तीस साल बाद कहां खडा हैं मुस्लिम मराठी साहित्य आंदोलन?

मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद कि स्थापना हुए अब 30 साल पुरे हो चुके हैं। इन तीन दशको में कृष्णा-भीमा नदी के सतह के नीचे से बहुत सा पानी बह चुका हैं। नब्बे का दशक अब नही रहा। संघ परिवार ने कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने नफरत और घृणा की राजनीति पैदा कर महाराष्ट्र और भारत में हो-हल्ला मचा दिया हैं।

नब्बे के जिस दशक में इस परिषद की स्थापना की गई थी, उस समय मराठी साहित्य जगत में बहुत कुछ चल रहा था। कई जनआंदोलनो की शुरुआत हो चुकी थी।

मराठी साहित्य में अम्बेडकरी विचारो से प्रेरणा लेकर लिखना शुरू करनेवाले पिछडे जाति-जनजाति के लेखको का साहित्य अपनी जगह बना चुका था।

महाराष्ट्र में रविकिरण मंडल, फडके-खांडेकर-अत्रे-काणेकर इनकी युग समाप्ती हो चुकी थी। साफ तौर पर कहे तो नागरी समाज के सफेदपोश वर्ग का लिखना बेअसर और शुष्क होता जा रहा था। मंगेश पाडगावकर, वसंत बापट इनकी कविताओ का दौर चल रहा था।

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आंदोलन कि शुरुआत

समाज के पिछडे और घुमंतू समुदाय के अलग-अलग तबको से कई लोग लिख रहे थे। पिछडे और अनुसूचित जाति-जनजाती के लेखको के साहित्य को दलित साहित्यकहा जाने लगा। इस साहित्य नें मराठी ब्राह्मणशाही और मध्यवर्ग में खलबली मचा दी थी। हाशिये के उस पार धकेले गए जाति, उपेक्षित समाज, धार्मिक-सांस्कृतिक उत्पिडन से ग्रस्त हो चुँके थें।

इस समाज कि जिन्दगी, उनके प्रति पनपती हीन भावना, दुख-दारिद्र्यता के अंधकार में बीत रहा उनका जीवन तथा उनकी समस्याए दलित साहित्य से एकाएक सामने आ गयी।

तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी ने उन्हे विभत्स रसोमे ढालने के बावजूद अम्बेडकरी हुंकारकी गर्जना गूँजती रही थी। मराठी में इसाई और वीरशैव साहित्य की भी दखल ली जा रही थी।

महाराष्ट्र में 15वी शताब्दी से ग्रामीण भागो मे मुसलमान मराठी में लिख रहे थे भक्तिगीत, लोकगीत, तथा अभंग लिखने वाले 50 से अधिक मुस्लिम मराठी कवी हो चुके थें। कोकण में स्वाधीनता संग्राम के पहले से कोकणी मुसलमान मराठी में लिख रहे थे।

कॅप्टन फकीर महंमद जुलवे, हुसेनमियाँ माहिमकर, अबू काझी, परवेज नाईकवाडे, बशीर सावकार से लेकर कवी खावर अजीज हसन मुक्री आदि का लिखा साहित्य प्रकाशित हो रहा था। लोग उन्हें पढ भी रहे थे।

मराठवाडा, विदर्भ और पश्चिम महाराष्ट्र इन प्रदेशो के अलग-अलग शहरो से मुस्लिम लेखक-कवी मराठी में लिख रहे थे। संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में शाहीर अमर शेख का शाहिरी काव्य ऐतिहासिक और महत्त्वपूर्ण माना जा रहा था।

1920 के दशक से ही सांगली के विधायक सय्यद अमीन मराठी में लिखते आ रहे थे। 1940-45 आते आते उनके 15/16 उपन्यास प्रकाशित हो चुके थें। उन्हे प्रसिद्धी भी मिल चुकी थी।

मुस्लिम मराठी साहित्यका शब्दप्रयोग सबसे पहले इन्होंने ही किया था। डॉ. यू. म. पठाण संत साहित्य के प्रकांड पण्डित के तौर पर नामचीन हो चुके थे। हमीद दलवाई का इंधनउपन्यास कोकणी मुसलमानों की समस्या तथा शिक्षित शहरी मुस्लिम युवाओं का संघर्ष लेकर आया था।

जबकि मुख्य प्रवाह के मराठी साहित्य में इसकी कोई दखल नही ली जा रही थी। इसके बरखिलाफ पु. भा. भावे, माडखोलकर जैसे लोगों के साहित्य में मुसलमान और उनके साहित्य के प्रति घृणा झलक रही थी।

1980 के दशक के बाद मुसलमानों का एक बडे तबके ने उच्च शिक्षा का रुख किया। औरंगाबाद, मालेगाव, मुंबई, पुणे आदी शहरो के अलावा दुसरे कई शहरो से बहुसंख्या में मुसलमानो ने प्रादेशिक भाषा में शिक्षा ग्रहण कर मराठी में लिखना आरंभ किया।

इन लोगों के लिखने पहले मराठी साहित्य में मुसलमानो को सिर्फ नकारात्मक दृष्टिकोण से चित्रीत किया जाता था।

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औपनिवेशक इतिहास

महाराष्ट्र का 8/9 प्रतिशत मुस्लिम समाज के रहन-सहन की कोई दखल भी मुख्य प्रवाह के मराठी साहित्य जगत में नही ली जा रही थी। कोकण के रत्नागिरी शहर को अगर छोड दे तो, मुसलमान कोकणी या फिर कोकणमिश्रित मराठी में बात करता था, उसी भाषा में लिखता था। कोल्हापुर से कई मुसलमानों ने मराठी में ही शिक्षा ग्रहण की थी। उनके सवाल तथा उनके के जिन्दगी के बारे में मराटी में कही भी कुछ लिखा नही जा रहा था।

1980 के बाद इन सब को लेकर दो–तीन बातें हो गई, पहले तो लातूर के प्रो. फ. म. शहाजिंदे, नागपुर से प्रो. जावेद पाशा, कोल्हापुर से बाबा मुहंमद आत्तार, सोलापूर से प्रो. अजीज नदाफ, प्रा. फकरुद्दीन बेन्नूर आदी लेखक-कवीयो नें मराठी में अपनी समस्या तथा प्रश्नों को साहित्य के माध्यम से अधोरेखित करना शुरु किया।

इन सब का कहेना एक ही था कि, मुख्य प्रवाह के मराठी साहित्य में मुसलमानों की कोई दखल क्यों नही ली जा रही हैं? मराठी सहित्य में मुसलमानो का सिर्फ नकारात्मक चित्रण क्यों किया जा रहा हैं?

दूसरी बात पर गौर करे तो मुस्लिम विरोध से भरी औपनिवेशक इतिहास (कलोनियल हिस्टरी) का वर्चस्व इस साहित्य में पाया जा रहा था, जिसका प्रभाव आर. सी. मुजुमदार, के. एम. मुन्शी से लेकर गो. स. सरदेसाई आदि इतिहासकार और अन्य मराठी विचारको पर हो रहा था। प्रभाव कहने के बजाए कलोनियल हिस्टरी को ही यह लोग अपने संशोधन के जरीए पेश कर रहे थें।

तिसरी बात सबसे महत्वपूर्ण यह हो रही थी कि, पिछडे और हाशीए पर धकेले गये जाति-जनजाति के आंदोलन जोरो पर थे, उनका साहित्य बडे पैमाने पर निकल कर आ रहा था। हम सोलापूर में इस हालात पर चर्चा कर रहे थे।

क्योंकि, हमारा लिखा हुआ बडे पैमाने पर नकारा जा रहा था। 1981-82 के बाद तो दंगों कि राजनीति शुरु हो चुकीं थी। 1969 में दंगो की लहर आकर चली गई थी। फसाद भडकाये जा रहे थें। मुसलमानो के दोषी और गुनहगार साबीत कर उन्हें शक के कटघरे में खडा किया जा रहा था।

इस भडकीले बयानबाजी के चंगुल में फंसकर कुछ सरफिरे मुसलमानो से हिंसक घटनाए घटित हो रही थी। इस बात को कही न कही रेखांकित कर मुस्लिम समुदाय को अस्तित्व भी स्पष्ट करना जरुरी हो चुका था।

शाहबानो मामले के बाद मुसलमानों के धर्मगुरू का बर्ताव और उनकी बाते गलत रुख अपना रही थी। इन सब के वजह से मुसलमान सबसे ज्यादा मुसीबत में फंस चुँका था। संघ परिवार नें बाबरी मस्जिद की राजनीति अपने हाथ में ले ली थी।

विदेशी बाबर के नाम से यहाँ के वंश और सांस्कृतिक दृष्टी से भारतीय मुसलमान को सताया जा रहा था। उनका शत्रुकरण शुरू हो चुँका था।

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पषद का उद्देश 

इन सब के बीच हमने सन 1989 को सोलापुर में मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की स्थापना की। इसी साल हमने पहिले मुस्लिम मराठी साहित्य संमेलन का आयोजन किया। जिसको अच्छा प्रतिसाद मिला, हमारे इस नई कोशिश को चारो दिशाओ से सराहना मिल रही थी।

हमारे इस संमेलन की खबरे समुचे महाराष्ट्र में फैल रही थी। जिसके बाद महाराष्ट्र के अलग-अलग कोनो से गैरमुस्लिम विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता यही नही बल्की, राजनीतिक नेताओं से अभिनंदनों के खत आते रहें।
हमारा साहित्य आंदोलन मुसलमानों के प्रबोधन के दृष्टी से महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा। उस समय आज इतना वातावरण दूषित नही हुआ था, सामाजिक अभिसरण की प्रक्रिया चल रही थी।

जिसके चलते कई लोग हमारी इस नयी संकल्पना का समर्थन कर रहे, जिसमे कई गैरमुस्लिम श्रोता और कार्यकर्ता भी थें। इस संमेलन के बाद मराठी में लिखने वाले मुसलमान कवि-लेखको की संख्या 150 के करीब पहुँच गयी।

मुस्लिम मराठी साहित्य धर्मप्रसार को बढावा देनेवाला नही था। महाराष्ट्रीयन मुसलमानों के जीने-मरने की समस्याए लेकर हमार साहित्य आगे आ रहा था।

मुस्लिम मराठी साहित्य क्या होता हैं?  इस सवालो के जवाब हम दे रहे थें। प्रादेशिक मराठी अस्मिता को लिए जिन्दी जी रहे मुस्लिमों की हालात, उससे पनपने वाले सवाल, तणावग्रस्त और असुरक्षित जिन्दगी के कई पहलू पर हम अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से बात कर रहे थें।

मुस्लिम मराठी साहित्य क्या हैं’ इसकी अगर बात करे तो, मराठी प्रदेश में जन्मे वंश-सांस्कृतिक (एथ्नो कल्चरल) रूप से पूरी तरह से मराठी मिट्टी में रहते आये मुसलमानो के समस्या तथा सवालों पर बहस करने वाला साहित्य।

धर्म और इस धार्मिक संघर्ष ने खडे किए सवालकलोनियल और राष्ट्रवादी (?) इतिहास ने थोंपा हुआ परायापन, जातिव्यवस्था से अलग विभागो में बँटा मुस्लिम समुदाय, इस वातावरण में मराठी मुसलमानों के मन में चल रही दुविधा, कट्टरता कि राजनीति इन सब के बीच से उपजने वाले दंगे, उपरोक्त घटकों का मुस्लिम समाज पर हो रही परिणामो की चर्चा करना, यह इस साहित्य परिषद का उद्देश था।

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ओबीसी आंदोलन कि नींव

हमारे साहित्य परिषद ने इस्लाम पर नही लिखा, धर्म पर लिखना उद्देश नही था। वह तो कुरआन और हदीसो के आदर्शो पर टिका हुआ हैं।

हमारे साहित्यिको ने सन 2000 तक हिन्दु-मुस्लिम दोनों समुदाय के प्रबोधन करने के दृष्टी से कई सवालो को खडा किया। महाराष्ट्र में इस संबंध में चर्चाए शुरु हो चुकी थी। हमने इसी समस्या तथा सवालों को आगे ले जाकर हल निकालने की कोशिश की, जिससे मुस्लिम ओबीसी आंदोलन खडा हो पाया।

इस बारे में हमने कई पत्रिका, अखबार में लेख लिखे। असगर अली इंजिनिअर नें दी हिंदूऔर प्रफुल्ल बिदवई नें टाईम्स जैसे अंग्रेजी अखबारो में इस मुद्दे को बार-बार लिखा, जिससे हमारा ओबीसी आंदोलन उत्तर भारत पहुंचकर सच्चर समिती के शिफारसे बन गया। उस रिपोर्ट में उल्लेखित कई प्रश्न मुस्लिम ओबीसी आंदोलन खडे किये थें।

इक्कीसवी सदी का प्रारुप पूरी तरह से बदला हैं। अह हालात और ज्यादा विस्फोटक बन गए हैं। चुनावी सत्ताकारण के लिए मुसलमानों का विकृतीकरण और दानवीकरण कर हिन्दुत्व का नशा पैदा किया जा रहा हैं, जिससे राजनीतिक पार्टीयों को चुनाव जितने में आसानी हो रही हैं। ऐसे दौर में मुसलमानों से बात करना भी गुनाह माना जा रहा हैं।

सालों पहले अमरिका और दक्षिण अफ्रिका देशों में अश्वेत वंश के लोगो का अलग-थलग किया जाता था, जिसे अपर्थिडकहते हैं, जिससे उस अश्वेत जमात में परायापन और हीन भावना का अस्तित्व रह जाता हैं, इस तरह का बर्ताव आज भारत में आम हो गया हैं। भाजपाई सत्ता स्थापित राज्यों में मुसलमानों के नागरी अस्तित्व को नकारा जा रहा हैं।

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आज हमारे (मुस्लिमों के) हालात तो अपर्थिड से भी बुरे हुए हैं। हमे भारत में रहने का अधिकार नही दिया जा रहा हैं। ऐसे स्थिति में अस्मिता का कोई अर्थ नही रहता।

भूमिपूत्र तथा प्रादेशिक अस्मिता नकारी जा रही हैं। अगर अस्मिता ही शत्रूभावी हो रही हैं, तो उसका हुंकार अर्थहीन हैं। इन संकट का विचार मुस्लिम मराठी साहित्यिको ने अब करना जरूरी हैं। पुराने तर्क और समझ को अब बदलने की जरुरत हैं। प्रतिसाद कम होते संमेलनो का आयोजन करने से कुछ होनेवाला नही हैं।

मुस्लिम मराठी साहित्यिको को धर्मो के बंद फ्रेम के बाहर निकलना होंगा। जमालुद्दीन अफगाणी के अनुसार भारत के अन्य सांस्कृतिक प्रवाह को अपना मानकर उन्हे स्वीकारना होंगा।

समस्या कठीण हैं, परंतु इस संस्कृति के भंवर में हाथ डालना होंगा। उसके लिए भावनाप्रधान लेखन के बाहर आने कि जरुरत हैं।

मुसलमानों के कथित तृष्टिकरण, नफरत और उनके खिलाफ हिंसा को फैलाना आज राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में चलाया जा रहा हैं, इस सबकी कथा, कहानियाँ, उपन्यास, कविताए और गज़लों के माध्यम से खबर लेनी होंगी।

मुख्य प्रवाही साहित्य संमेलन का अनुकरण करने से कुछ फायदा साहिल होनेवाला नही हैं। तूम छोटे, या मैं बडा? तूम पहले, मैं बाद में? यह एक प्रकार की नादानी हैं।

इतिहास अपने गती से चला जा रहा हैं। वह इन सब घटनाओं का खबर रखता हैं। मुसलमानों को इक्कीसवी सदी में इन सारे समस्याप्रधान सवालों को लेकर खडे होना यही एकमात्र रास्ता नजर आता हैं।

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