एक गठीला नौजवान अलीगढ़ कॉलेज के छात्रावास में दाखील हुआ। उसकी पेशानी चौडी थी और चेहरा पसरा हुआ गोल, आँखों पर चष्मा, खुबसुरत शेरवानी, हवा से लहराता हुआ पजामा, चेहरे पर तराशी हुई लंबी सी दाढी, बगल में कपडों कि अटैची और एक हाथ में पानदान पकडे हुए वह अपना कमरा तलाश रहा था। तभी हॉस्टेल के कुछ शरारती छात्रों ने कहा, “खालाजान कहां को चले.!”
उस जगह अगर कोई भी होता तो गुस्से में चार गालियाँ मुँह भर के जड देता। पर उस नौजवान ने कुछ नही कहां; बल्कि मुस्कुराते हुए कहां, “बोलो भान्जो, क्या परेशानी हैं।”
क्यूँ न हो उर्दू में हसरत हम नजीरी कू नजीर
है तअल्लुक हम को आखिर खाके नैशापूर से
इस नौजवान का नाम फजल उल हसन था। पर भारत से लोग उन्हें हसरत मोहानी के नाम से जानते हैं। हसरत उनका तखल्लुस तो मोहानी उनके गाँव के नाम से था।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान में 1881 में जन्मे हसरत मोहानी एक गुस्सैल स्वभाव के परंतु शांत और संयमी इन्सान थे। शुरुआती पढाई पूरी होने के बाद आगे के पढाई के लिए उन्होंने अलीगढ़ को चुना था।
जब वह अलीगढ़ के लिए घर से निकले तो घर के सदस्य रोना-धोना करने लगे। घर में मातम सा छा गया। उनके पिता उन्हें घर से बाहर भेजना नही चाहते थे। मगर हसरत ने इस मामले में हशियारी से काम लिया और अरबी पढाने वाले मौलवी से मदद ली। उनके आग्रह पर पिता ने इजाजत दे दी और हसरत अलीगढ़ आ गए।
पढें : ‘मशाहिरे हिन्द’ थी बेगम निशातुन्निसा मोहानी
पढे : मुसलमान लडकियों का पहला स्कूल खोलने वाली रुकैया बेगम
प्रखर राष्ट्रवादी
अलीगढ़ में पढते समय वे स्वाधीनता आंदोलन में सक्रीय रहे। उन्होंने बरतानवी हुकूमत के जुल्म का विरोध किया। इतना ही नही उन्होंने कॉलेज के छात्रों को अंग्रेजों के खिलाफ संघठित भी किया। बी.ए. कम्प्लिट करने के बाद वकालत के पढाई के लिए उन्होंने कॉलेज फैकेल्टी के पास स्कॉलरशिप के लिए अर्जी दी।
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर अपनी मराठी किताब ‘मुस्लिम राजकीय विचारवंत आणि राष्ट्रवाद’ में लिखते हैं, “एक दिन कॉलेज में उर्दू शायरी का मुशायरा था। इसमें बड़े बड़े नामी शायर शामिल हुए थे। जिसमें महाकवि अल्ताफ हुसैन हाली भी थे।
इसका आयोजन हसरत मोहानी ने किया था। इतने बड़े मुशायरे का आयोजन करने की वजह से प्रशासन और उनके प्रतिस्पर्धी मित्र उनके खिलाफ गए और उन्होंने प्रिंसिपल मॉरीसन के पास मोहानी के विरोध में शिकायत कर दी और उन्हें कॉलेज से निकलवाने की विनती की।”
बेन्नूर आगे लिखते हैं, “मॉरीसन को अब मौका मिल चुका था वैसे भी वह मोहानी से नाराज चल रहे थे। इस मौके का फायदा उठाकर मॉरिसन ने उनकी स्कॉलरशिप की अर्जी नामंजूर करते हुए उन्हें अलीगढ़ कॉलेज छोड़ने के लिए कहा। परंतु प्रशासन ने उनका आवेदन नामंजूर कर उनके हमेशा के लिए उनके शिक्षा के रास्ते बंद कर दिए।”
उस बूत के पुजारी है मुसलमान हजारों
बिगड़े है इसी कुफ्र में ईमान हजारों
दुनिया है कि उनके रुखो-गेसू पर मिटी है
हैरान हजारों है परेशान हजारों
तनहाई में भी तेरे तसव्वूर कि बदौलत
दिल बस्तगी-ए गम के है सामान हजारों
मोहानी उस जमाने के बी.ए. थे। उन्हेंं कॉलेज मेंं प्रोफेसर कि नौकरी भी मिली। पर उसे वह करना नही चाहते थे। अगर वह चाहते तो यह नौकरी कर अपना और परिवार का अच्छे से गुजारा कर सकते थे। परंतु अंग्रेजों के खिलाफ उनकी नीति थी।
गोरों कि नौकरी करना उन्होंने गुलामी माना और हमेशा के लिए नौकरी का विचार त्याग दिया। कॉलेज में रहते उन्होंने ‘उर्दू ए मुअल्ला’ नाम से एक उर्दू अखबार का पंजीकरण कर रखा था। कॉलेज छुटने के बाद उन्होंने अपना अखबार निकाला।
जिसके लिए मोहान से बेगम निशातुनिस्सा को बुला लिया। अखबार का सारा काम वह और उनकी बेगम करते।
इस अखबार क माध्यम से शायरी और उर्दू साहित्य और राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार करते। 1908 में मिस्र के प्रसिद्ध नेता मुस्तफा कामिल पर उन्होंने एक विशेषांक निकाला, जिसमें उन्होंने अंग्रेज विरोधी नीति पर जमकर प्रहार किया। परिणामत: अंग्रेजो ने अखबार बंद करवा दिया और मोहानी को दो साल के लिए जेल भेज दिया।
पढें : बादशाह खान मानते थें विपत्तियो में इन्सान बहुत कुछ सीखता है
पढें : रौलेट एक्ट के विरोध स्थापित हुई थी हिंदू-मुसलमानो की एकदिली
स्वदेशी का प्रचार
जेल से रिहा होने के बाद उनके पास रोजी-रोटी का कोई साधन नही था। गुजर-बसर के लिए उन्होंने स्वदेशी कपड़ों का व्यापार करने का निर्णय लिया। अलीगढ़ के मिस्टन रोड पर ‘खिलाफत स्टोर लिमिटेड’ कायम किया।
जिसमें उन्होंने अर्से तक स्वदेस निर्मित कपड़े खरीद-फरोख्त करते रहे। मोहानी मुल्क के वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी कपड़ों का व्यापार किया और जनता को उसके इस्तेमाल का फायदा समझाएं। बेगम निशातुन्निसा के मदद से उन्होंने इस दुकान को चलाया। मौलाना की यह दुकान खूब चली।
इस तरक्की को देखकर प्रसिद्ध विद्वान शिबली नोमानी ने कभी कहा था “तुम आदमी हो या जिन, पहले शायर थे फिर पॉलिटिशियन बने और अब बनिया हो गए।”
हसरत साहब वाकई में जिन्न थे। वह जिस काम मे हाथ डालते उसे पुरा किए बगैर नही छोडते। उनकी ख्वाहिश थी स्वदेशी आंदोलन को पूरे हिन्दुस्तान में लोकप्रिय बना दिया जाए। लोग विदेशी कपडा पहनने के बजाए अपने देश मे निर्मित कपडा पहने।
याद करो वह दिन की तेरा कोई सौदाई न था
बावजूद देखो सुनो तू आगाहे-रानाई न था
दीद के काबिल जी मेरे इश्क की भी सादगी
जबकि तेरा हुस्न सरगर्म खुद-आराई न था
मोहानी ने महात्मा गांधी से पहले स्वदेशी आंदोलन की भारत में नींव रखी थी। मोहानी मानते की किसी भी विदेशी वस्तुओं का स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस बात को लेकर महात्मा गांधी और मोहानी में विवाद भी होते रहे। जिसके बारे में महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ में विस्तार से लिखा भी है।
मोहानी ने दिल्ली के एक सभा में गांधीजी के मौजूदगी में स्वदेशी आंदोलन के बारे में कहा था, “हमे आपके विदेशी वस्त्र बहिष्कार से संतोष हो ही नहीं सकता। कब हम अपनी जरूरत का सब कपड़ा पैदा कर सकेंगे और कब विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होगा?”
मोहानी का कहना था कि स्वदेशी आंदोलन के लिए जरुरत के वस्तुओं का प्रोडक्शन भारत में लघु उद्योगों के मार्फत होना चाहिए। जबके गांधीजी इसके उलट विचारों वालों थे। उनका मानना था कि जब तक देश में मूलभूत वस्तुओं का पर्याप्त भंडार तथा उद्यम हम शुरू नहीं करते, तब तक विदेशी वस्तुओं का पूर्णता बहिष्कार करना गलत है।
पढें : फखरुद्दीन अली अहमद जिनकी पहचान ‘एक बदनाम राष्ट्रपति’ रही
पढें : अब्बास तैय्यबजी जो स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में गुमनाम हो गए
सादगी पसंद इन्सान
मोहानी पर लिखे कुछ किताबों में उनके जिन्दगी की, सादगी के और मुफलिसी के किस्से बयान किए गए हैं। उनको पढ़ने से यह अंदाज़ा होता है कि हसरत के खुद्दार व्यक्ती थे।
मोहानी आज़ादी के लड़ाई के वह सिपाही थे जिनके पास न तो दौलत थी और ना ही रुपया पैसा। मगर स्वाधीनता के लिए लडने का जज्बा और उसके लिए लगने वाली इच्छाशक्ती कि उनके पास कोई कमी नही थी।
उन्होंने अपनी तमाम जिन्दगी गरीबी मुफलिसी और खुद्दारी में गुजार दी। वह शालीनता, सज्जनता और इमानदार थे। सहिष्णु ऐसे थे कि दूर-दूर तक उनका कोई सानी नजर नहीं आता। वे सिद्धान्तवादी, सच्चे और निडर इंसान थे। वह कभी किसी का बुरा नहीं चाहते।
हर एक के दोस्ती और हमदर्द से पेश आते। सादा लिबास पहनते। कभी दर्जी से सिला हुआ कपड़ा नहीं पहना। वह हमेशा बीवी के हाथ का सिला हुआ कपड़ा पहनते। सादा खाना और सादा पहनना उनको आदत रही और इस आदत में कभी तब्दीली नहीं आने दी।
दिल खोल हुए जाते हैं अरबाबे नजर के
रखती है कयामत का तिरी सुर्खिए-लब रंग
हसरत तिरी इस पुख्ता कलामी की है क्या बात
पाया है किसी और सुखनवर ने ये कब रंग
मुझफ्फर हनफी NBT द्वारा प्रकाशित अपनी किताब में लिखते हैं, मोहानी घर का सौदा खुद लाते। घरवालों पर तो उनका असर था ही बाहर भी उनका असर ऐसा था कि लोग हैरत करते थे। हर उस आदमी की मदद के लिए तैयार रहते जो मदद के काबिल होता।
अक्सर पैदल चला करते। सवारी में बहुत कम सफर करते। हमेशा थर्ड क्लास में सफर किया करते। मिजाज में सादगी बहुत थी।
कव्वाली के भी बहुत शौकीन थे और सिनेमा को नापसंद करते थे। मुशायरा में बुलाए जाते तो जरूर जाते। उन्होंने मुशायरे के आयोजकों से मुआवजा या आने-जाने का खर्चा कभी भी नहीं लिया।
हनफी लिखते हैं, “एक दफा रुदौली शरीफ में शरीफ के उर्स में गए। ट्रेन में एक भिकारी ने कपड़े का सवाल किया। हसरत ने झट से अपनी अचकन उतार कर उसे दे दी और खुद फटी पुरानी कमीज पहने और उर्स में पहुंच गए।”
पढें : चंपारन नील आंदोलन के नायक पीर मुहंमद मूनिस
पढें : दास्तान-ए-ग़दर के बाद बहादुर शाह ज़फ़र का क्या हुआ?
तंगदस्ती मे गुजरी
मोहानी आधुनिक और प्रगतिशील विचारों के व्यक्ती थे। पर्दा प्रथा के विरोधी थे। उन्होंने कभी बीवी से पर्दा करने की मांग नहीं की। पाबंदी से नमाज अदा करते और रात को नमाज से फारिग होकर अपनी डायरी में पाबंदी से लिखते।
एक दफा कि बात है, हसरत के कानपूर के प्रशंसक सौदागर चौब उसने मिलने उनके घर गए। तब वे कुछ लिख रहे थे। सलाम करने के बाद वह उनके डेक्स के सामने बैठ गए।
मुझफ्फर हनफी लिखते है, “मोहानी लिखते जाते और बात करते रहते। बीच-बीच में वह पिछे टंगे फटे-पुराने परदे के आड से कुछ निकालते अपने मुँह में रखते। साथ गुड कि एक डली से थोडासा गुड खा लेते। सौदागर यह मंजर खामोशी से देखते रहे, जब रहा न गया तो पुछ बैठे आप क्या खा लेते है? कुछ इस खादिम को भी अता हो।
इसपर मौलाना न परदे के पिछे से एक मिट्टी का हंडा निकाल लिया जिसमें सूखी रोटीयाँ पानी से भीगी हुई थी। गुड कि डली डेक्स पर रख दी और फरमाया, ‘लो खा लो, फकिरों का खाना तुम रईस न खा सकोंगे।’ सौदागर के आँखो मे आँसू आ गए। मौलाना ने फरमाया आज तिसरा फाका हैं, शुक्र हैं सूखी रोटी मयस्सर आ गई, बडी तस्कीन हो गई।”
हसरत मोहानी के जिन्दगी की कहानी उनके बेगम निशातुन्निसा बेगम के बगैर पूरी ही नहीं हो सकती। उनकी राजनैतिक सफर में बेगम का विशेष महत्त्व था। यह कहानी हमें उन्होंने जेल में रहते हुए अपने खाविंद को लिखे खतों से होती हैं। मोहानी ने अपनी आत्मकथा ‘मुशाहिदाते जिन्दा’ (जेल के संस्मरण) में भी इस बारे में लिखा हैं।
बेगम ने हर कदम पर मोहानी का साथ दिया। एक दौलतमंद बाप की बेटी थी मगर फाकाकशी में रहती। हसरत के साथ तंगदस्ती में उन्होंने जिन्दगी गुजार दी। तंगहाली, फाकाकशी और आर्थिक दरिद्रता उनका नसीब बन गया था। हसरत के साथ रूखी-सूखी खाकर वह खुश रहती।
जब हसरत जेल में जाते तब सिलाई करके, चक्की से आटा पीस कर वह अपनी जिन्दगी बसर करती। मगर कभी भी उन्होंने दूसरों के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाया। इसी मुफलिसी मे उनका देहांत हुआ।
पढें : इस्लाम से बेदखल थे बॅ मुहंमद अली जिना
पढें : ‘भारतरत्न सन्मान’ लेने इनकार करनेवाले मौलाना आजाद
बॅ. जिना के विरोधी
मोहानी काँग्रेसी नेता बाल गंगाधर तिलक के ‘गरम दल’ वाली विचारधारा से वह प्रेरित थे और उन्हें अपना राजनैतिक गुरू मानते।
हसरत एक साथ काँग्रेसी भी थे, उसी पल वे मुस्लिम लिग के सदस्य भी थे और उसी समय वे एक कट्टर कम्यूनिस्ट थें। साथ ही वे जमियत के विद्वान उलेमा भी थे। मुस्लिम लिग के सभाओं में जाकर वे उन्हीं के विचारधारा के खिलाफ भाषण देते।
प्रो. बेन्नूर लिखते हैं, “1942 में स्टैफर्ड क्रीप्स राजनीतिक सुधार के लिए भारत आए। उन्होंने तब मोहानी ने बॅ. जिना के साथ मिलकर स्वाधीनता के लिए एक मसौदा मसौदा तैयार किया। इसके लिए उन्होंने महात्मा गांधी, राजगोपालाचारी के साथ चर्चाएं भी की। अपने मसौदे में उन्होंने भारत के विभाजन के खिलाफ भूमिका रखी। जो बॅ. मुहंमद अली जिना को पसंद नहीं आई।
मगर फिर भी मोहानी जिना के खिलाफ जाकर 5 हजार मुस्लिम लिगी कार्यकर्ता के सामने अपनी बात रखी। यह बात अलग है कि उस सभा में मोहानी का प्रस्ताव स्वीकारा नहीं गया। मगर वह हमेशा बॅ. जिना के तानाशाही राजनीति का विरोध करते रहे।”
उनसे मैं अपने दिल का तकाजा न कर सका
यह बात थी खिलाफे मुरव्वत ना हो सकी
हसरत तेरी निगाहें-मुहब्बत को क्या कहूं
महफिल में रात उनसे शरारत ना हो सकी
विभाजन से वह बहुत दुखी थे। आजादी के बाद देश में कई जगह दंगा-फसाद हुआ। तब मोहानी अपनी जान की बाजी लगाकर दंगाग्रस्त भागों दौरा किया। दगह-जगह शांतता समितियां बनाकर फिरकर शांती स्थापित करने कि कोशिश की। इस दंगों पर उन्होंने पार्लमेंट मे रखी अपनी भूमिका में भारत के गंगा-जमनी-संस्कृति को सहेजने की बात की थी।
अपने आखरी दिनों में वह दिल्ली छोडकर लखनऊ में जा बसे। वहीं 13 मई 1951 को उनका निधन हुआ। मौलाना हसरत मोहानी एक शायर-गझलकार, एक सहाफी, एक संपादक, एक क्रांतिकारी, एक राजनेता तथा एक समाजसेवी भी थे।
उनकी पहचान एक जहाल नेता के रूप में होती हैं। उनके राजनैतिक विचार सटीक और स्पष्ट थे। तत्कालीन नेताओं मे उनकी छवीं एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता के रूप में होती हैं। ऐसे महान राजनेता, स्वाधीनता सेनानी और एक संवेदनशील शायर को अभिवादन..
जाते जाते :
* भगत सिंह ने असेम्बली में फेंके पर्चे में क्या लिखा था?
* रौलेट एक्ट के विरोध स्थापित हुई थी हिंदू-मुसलमानो की एकदिली
हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।