इकबाल एक दार्शनिक कवि हैं, जिन्होंने मुस्लिम चिंतन को युरोपीय प्रेरणाओं और दर्शनशास्त्र की नई व्याख्याओं मे ढालने कि कोशिश की। दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय के एकीकरण का ख्वाब देखकर उसके लिए वह कोशिशें करते रहें।
इकबाल जिस दौर में अपने इस्लामी चिंतन को प्रस्तुत कर रहे थे, उसी समय सय्यद सुलैमान नदवी भी मुस्लिम समुदाय और इस्लामी इतिहास के विकृतीकरण के खिलाफ अपना आवाज बुलंद कर रहे थें।
और खास बात यह है की, यह दोनों एक दुसरे के काफी गहरे दोस्त थे। इन्होंने एक दुसरे को लिखे हुए खत, और एक दुसरे के बारे में प्रस्तुत किए हुए विचार इसकी साक्ष देते हैं।
अंग्रेजी हुकुमत जब भारतीय इस्लामी पॉलिटीकल, समाजी, ऐतिहासिक विचारधारा कि जडों को खोकला कर रही थी, उसी समय मुहंमद इकबाल और सय्यद सुलैमान नदवी ने इस्लामी दर्शन के मुल्यों को समाज के सामने प्रस्तुत कर उसमें नई चेतना डालने कि कोशिश की। इकबाल और सुलैमान नदवी कि विचारधारा का आज भी दक्षिण एशियाई मुस्लिम समाज पर काफी प्रभाव है।
मुस्लिम समाज के भविष्य को नया मोड देने वाली इन दोनो शख्सियतों के आपसी रिश्ते काफी मजबूत थें। वह दोनो एक दुसरे कि काफी आदर करते थें। उनके एक दुसरे के संदर्भ में किए गए यह विधान इसकी पुष्टी करते हैं। इकबाल लिखते हैं –
‘‘आज सय्यद सुलैमान नदवी हमारे इल्मी जिंदगी के सबसे उंचे मकाम पर हैं। वह आलीम ही नहीं, मेरे अमिरुल उल्मा (ज्ञानीयों के सरदार) हैं। मुसन्निफ (लेखक) ही नहीं बल्की रईसुल मुसन्निफीन (लेखकों के बादशाह) हैं। इन का वजूद इल्म व फजल का दरिया है, जिससे सेंकडो नहरें निकली हैं। और हजारो सुखी खेतियां सैराब हुई हैं।’’
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ॲरिस्टॉटल के वारीस
डॉ. इकबाल नें जिस तरह सुलैमान नदवी कि तारीफ की उसी तरह अल्लामा शिबली नोमानी के वारीस सय्यद सुलैमान नदवी ने भी इकबाल का गौरव किया। सुलैमान नदवी ने इकबाल को शायर ए मशरीक कहते हुए, उनकी इस्लामी दर्शन से संबंधित जो विचारधारा है, उसकी मौलिकता को समाज के सामने रखा। सय्यद सुलैमान नदवी नें लिखा –
‘‘इकबाल सिर्फ शायर नहीं था, वह हकीम था, वह हकीम ही नहीं जो अरस्तु (ॲरिस्टॉटल) के फलसफे का तर्जुमान (भाष्यकार) था। युरोप के नए फिलॉसॉफरों का खोशाचीं (विद्वत्ता का वारीस) था। और वह हकीम था, जो असरार ए कलाम ए इलाही और रमुजे शरीयत का आशना था। वह नए फलसफे के हर राज से आशना होकर इस्लाम के राज को अपने रंग में खोलकर दिखाता था। यानी बादए अंगुर निचोड कर कौसर व तस्नीम का प्याला तयार करता था।’’
इकबाल इस्लामी दर्शन को पश्चिमी दर्शन के परिप्रेक्ष्य में दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे थें। इस्लामी दर्शन कि जीवनवादी धारणा, जो दुनिया में इन्सानी समुदाय को अपने अंतिम लक्ष्य ‘समता आधारित हितकारी वैश्विक समुदाय’ कि ओर ले जाना चाहती हैं। मगर उसकी व्याख्या करने के तरीके की वजह से दुनिया में हार का मुंह देख रही थी।
इकबाल इस हार चिंतीत जरुर थे, मगर इसी चिंता ने उन्हे ‘इस्लामी धार्मिक चिंतन कि पुनर्ररचना’ के लिए प्रेरित किया। इकबाल के इस पुनर्रचनावादी कार्य कि सराहना सय्यद सुलैमान नदवी ने अपने शब्दों में कि थी।
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प्रकाशस्त्रोत
ताहेर तोनसवी नें इकबाल और सुलैमान नदवी के रिश्तों के लेकर काफी शोधकार्य किया हैं। इकबाल और सुलैमान नदवी के आपसी ताल्लुकात के बारे में वह कहते हैं, ‘‘यह बात अब तक साफ नहीं हो सकी के इन दोनो शख्सियतों कि मुलाकात कहां हुई थी और आपसी तआल्लुकात कैसे बढे। मुमकीन है, इन दोनों कि आपसी पहचान बहोत पुरानी हो।
बहरहाल इनके एक दुसरे से रिश्ते कि स्पष्टता मुहंमद इकबाल का सुलैमान नदवी के नाम लिखे हुए खत से होती हैं। जो खत इन्होने 1 नवंबर 1916 को लिखा था। उसी तरह 1916 में ही सय्यद सुलैमान नदवी ने ‘रिसाला ए मारिफ’ पत्रिका कि शुरुआत की। इकबाल के इस खत से पता चलता है कि इन दोनो का आपसी रिश्ता काफी पुराना था।
दोनों एक दुसरे के बौद्धिक पात्रता एवं श्रेष्ठता से पुरी तरह वाकीफ थें। मुहंमद इकबाल सुलैमान नदवी को मुस्लिम समाज के लिए ‘मशाल ए राह’ (मार्ग दिखानेवाला प्रकाशस्त्रोत) समझते थें।’’
डॉ. इकबाल ने अपने एक खत में जो लिखा था, उससे यह बात अधिक स्पष्ट हो सकती है –
‘ओरिएंटल कॉलेज लाहौर में हेड पर्शियन टिचर कि जगह खाली हुई हैं। इसकी तनख्वाह 120 रुपये महावार हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि, क्या आप इस जगह को अपने लिए पसंद फरमाते हैं। अगर ऐसा हो तो आपके लिए कोशिश कि जाएगी। आपका लाहौर में रहना पंजाब वालों के लिए बेहद मुफीद होगा।’’
ताहेर तोनसवी नें एक बेहद अहम मुद्दे को अपनी किताब ‘इकबाल और सय्यद सुलैमान नदवी’ में अधोरेखित किया है। वह कहते हैं, ‘‘इकबाल सुलैमान नदवी कि काफी कद्र किया करते। अपने कई खतों में मुहंमद इकबाल ने सुलैमान नदवी के लिए ‘मख्दुमी’ (बुजुर्ग) शब्द का प्रयोग किया है।’’
इकबाल और सुलैमान नदवी ने एक दुसरे को सेंकडों खत लिखे थें। इनमें कुछ खत एक दुसरे की व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में हैं और बाकी खतों में दोनों ने विद्वत्तापूर्ण चर्चा की हैं। ताहेर तोनसवी नें अपनी किताब में इकबाल ने सुलैमान नदवी को लिखे हुए 70 खत प्रकाशित किए हैं। यह खत तोनसवी से पहले शेख अताउल्लाह नें अपनी किताब ‘इकबालनामा’ में प्रकाशित किए थे।
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पयाम ए मशरीक
‘इकबालनामा’ में प्रकाशित किए गए खतों में कालक्रम का काफी दोष दिखाई देता है। मगर तोनसवी नें अपनी किताब में इस दोष को दूर कर, एक इतिहासस्त्रोत को उसकी असल सुरत में शोधकर्ताओं के सामने रखा है।
मुहंमद इकबाल अपनी जिंदगी में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इस्लामी न्यायशास्त्र, युरोपीय दर्शन, समय कि चेतना, डंकेन का काव्यदर्शन, हेगेल कि भौतिकवाद कि प्रेरणा और इस्लामी धर्मचिंतन कि पुनर्व्याख्या जैसे सैंकडो विषयों पर अपना मत प्रदर्शित करते रहे।
इकबाल के चिंतन कि दुनिया काफी विस्तृत थी। इसी वजह से युरोप से लेकर इरान और हिन्दूस्तान तक उनके काव्यदर्शन पर बहस होती रही। सय्यद सुलैमान नदवी ने भी कई बार अपनी पत्रिका ‘रिसाला ए मारीफ’ में इकबाल के दर्शन पर लेख लिखे। सन 1938 में इकबाल के निधन से इन दो दार्शनिकों का एक दुसरे के साथ चल रहा विद्वत्तापूर्ण सफर रुक गया।
मगर इकबाल कि प्रेरणाओं को सय्यद सुलैमान नदवी अपनी कलम से लिखते रहे। इकबाल के निधन के बाद ‘मारीफ’ में सुलैमान नदवी ने जो शोकसंदेश लिखा था, वह उनके दर्द को जाहीर करनेवाला था। नदवी उस शोकसंदेश में कहते हैं –
‘‘आखिर जिंदगी और मौत कि चंद दिनों की कश्मकश के बाद डॉ. इकबाल ने ‘दुनिया ए फानी’ (खत्म होनेवाली दुनिया) को अलविदा किया। 21 अप्रैल कि सुबह को उम्र कि 61 बहारें देखकर और शायरी कि दुनिया में 40 बरस चहचहाकर यह बुलबुल अब हमेशा के लिए खामोश हो गया। वह हिंदुस्तान कि आबरु और इस्लाम का फख्र था।
आज दुनिया इन सारी इज्जतों से महरुम हो गयी। और ऐसा फलसफी, आशिक ए रसुल, शायर, फलसफा ए इस्लाम का तर्जुमान (भाष्यकार) सदियों के बाद पैदा हुआ था। और शायद सदियों के बाद पैदा हो।”
“उसके जहन का तराना ‘बांग ए दिरा’ उसकी दिल की हर फरयाद ‘पयाम ए मशरीक’ इसके शेर का पर ‘बाल ए जिब्रईल’ था। उसकी फानी उम्र खत्म हो गयी, लेकिन उसकी जिंदगी का हर कारनामा ‘जावेदनामा’ (शाश्वत सत्य) बनकर इन्शाअल्लाह कायम रहेगा।”
“उम्मीद है के मिल्लत का यह गम ख्वार शायर अब अर्श ए इलाही (इश्वरीय कृपाछत्र) के साए में होगा। और कुबुल और मगफिरत के फुल उसपर बरसाए जा रहे होंगे। खुंदावंद इसके दिल ए शिकस्ता को जो मिल्लत के गम से रंजुर था, गमख्वारी फरमा। और अपनी रब्बानी नवाजीशों (इश्वरीय पुरस्कारों) से इसकी ‘कल्बे हजीं’ (गमगीन हृदय) को मसरूर (खुश) कर।’’
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लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।