हमारे देश के सत्ताधारी दल बीजेपी के पितृ संगठन आरएसएस के स्वाधीनता संग्राम में कोई हिस्सेदारी न करने पर चर्चा होती रही है। पिछले कुछ सालों में संघ की ताकत में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है और इसके साथ ही इस संगठन के कर्ताधर्ताओं ने यह जताने के प्रयास भी तेज कर दिए हैं कि आज़ादी की लड़ाई में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
आरएसएस के चिंतक कहे जाने वाले राकेश सिन्हा इन दिनों बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं। उनका दावा है कि संघ के संस्थापक हेडगेवार की भागीदारी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को जबरदस्त ताकत दी थी। कुछ लोग इससे भी दो कदम आगे हैं। साजी नारायण नामक एक सज्जन का मानना है की संघ की स्वाधीनता आंदोलन में पूरी तरह से शामिल था।
यह मुद्दा हाल में चर्चा तब आया जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने राज्य विधानसभा में बोलते हुए कहा कि आरएसएस ने स्वाधीनता की लड़ाई में भाग नहीं लिया और यह भी कि केवल भारत माता के जयकारे लगाने से कोई देशभक्त नहीं हो जाता।
इसके जवाब में संघ की शाखा में प्रशिक्षित महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने फरमाया कि संघ के संस्थापक (डॉ. हेडगेवार) स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे।
इतिहास की पड़ताल से यह साफ हो जाएगा कि मुस्लिम (मुस्लिम लीग) और हिन्दू (हिन्दू महासभा-आरएसएस) राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता संग्राम में तनिक भी हिस्सेदारी नहीं की। ब्रिटिश शासन के खिलाफ महात्मा गांधी ने जिस संघर्ष का नेतृत्व किया था वह समावेशी था।
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अंशत: अपवाद
सांप्रदायिक सोच में रची-बसी ताकतों ने इस संघर्ष से पर्याप्त दूरी बनाये रखी। दोनों सांप्रदायिक राष्ट्रवादी धाराओं के नेतृत्व की मान्यता थी कि ‘दूसरी’ धारा से निपटने के लिए उन्हें अंग्रेजों से सहयोग करना होगा। मुस्लिम और हिन्दू राष्ट्रवादी सोचते थे कि उन्हें एक-दूसरे को परास्त करने के लिए अंग्रेजों की मदद लेनी ही होगी।
जहां तक हिन्दू राष्ट्रवादियों का संबंध है, उनमें स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले अपवाद स्वरुप ही थे। उनमें से अधिकांश या तो तटस्थ बने रहे या उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया।
सावरकर ने कालापानी की सज़ा पाने के पूर्व ब्रिटिश शासन का विरोध अवश्य किया था पर अंग्रेजों से माफ़ी मांगकर पोर्टब्लेयर के जेल से रिहा भी हुए। उसके बाद उन्होंने विश्वयुद्द में ब्रिटेन की ओर से लड़ने के लिए भारतीय सिपाहियों को ब्रिटिश फौज में भर्ती करवाने में भरपूर मदद की। यही वो समय था जब सुभाषचंद्र बोस ने अंग्रेजों के लड़ने के लिए आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।
फडणवीस का यह दावा कि आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे अंशतः सही है। हेडगेवार ने 1920 के दशक के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और उन्हें एक साल के कारावास की सजा भी हुई थी।
सन 1925 में आरएसएस के गठन के बाद, दो मौकों पर वे कुछ हद तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े। परंतु इन दोनों मौकों पर भारतीय राष्ट्रवादियों से उनके मतभेद स्पष्ट थे। उन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करने में कोई संकोच नहीं किया। और दोनों ही मौकों पर उन्होंने आरएसएस के सदस्य के रूप में आंदोलन में भागीदारी नहीं की।
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तिरंगा फहराने का आदेश पर फहराया भगवा
शम्सुल इस्लाम लिखते हैं, “हमें बताया जाता है कि हेडगेवार ने 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 26 जनवरी के दिन सार्वजनिक रूप से तिरंगा फहराए जाने के आव्हान का पालन किया। सच यह है कि हेडगेवार के नेतृत्व वाले संघ ने इस आव्हान का पालन नहीं किया।
इसके उलट, 21 जनवरी 1930 को हेडगेवार ने संघ की शाखाओं में ‘राष्ट्रीय ध्वज अर्थात भगवा ध्वज’ की वन्दना करने के निर्देश दिए। दोनों में अंतर साफ़ है। आव्हान तिरंगा फहराने का किया गया था पर संघ ने भगवा ध्वज फहराया, जो कि हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रतीक था।”
यह सही है कि डॉ. हेडगेवार ने 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया था परंतु अपनी व्यक्तिगत हैसियत से। और इसी कारण उन्होंने सरसंघचालक का पद अपने विश्वस्त मित्र और सहयोगी डॉ. परांजपे को तब तक के लिए सौंप दिया था जब तक वे जेल में थे।
सीपी भिशिकर द्वारा लिखित हेडगेवार की जीवनी में कहा गया है कि हेडगेवार ने यह निर्देश दिया था कि “संघ (नमक) सत्याग्रह में भाग नहीं लेगा।” फिर वे जेल क्यों गए थे? भिशिकर के अनुसार इसलिए नहीं ताकि राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती दी जा सके बल्कि इसलिए ताकि “वे जेल में स्वाधीनता प्रेमी, त्यागी और प्रतिष्ठित लोगों से मिल कर उन्हें संघ के बारे में बता सकें और उन्हें अपने साथ काम करने के लिए राजी कर सकें।”
ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध देश में चले सबसे बड़े आंदोलन में भी आरएसएस ने सरकार ने आदेशों का बखूबी पालन किया। गोलवलकर ने शाखाओं को आदेश दिया कि वे अपनी गतिविधियां सामान्य रूप से करते रहें और ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेजों को परेशानी हो।
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आज़ादी के आंदोलन की आलोचना
‘गुरूजी समग्र दर्शन (खंड 4, पृष्ठ 39)’ के अनुसार, गोलवलकर ने लिखा, “देश में जो कुछ हो रहा था उससे मन अशांत था। सन 1942 में देश में भी असंतोष था। इसके पहले, 1930-31 का आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टरजी के पास गए थे।
प्रतिनिधिमंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन देश को स्वतंत्रता दिलवाएगा और संघ को इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय, एक सज्जन ने डॉक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं। डॉक्टरजी ने उनसे पूछा की अगर आप जेल चले गए तो आपके परिवार की देखभाल कौन करेगा।
उनका जवाब था कि उन्होंने दो साल के घर खर्च का इंतजाम कर दिया है और साथ ही जुर्माना चुकाने के लिए भी धन जमा कर लिए है। तब डॉक्टरजी ने उनसे कहा, ‘अगर तुमने सब व्यवस्था कर ही ली है तो संघ के लिए दो साल तक काम करो।’ वे सज्जन घर वापस चले गए। वे न तो जेल गए और ना ही संघ का काम करने के लिए आए।”
‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में गोलवलकर, स्वाधीनता संग्राम की यह कहते हुए आलोचना करते हैं कि वह केवल “भू-राष्ट्रवाद है …जिसने हमें हमारे असली हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रेरक और सकारात्मक तत्वों से वंचित कर दिया है और हमारे स्वाधीनता संग्रामों को केवल ब्रिटिश-विरोधी बना दिया है।”
अंग्रेज़ सरकार ने आरएसएस से कहा कि उसके सदस्यों को वर्दी पहनकर सैनिकों की तरह कवायद करना बंद कर देना चाहिए। इसके जवाब में, गोलवलकर ने 23 अप्रैल 1943 को एक परिपत्र जारी कर कहा, “हमें कानून की चहारदीवारी में रहते हुए अपना काम करना है।”
भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत से लगभग डेढ़ साल बाद, बम्बई की ब्रिटिश सरकार ने कहा, “संघ ने अत्यंत सावधानीपूर्वक कानून के हदों में रहते हुए अपना काम किया और उसने अगस्त 1942 में हुई गड़बड़ियों में भाग नहीं लिया।”
संघ के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के बारे में जो आख्यान निर्मित किया जा रहा है उसका एकमात्र लक्ष्य चुनावों में लाभ प्राप्त करना है।
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लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।