नाम बदलने के राजनीति की भेंट चढ़ती जनता

मुल्क के सियासतदान अपने-अपने राज्यों में शहरों के नाम बदलने में मसरूफ हो रहे हैं मानो यह विकास का नया फॉर्मूला है। इस फॉर्मूले से शहर की सड़कों, पानी, बिजली और यातायात की तमाम समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।

मौजूदा शहरों के नाम बदलने के कयास में महत्त्वपूर्ण बात यह दिख रही है कि उन शहरों के नाम बदले जा रहे हैं जिन शहरों को मुस्लिम शासकों ने बसाया था और नाम बदलने के पीछे इतिहास की जो व्याख्या रखने की कोशिश है वह दोयम दर्जे की है।

तर्क का एक बिंदु यह है कि तमाम मुस्लिम शासकों ने जिन शहरों को बसाया और उन के नामों का नामकरण किया उन्होंने वहाँ के निवासीयों का दमन किया या पुराने नामों को बदल कर नया नाम थोप दिया। उन्होंने जिन शहरों का नामकरण किया वे मुस्लिम शासकों के दमन की याद दिलाते हैं।

वैसे मौजूदा सियासतदान शहरों के नाम बदलने के तर्क स्थिर भी नहीं रख रहे हैं। वह वक्त-बे-वक्त बदलते जा रहे हैं। इन में नया तर्क यह भी शामिल हो गया है कि जनता में ही शहरों और राजधानियों के नाम बदलने का नया जोश पैदा हो गया है जिसे नया पुनर्जागरण कहा जा रहा है।

इन सब के मूल में यह बात छुपी हुई है कि मौजूदा सियासतदान अपनी असफलता को छिपाने के लिए समुदायों के बीच ध्रुवीकरण की राजनीति से सामाजिक संस्कृति को ज़मींदोज करने की कोशिश कर रहे हैं। चूंकि शहरों और राजधानियों के नाम बदलने की सियासत मौजूदा दौर में विकास हो गई है इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि तमाम सियासतदान शहरों या राजधानियों के नाम बदलने में हो रहे सरकारी खर्च का भी ब्यौरा दें।

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गलत फहमीया बनाम तथ्य

विचारधारा के आधार पर या फिर किसी खास तबके की पहचान मिटाने के मकसद से सड़कों, चौराहों, शहरों या फिर इमरतों के नाम बदलने की राजनीति देश के लिए घातक है। इस से न समाज को कोई फायदा है और न ही देश को। इस से समाज में एक तबके का जहां उत्साह वर्धन होता है वहीं दूसरा तबक़ा हीन भावना क शिकार हो जाता है।

नया नाम ज़हन और ज़ुबान पर चढ़ने में वक्त लगता है। यूपीए सरकार के समय में कनाट प्लेस और कनाट सर्कस का नाम बदल कर राजीव चौक और इंदिरा चौक रखा गया था। इस बात को एक दशक से भी ज्यादा हो चुका है लेकिन आज भी लोग कनाट प्लेस ही जाते हैं। अगर कनाट प्लेस का नाम बदल जाने से कांग्रेस को फायदा होना होता तो वो आज हाशिये पर नहीं होती।

बीजेपी आज केंद्र से ले कर देश के कई राज्यों में सत्ता में हैं। वो जहां चाहे, जिस सड़क, चौराहे, गली, मुहल्ले, शहर या इमारत का नाम बदल सकती है। लेकिन नाम बदलने से पहले उसे अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ‘वासुधैव कुटुंबकम’ और नरेंद्र मोदी के ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारे को ध्यान में रखना चाहिए।

अगर बीजेपी राज में मुस्लिम पहचान वाले शहरों का नाम बदलने का सिलसिला जारी रहता है तो इस से बीजेपी और उस की सरकरों में मुस्लिम समाज का अविश्वास बढ़ेगा। ये स्थिति न मुस्लिम समाज के लिए अच्छी है न बीजेपी के लिए और न ही देश के लिए।

नाम बदलने की राजनीति देश के लिए घातक है। इस पर रोक लगनी चाहिए। बेहतर हो कि नाम बदलने को ले कर केंद्र और राज्यों में एक विशेष समिति बने। सभी पक्षों की राय जानने के बाद यह कमेटी नाम बदलने के फैसला करे। नाम बदलने के लिए ठोस कारण भी होने चाहिए।

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नुकसान किस का?

कुल मिला कर इस पूरी प्रक्रिया में उसी तरह से धन और श्रम खर्च होते हैं। कमोबेश हर सियासतदान शहरों और राज्यों के नाम बदलने में हो रहे सियासी खर्चे को छुपा ले जाते हैं और जनता के पैसे का कोई हिसाब जनता को नहीं देते। तर्क यह दिया जाता है कि जनता में नया तरह का पुर्नजागरण हो रहा है और जनता ही चाहती है कि शहरों और राज्यों के नाम बदले जाएं। लोगों को लगता है कि चलो इन को अपना शौक पूरा कर लेने दो इस से हमें क्या नुकसान है?

आम जनता को यह समझना ज़रूरी है कि सरकार केवल मदारी है। उसे पैसे कमाने से मतलब है। वह ऐसा खेल ही दिखायेगी जिस से जनता पैसे के साथ-साथ ताली भी बजाए और अबोध जनता वही कर रही है। तालियों की गड़गड़ाहट में बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मूलभूत सवालों को भुलाने की कोशिश हो रही है।

आम लोगो को समझ में नहीं आ रहा शहरों के नाम बदल कर विकास की कौन-सी नई इबारत लिखी जा रही है। चूंकि नाम बदलने की सियासत को ले कर दक्षिण के पूर्व मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि को शानदार राजनीतिक सफलता मिली थी इसलिए शहरों के नाम बदलने की सियासत को राजनीतिक सफलता का सफल-सूत्र मान लिया गया है।

कभी इतिहास, कभी परंपरा तो कभी स्थानीय लोगों की भावनाओं की आड़ में और कभी महज़ राजनीतिक लाभ के लिए ही नए सिरे से नामकरण की कवायद होती रही है। इस का इस्तेमाल आगे भी राजनीति में किया जाता रहेगा। शहरों के नाम बदलने की सारी सियासत जनता के कंधे पर बंदूक रख कर की जाती है इसलिए इस का विरोध होना चाहिए क्योंकि यह जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल है और कुछ नहीं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि शहरों के नाम बदलने से पूर्व शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का वादा सरकारें अब तक पूरा नहीं कर सकी। शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का वादा जुमलों और कागज़ी खर्च के अलावा कुछ नहीं है और अब नाम बदलने की राजनीति में जनता को सिर्फ तमाशबीन ताली बजाने के लिए कहा जा रहा है।

भले ही राष्ट्रवाद के दौर में हम सांस्कृतिक पुनरुत्थान के नाम पर मुगलिया इतिहास की अनदेखी करें लेकिन नाम बदलने से जज्बात नहीं बदला करते।

शायर मुनव्वर राना ने कहा था-

दूध की नहर मुझ से नहीं निकलने वाली

नाम चाहे मेरा फरहाद भी रखा जाए

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