जनसामान्य में यह धारणा घर कर गई है कि मुसलमान मूलतः और स्वभावतः अलगाववादी हैं और उनके कारण ही भारत विभाजित हुआ। जबकि सच यह है कि मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया और पूरी निष्ठा से भारत की साझा विरासत और संस्कृति को पोषित किया। फिर भी, आम तौर पर मुसलमानों को देश के बंटवारे के लिए दोषी ठहराया जाता है।
देश के विभाजन का मुख्य कारण अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति थी और देश को बांटने में हिन्दू और मुस्लिम संप्रदायवादियों ने अंग्रेजों की हरचंद मदद की।
यही नहीं, भारत पर अपने राज को मजबूती देने के लिए अंग्रेजों के सांप्रदायिक चश्मे से इतिहास का लेखन करवाया गया और आगे चलकर इतिहास का यही एडिशन सांप्रदायिक राजनीति की नींव बना और उसने मुसलमानों के बारे में मिथ्या धारणाओं को बल दिया।
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क्या है साजिश?
सेवानिवृत्ति की कगार पर खड़े एक नौकरशाह, के. नागेश्वर राव, ने ट्विटर पर हाल में जो टिप्पणियां कीं हैं, वे इसी धारणा की उपज हैं। इन ट्वीटों में राव ने शासकीय कर्मियों के लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन करते हुए, आरएसएस-बीजेपी की तारीफों के पुल बांधे हैं और उन दिग्गज मुसलमान नेताओं का दानवीकरण करने का प्रयास किया हैं जिन्होंने न केवल स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी की बल्कि स्वतंत्र भारत के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
“अगर जन्नत से कोई देवदूत भी धरती पर उतर कर मुझसे कहे कि यदि मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करना छोड़ दूं तो इसके बदले वह मुझे 24 घंटे में स्वराज दिलवा देगा तो मैं इंकार कर दूंगा। स्वराज तो हमें देर-सवेर मिल ही जाएगा, परन्तु अगर हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता खत्म हो गयी तो यह पूरी मानवता के लिए एक बड़ी क्षति होगी।”
नागेश्वर राव ने मौलाना आज़ाद और अन्य मुस्लिम केंद्रीय शिक्षा मंत्रियों पर हिन्दुओं की जड़ों पर प्रहार करने का आरोप लगाते हुए ऐसे मंत्रियों की सूची और उनके कार्यकाल की अवधि का हवाला भी दिया है- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद – 11 वर्ष (1947-58), हुमायूं कबीर, एम.सी. छागला और फखरुद्दीन अली अहमद- 4 वर्ष (1963-67) और नुरुल हसन- 5 वर्ष (1972-77)। उन्होंने लिखा कि बाकी 10 वर्षों में वीकेआरवी राव जैसे वामपंथी केंद्रीय शिक्षा मंत्री के पद पर रहे।
उनका आरोप है कि इन मंत्रियों की नीतियों के मुख्य अंग थे- (1) हिन्दुओं के ज्ञान को नकारना, (2) हिन्दू धर्म को अंधविश्वासों का खजाना बताकर बदनाम करना, (3) शिक्षा का अब्राहमिकिकरण करना, (4) मीडिया और मनोरंजन की दुनिया का अब्राहमिकिकरण करना और (5) हिन्दुओं को उनकी धार्मिक पहचान के लिए शर्मिंदा करना। राव का यह भी कहना है कि हिन्दू धर्म ने हिन्दू समाज को एक रखा है और उसके बिना हिन्दू समाज समाप्त हो जाएगा।
फिर वे हिन्दुओं का गौरव पुनर्स्थापित करने के लिए आरएसएस-बीजेपी की प्रशंसा करते हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा है वह नफरत को बढ़ावा देने वाला तो है ही वह एक राजनैतिक वक्तव्य भी है। नौकरशाहों को इस तरह के वक्तव्य नहीं देने चाहिए। सीपीएम की पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर इस अधिकारी के खिलाफ उपयुक्त कार्यवाही किये जाने की मांग की है।
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आज़ाद कि आधुनिकता
नागेश्वर राव ने शुरुआत मौलाना आज़ाद से की है। मौलाना आजाद, स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक थे और 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष बने। वे 1940 से लेकर 1945 तक भी काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उन्होंने अंतिम क्षण तक देश के विभाजन का विरोध किया।
काँग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से 1923 में उन्होंने लिखा, “अगर जन्नत से कोई देवदूत भी धरती पर उतर कर मुझसे कहे कि यदि मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करना छोड़ दूं तो इसके बदले वह मुझे 24 घंटे में स्वराज दिलवा देगा तो मैं इंकार कर दूंगा। स्वराज तो हमें देर-सवेर मिल ही जाएगा, परन्तु अगर हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता खत्म हो गयी तो यह पूरी मानवता के लिए एक बड़ी क्षति होगी।”
उनकी जीवनी लेखक सैय्यदा हामिद लिखती हैं, “उन्हें तनिक भी संदेह नहीं था कि भारत के मुसलमानों का पतन, मुस्लिम लीग के पथभ्रष्ट नेतृत्व की गंभीर भूलों का नतीजा है। उन्होंने मुसलमानों का आह्वान किया कि वे अपने हिन्दू, सिख और ईसाई देशवासियों के साथ मिलजुल कर रहें।” उन्होंने ही रामायण और महाभारत का फारसी में अनुवाद करवाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
दरअसल, वही वह दौर था जब देश में साझा संस्कृति और परंपराओं का विकास हुआ। इसी दौर में भक्ति परंपरा पनपी, जिसके कर्णधार थे कबीर, तुकाराम, नामदेव और तुलसीदास। इसी दौर में सूफी-संतों के मानवीय मूल्यों का पूरे देश में प्रसार हुआ। इसी दौर में रहीम और रसखान ने हिन्दू देवी-देवताओं की शान में अमर रचनायें लिखीं।
यह तो पक्का है कि नागेश्वर राव ने न तो मौलाना आज़ाद को पढ़ा है, न उनके बारे में पढ़ा है और न ही उन्हें इस बात का इल्म है कि मौलाना आज़ाद की आधुनिक भारत के निर्माण में क्या भूमिका थी।
राव जिन वैचारिक शक्तियों की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं वे शक्तियां नेहरु युग में जो कुछ भी हुआ, उसकी निंदा करते नहीं थकतीं, पर वे यह भूल जाते हैं कि नेहरु युग में ही शिक्षा मंत्री की हैसियत से मौलाना आज़ाद ने आईआईटी, विभिन्न वैज्ञानिक अकादमियों और ललित कला अकादमी की स्थापना करवाई। उसी दौर में भारत की साझा विरासत और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अनेक कदम उठाये गए।
जिन अन्य दिग्गजों पर राव ने हमला बोला है वे सब असाधारण मेधा के धनी विद्वान थे और शिक्षा के क्षेत्र के बड़े नाम थे। हुमायूं कबीर, नुरुल हसन और डॉ. जाकिर हुसैन ने शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण और बेजोड़ सैद्धांतिक और व्यावहारिक योगदान दिया।
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सांप्रदायिकता की उपज
हम बिना किसी संदेह के कह सकते हैं कि अगर आज भारत सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर के क्षेत्रों में विश्व में अपनी धाक जमा पाया है तो उसके पीछे वह नींव है, जो शिक्षा के क्षेत्र में इन महानुभावों ने रखी। हमारे देश में सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर इंजीनियरों की जो बड़ी फौज है, वह उन्हीं संस्थाओं की देन है, जिन्हें इन दिग्गजों ने स्थापित किया था।
यह आरोप कि इन मुसलमान शिक्षा मंत्रियों ने ‘इस्लामिक राज’ के रक्तरंजित इतिहास पर पर्दा डालने का प्रयास किया, अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए सांप्रदायिक इतिहास लेखन की उपज है। दोनों धर्मों के राजाओं का उद्देश्य केवल सत्ता और संपत्ति हासिल करना था और उनके दरबारों में हिन्दू और मुसलमान दोनों अधिकारी रहते थे।
जिसे ‘रक्तरंजित मुस्लिम शासनकाल’ बताया जाता है, दरअसल, वही वह दौर था जब देश में साझा संस्कृति और परंपराओं का विकास हुआ। इसी दौर में भक्ति परंपरा पनपी, जिसके कर्णधार थे कबीर, तुकाराम, नामदेव और तुलसीदास। इसी दौर में सूफी-संतों के मानवीय मूल्यों का पूरे देश में प्रसार हुआ। इसी दौर में रहीम और रसखान ने हिन्दू देवी-देवताओं की शान में अमर रचनायें लिखीं।
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इस योगदान को कैसे भूले?
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों ने बड़ी संख्या में स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया। दो अध्येताओं, शमशुल इस्लाम और नासिर अहमद ने इन सेनानियों पर पुस्तकें लिखीं हैं। इनमें से कुछ थे – ज़ाकिर हुसैन, खान अब्दुल गफ्फार खान, सैय्यद मुहंमद शरिफुद्दीन कादरी, बख्त खान, मुजफ्फर अहमद, मुहंमद अब्दुर रहमान, अब्बास अली, आसफ अली, यूसुफ़ मेहरअली और मौलाना मजहरुल हक।
और ये तो केवल कुछ ही नाम हैं। गांधीजी के नेतृत्व में चले आंदोलन ने साझा संस्कृति और सभी धर्मों के प्रति सम्मान के भाव को बढ़ावा दिया, जिससे बंधुत्व का वह मूल्य विकसित हुआ जिसे संविधान की उद्देशिका में स्थान दिया गया।
भारत के उन शिक्षा मंत्रियों, जो मुसलमान थे, को कटघरे में खड़ा करना, भारत में बढ़ते इस्लामोफोबिया का हिस्सा है। पहले से ही मुस्लिम बादशाहों और नवाबों के इतिहास से चुनिंदा हिस्सों को प्रचारित कर यह साबित करने का प्रयास किया जाता रहा है कि वे हिन्दू-विरोधी और मंदिर विध्वंसक थे।
अब, स्वतंत्रता के बाद के मुस्लिम नेताओं पर कालिख पोतने के प्रयास हो रहे हैं। इससे देश को बांटने वाली रेखाएं और गहरी होंगीं। हमें आधुनिक भारत के निर्माताओं के योगदान का आंकलन उनके धर्म से परे हटकर करना होगा। हमें उनका आंकलन तार्किक और निष्पक्ष तरीके से करना होगा।
जाते जाते :
- खुदा बक्श लाइब्रेरी बचाने के लिए जन आंदोलन की जरुरत !
- उर्दू और हिन्दी तरक्की पसंद साहित्य का अहम दस्तावेज़
- प्रगतिशील लेखक संघ : साहित्य आंदोलन का मुकम्मल खाका
लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।