राजनीति और फर्ज को अलग-अलग रखते थें न्या. एम. सी. छागला

छागला करीबन 11 साल तक बंबई उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधिश रहेउन दिनों मे उन्होंने एक बार छुट्टी नही ली। सुबह ठीक साडे ग्यारह बजे वह कोर्ट में हाजीर होते। अपने सामने पडे मामलों को वह जल्द से जल्द निपटाने में यकीन रखते थें। तारीख पे तारीख या बिला वजह मुकदमें को अटका कर रखना उन्हें पसंद नही था।  

न्यायविद् एम. सी छागला का स्मरण करते हुए मुझे मोदी सरकार के कार्यकाल में हुई सुप्रीम कोर्ट के चार जजो कि पत्रकार परिषद याद आती हैं। 12 जनवरी 2018 को हुए इस कॉन्फ्रेस में जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रंजन गोगोई इन चार जजो ने प्रशासनिक अनियमितताओं के आरोप लगाया था।

उनका इशारा बीजेपी सरकार द्वारा निष्पक्ष काम न करने देने की ओर था। इतना ही नही सरकार द्वारा हो रहे न्यायप्रविष्ठ प्रकरणो पर हस्तक्षेप पर भी सवाल उठाया था। इन में एक जज न्या गोगोई आगे चलकर चिफ जस्टिस बने और बीजेपी सरकार के हक में फैसले देते रहे।

श्री. गोगोई ने कई मामलों में केंद्र के बीजेपी सरकार का पक्ष लिया था। जिसमें असम कि एनआरसी और रफाएल भ्रष्टाचार मामला प्रमुख था। उसी के साथ सबरीमला मंदिर में महिलाओ को प्रवेश देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले कि पुन: समीक्षा करने के लिए उसे नये बेंच के पास दिया। याद रहे कि इस मामले में कोर्ट द्वारा दिया गए फैसले पर केंद्रीय गृहंमत्री अमित शाह ने एक सभा में कोर्ट को लोगो के जनभावनाओ का खयाल रखते हुए फैसले देने चाहिए कहकर सर्वोच्च न्यायालय को चेतावनी दी थी।

केंद्र सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को कश्मीर का अनुच्छेद खत्म किया गया, तब गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश के तौर पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। एस कृति के खिलाफ याचिका पर श्री. गोगोई ने कोई फैसला नही लिया, बल्कि उसके सुनवाई के लिए आगे खिसका दिया। साथ ही कश्मीर के लोगों पर हो रहे अन्याय पर भी वह चूप रहे।

बाबरी विध्वंस मामले में श्री. गोगोई ने मस्जिद को गिराना गुनाह माना पर वह सारी जमीन मंदिर को दे दी। विश्लेषक मानते रहे कि मुख्य न्यायाधिश के तौर पर श्री. गोगोई ने बीजेपी सरकार के कम्युनल अजेंडे के समर्थन में फैसले लिए। ऐसे समय मुझे याद आई न्या. एम.सी. छागला की। जिन्होंने कोर्ट कि जिरह को राजनीति से हमेशा दूर रखा। उन्होंने राजनीति को कोर्ट और कानून से कभी उपर उठने नही दिया। उन्होंने कभी राजनैतिक वर्चस्व को कानून से ज्यादा महत्व नही दिया।

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कौन थें छागला?

छागला का पुरा नाम मुहंमद अली करीम मर्चेंट था। 30 सितंबर 1900 को मुंबई में एक धनी शिया मुस्लिम व्यापारी परिवार में जन्मे छागला ने अपनी शुरुआती पढाई मुंबई के सेंट झेवियर में पुरी की। छागला के शुरुआती जीवन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही होती। इस बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा रोजेस इन दिसंबरमें लिखा हैं, कि बायोग्राफी में बचपन कि कहानियाँ बताने में मुझे कोई दिलचस्पी नही हैं। अलग दृष्टिकोण देने के लिए मैं यह लिख रहा हूँ।

अपने छागला नाम को लेकर वह एक किस्सा बयान करते हैं, अपनी जवानी में, वह एक मर्चेंटथे। उनके पिता और दादा दोनों व्यापारी थें। पैसों के साथ यह नाम जुड़ा था। वह एक दिन अपने दादा के पास गए और पूछा कि मुझे अपने आपको किस नाम से बुलाना चाहिए। उनके दादा ने तुरंत कहा छागलाक्योंकि उनका इकलौता बेटे, जो कि छागला के पिता थें, का प्यार का नाम छागला था, जिसका कच्छी भाषा में अर्थ है प्यारा बच्चाहोता हैं। जिसे आगे चलकर अपना उपनाम लगा दिया।

छागला ने लिखा हैं, बचपन में उनपर बिशप Lord Morley और Lord Haldane का काफी प्रभाव था। इसी के चलते उन्होंने ऑक्सफर्ड जाने कि ठान ली थी। इस बारे में जब वह लिखते हैं, “मैंने बंबई विश्वविद्यालय में आर्ट्स में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की उसके बाद मैंने रजिस्ट्रार के माध्यम से ऑक्सफोर्ड में प्रवेश के लिए आवेदन किया। 

मुझे याद है कि मुझसे रजिस्ट्रार डॉ. दस्तूर ने पूछा कि क्या मेरे पास ऑक्सफोर्ड में प्रवेश के लिए कोई खास वरीयता भी हैं, तब मैंने तुरंत जवाब दिया कि मैं क्राइस्ट चर्च जाना चाहता हूँ। रजिस्ट्रार ने कहा, मुझसे जो बन सकता वह करुँगा। उन्हे ऑक्सफर्ड तो प्रवेश नही मिला पर लिंकन कॉलेज में उन्हे अडमीशन मिला। इस तरह छागला 1919 में ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय पहुँच गए।

न्या. छागला आगे लिखते हैं, “ऑक्सफोर्ड में मुझे मॉडेम इतिहास करना था, क्योंकि मुझे लगा कि एक सफल सार्वजनिक कैरियर बनाने के लिए इतिहास कि पृष्ठभूमि जरुरी हैं। उस समय यह कैसा विषय तुमने चुना कहकर मैंने मेरे दोस्तों ने हंसी उडाई तब, मैंने उन्हें यह नहीं बताया कि मुझे एक दिन विधायिका में शामिल होना हैं।

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कानून में दिलचस्पी

छागला लिखते हैं भारत लौटने पर मुझमें कानून विषय को लेकर दिलचस्पी पैदी हुई। सन 1922 को भारत लौटने तक मुझे विधी विषय में विषेश रूची नही थी। जब मैं लौटा तो मुझे पता चला कि मेरे परिवार के पास के सारे पैसे खत्म हो गए हैं।

अब मुझे अपने रोजगार के लिए कुछ करना होंगा। तब में बंबई उच्च न्यायालय के बार में दाखिला करने की ठान ली। उसके लिए मैने प्रारंभिक परिक्षा पास कर ली और अंततः उसे वहां बुलाया गया।वहां उन्होंने सर जमशेंदजी कांगा और मुहंमद अली जिना के साथ काम किया।

बॉम्बे हाईकोर्ट के वेबसाईट पर दिए गए ब्योरे के अनुसार श्री. एम. सी छागला 1927 में वे मुंबई के सरकारी लॉ कॉलेजमें कानून के प्रोफेसर बने। जल्द ही उनका अधिपत्य बार में शुरू हो गया और बॉम्बे बार काउंसिल के मानद सचिव बनें। 1941 में बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत हुए।

इस वेबसाईट पर न्या. छागला के बारे लिखा हैं, “वे मामलों को विनम्रतापूर्वक सुनना, उसका बुद्धिमानी से जवाब देना तथा शांतिपूर्वक विचार करने के लिए वे इसी तरह वे निष्पक्ष रूप से निर्णय लेने के लिए परिचित थें। उन्होने हर मामलों का स्पष्टता साथ और सबूतों पर ध्यान केद्रींत कर विश्लेषण किया। और वह तथ्यों और कानून दोनों पर अपने निष्कर्षों पर तेजी से आते थे।

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किए महत्वपूर्ण फैसले

15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत में मुंबई हाईकोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बने। वे देश के मुख्य न्यायाधिश थे क्योंकि जब तक सुप्रीम कोर्ट नहीं बना था। जबकी उसकी स्थापना 26 जनवरी, 1950 को हुई थी। न्या. छागला ने अपने कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण फैसले दिए।

न्या. छागला के न्यायिक प्रक्रिया के निष्पक्षता को लेकर स्क्रॉल पर अनुराग भारद्वाज लिखते हैं, “छागला कानून और कोर्ट को कितनी अहमियत देते थे। एक दपा महाराष्ट्र के नवनियुक्त गवर्नर का स्वागत होना था। प्रोटोकॉल के तहत हर गणमान्य को उनसे पहले राजनिवास पर उपस्थित होना था। बतौर मुख्य न्यायाधीश छागला और उनके सहयोगी जज कोर्ट की कार्यवाही ख़त्म होने के बाद ही पहुंचे।

इसी तरह एक बार उन्हें अमेरिका के मुख्य न्यायाधीश की बॉम्बे एयरपोर्ट पर अगुवानी करनी थी। एमसी छागला ने सरकार से कह दिया कि वे कोर्ट का समय पूरा होने के बाद ही जायेंगे। तिसरी बार उन्होंने लार्ड माउंटबेटन के लिए प्रोटोकॉल तोड़ने से मना किया था।

न्या. छागला कई जटिल मामले के सुनवाई को लेकर इतिहास में प्रसिद्ध रहे हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में बहुचर्चित एलआयसी घोटाला हुआ था। जिसने सरकार हिला दी थी। 1958 में हुआ यह मामला आजाद भारत का सबसे बडा घपला माना जाता हैं। इसे मूंदड़ा घोटालाभी कहा जाता हैं क्योंकि इसे अंजाम देने वाले का नाम हरिदास मूंदड़ा था।

भारद्वाज लिखते हैं, इस मामले को इंदिरा गांधी के पती फिरोज गांधी ने संसद में सवाल उठाया और प्रधानमंत्री नेहरू पर हमला बोला। इस मामले कि जांच करने के लिए मुंबई हाईकोर्ट के रिटायर जज छागला को नियुक्त किया गया। छागला ने अपने ढंग से इसकी जाँच की। कहा जाता है कि इसके सुनवाई के लिए कोर्ट के बाहर लाऊडस्पीकर लगाए गए थे। जाँच में तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस मामले में दोषी पाए गए। नेहरू को न चाहते हुए भी उनसे इस्तीफ़ा मांगना पड़ा।

छागला करीबन 11 साल तक बंबई उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधिश रहे, उन दिनों मे उन्होंने एक बार छुट्टी नही ली। सुबह ठीक साडे ग्यारह बजे वह कोर्ट में हाजीर होते। अपने सामने पडे मामलों को वह जल्द से जल्द निपटाने में यकीन रखते थें। तारीख पे तारीख या बिलावजह मुकदमें को अटका कर रखना उन्हें पसंद नही था।

उनके बारे में कहा जाता हैं कि, जिस दिन कोई मामला उनके पास आया उसी दिन वह निपट जाता था। उनका लिखा निर्णय बहुत ही सटीक और सरल रहता था, अपनी बात बिलकुल स्पष्ट रुप से वह कहते थें। उम्र के आखरी पडाव में एक दिन वे ऐसे ही मुंबई उच्च न्यायालय पहुँचे, तब सारा कोर्ट और वकिल उनके सम्मान में खडे हुए थें।

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राजनीति में दिलचस्पी

अपने राजनैतिक महत्वकांक्षी के बारे में वे कहते हैं, “मुझे पॉलिटिक्स में गहरी दिलचस्पी थी। राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जो मानव हितों, मानवीय आकांक्षाए और महत्वाकांक्षाओं के परस्पर क्रिया का प्रतिनिधित्व करता हैं। हमारे देश में यह संघर्षों का भी प्रतिनिधित्व करती है। राजनीति हमारे समुदाय और समुदायो के बीच अंतर को कम करती हैं। कहा गया है कि राजनीति संभव की कला है।

छागला मुहंमद अली जिना से काफी प्रभावित थें। छागला कहते हैं, उस समय जिना मुंबई के युवाओ कि पहली पसंद थी। अपने धमाकेदार भाषणों से वे लोगों के दिलों मे हलचले पैदा करते थें। जिना से प्रभावित होकर छागला मुस्लिम लिग जॉईन किया। वे जिना के नीजी सेक्रटरी भी रहे हैं। अपने इस राजनैतिक उठापटक के बारे में उन्होंने आत्मकथा में विस्तार से लिखा हैं। एक समय ऐसा आया जब छागला जिना कि टू नेशन कि थ्योरी के प्रखर आलोचक बने और उनसे अलग हो गये।

धार्मिक दृष्टिकोण

न्या. छागला धर्म और राजनीति को अलग-अलग कर देखते थें। इस एक करना वे बेमानी मानते थें। वे धर्म एक विशुद्ध रूप से निजी और व्यक्तिगत मानते थें। राष्ट्रीयता पर वे वे कहते है, “मुझे लगता है कि राष्ट्रीयता के साथ धर्म की बराबरी करना गलत हैं।हिन्दू मुसलमानों के मिलीजुली संस्कृति के सांझी विरासत के न्या. छागला हिमायती थें।

धर्म को देखने का उनका नजरिया बिलकुल अलग था, इस बारे में उन्होंने लिखा हैं, “मुझे याद है जब मैं अमेरिका में राजदूत के रूप में गया था, जब मुझसे मेरी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा गया कि क्या मैं मुस्लिम हूँ, मैंने उत्तर दिया, यह तुम लोगों का कैसा व्यवहार है? धर्म विशुद्ध रूप से मेरा निजी मामला है। जो सब तुम्हारे पास भी है। मैं एक भारतीय हूँ और भारतीय होने पर गर्व करता हूँ।

जब मैं किसी अमरिकी से मिलता हूँ तो मैं उससे नहीं पूछता कि क्या आप प्रोटेस्टेंट हो या एक कैथोलिक या यहूदी? मेरे लिए वह संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक है। और मैं उसे एक अमरिकी मानता हूँ। मुझे समझ में नहीं आता कि आप यह रवैया हम भारत वाले लोगों के लिए ही क्यों रहता हैं।

26 अक्तूबर, 1958 को वे बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए। उसके बाद प्रधानमंत्री नेहरू नें उन्हे तमाम मतभेदो के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत नियुक्त किया। उन्होंने वहा 1958 से 1961 तक कार्य किया। इसके बाद छागला ने अप्रैल 1962 से सितम्बर 1963 तक ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में कार्य किया।

ब्रिटेन से लौटने के बाद, उन्हें कैबिनेट मंत्री का पद दिया गया। वे महाराष्ट्र के राज्यपाल भी नियुक्त हुए। 1963 से 1966 तक उन्होनें शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया, इसके बाद नवंबर 1966 से सितंबर 1967 तक विदेश मामलों के मंत्री के रूप कार्य किया। एक समय ऐसा आय जब उन्होंने सभी सरकारी सेवाए त्याग दी और फिर से वकालत शुरू की और जीवन के अंत तक वकालत करते रहें।

सर चिमनलाल सेटलवाडे के कहने पर 1973 में, उन्होंने अपने बेटे इकबाल की मदद से रोजेस इन दिसंबरआत्मकथा लिखी। जो 60 घंटे रेकॉर्डिंग कर ट्रान्सस्क्रिप्ट की गई। भारतीय विद्या भवन ने प्रकाशित की हैं। 9 फ़रवरी 1981 को 81 वर्ष की आयु में मुहंमद अली करीम छागला की दिल के पडने से मृत्यु हो गई।

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