या वजह है? क्या विदेशी अनुवादक मेरे लेखन को अपने समाज और अपने लोगों से निकट नहीं पाते या क्या मेरे रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद सहज नहीं होता या क्या मेरी रचनाएं विदेशी पाठकों की अभिरुचियों के अनुसार नहीं है?

अनुवाद एक टेढ़ा और दिलचस्प प्रसंग है। जब तक अनुवादक को दोनों मूल भाषाएं अच्छी तरह न आती हों तब तक अनुवाद का काम नहीं करना चाहिए।

एक छोटा सा उदाहरण हंगेरियन भाषा से देना चाहता हूं। हिन्दी भाषा में एक शब्द है घरवाली और हंगेरियन में फेलेशेग (Felese’g) है, मतलब घरवाली।

हंगेरियन के इस शब्द का अनुवाद अंग्रेजी में होगा तो वह पत्नी या बीवी होगा और फिर अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने वाला उस शब्द को पत्नी लिखेगा। लेकिन अगर अनुवादक हंगेरियन से हिन्दी में अनुवाद कर रहा है और दोनों भाषाएं जानता है तो वह घरवाली लिखेगा।

हिन्दी वालों ने दुनिया की तमाम भाषाओं के अनुवाद का काम अंग्रेजी से करना शुरू कर दिया है। यह एक तरह से अंग्रेजी की खिड़की से दुनिया को देखने का काम है।

अंग्रेजी की खिड़की का अपना एक चरित्र है। बहुत विचार करने वाली बात है कि हम अंग्रेजी की खिड़की से दुनिया को देखते और समझते हैं। यह दरअसल साम्राज्यवाद की खिड़की है। अधिक सजावट साम्राज्यवादी मूल्यों की है। दो चार उसके विरोध के फूल भी टके हैं।

पंद्रह साल पहले मैं ईरान गया था तो एक अखबार की संपादक महोदया ने कहा था कि अगर मैं 200 साल पहले उनसे मिला होता तो क्या बातचीत अंग्रेजी में होती?

निश्चित रूप से नहीं। बातचीत फारसी में होती। और आज हमें ईरान क्या  पूरी दुनिया के समाचार अंग्रेजी के माध्यम से मिलते हैं। हम आप जानते हैं कि माध्यम पर जिनका कंट्रोल होता है उनकी  अपनी विचारधारा अपनी राजनीति होती है।

बात हो रही थी अनुवाद पर। शुरू में यह मजबूरी थी कि देश में अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाएं लोग कम जानते थे। लेकिन आज इस सीमा को तोड़ने की सख्त जरूरत है। हिन्दी भाषी पूरी दुनिया में अनेक भाषाएं और बोल और सीख रहे हैं। वे बहुत अच्छे अनुवादक हो सकते हैं लेकिन उन्हें इस दिशा में प्रेरित करने का काम लगभग नहीं के बराबर है।

आप कह सकते हैं कि जब देश की सब से बड़ी भाषा और विश्व की चौथी सबसे बड़ी भाषा की स्थिति डावांडोल है तो अनुवाद की बात कौन करें?

मेरी जिन पुस्तकों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं उनके चित्र लगा रहा हूं। अगर हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं में कोई मेरी रचना पढ़ना चाहे तो पढ़ सकता है।

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