यूसुफ़ मेहरअली का नाम शायद ही आज के पिढ़ी के नौजवानो को पता होगा, मग साधारण सी कद काठी सा दिखनेवाला यह इन्सान भारत के उन महामानवों कि सूची मे है, जिन्होंने स्वाधीनता के लिए अपने जान कि भी परवाह नही की। उनके करीबी दोस्त और उनके जीवनीकार मानते है कि यूसुफ़ ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में इतने मसरुफ थे की उन्हें अपनी गिरती सेहत का जरा भी गुमान नही था।
मधु दंडवते, यूसुफ़ मेहरअली के उन दोस्तो में से जिन्होंने उन्हें करीब से जाना। वे ‘यूसुफ़ मेहरअली : क्वेस्ट फॉर न्यू होरिजॉन्स’ में लिखते हैं, “छोडो भारत आंदोलन के बाद पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर पुणे के येरवडा जेल में ले आई। यहां उनकी तबियत इतनी बिगडी के डॉक्टरों ने जबाव दे दिया। बदनामी के डर से पुलिस ने उन्हें रिहा किया। जिसके बाद यूसुफ़ पूरे आठ साल जीये।”
याद दिलाता चलू कि उसी साल मुंबई के मेयर का चुनाव हुआ था। चुनाव के समय यूसुफ़ मेहरअली लाहौर जेल में बंद थे और बिमारी क चलते उनका इलाज जारी था। सोशालिस्ट पार्टी और यूसुफ़ के बिनती के बाद उन्हें चुनाव लड़ने कि इजाजत दी गई। सरकार को डर था कि मेहरअली कि मौत का दाग न लगे, इसलिए उन्हें फौरन रिहा किया गया।
दंडवते मानते हैं, कि उन्हें अपनी गिरती तबीयत कि परवाह नही थी, ना ही उन्होंने कभी इसका एहसास उनके करिबी दोस्तो और अन्य लोगों को होने दिया। वे हमेशा अपना दर्द छुपाते रहे।
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कैसा रहा शुरुआती जीवन
यूसुफ़ मेहरअली एक कच्छी मुसलमान थे। 23 सितंबर 1905 को बंबई में उनका जन्म हुआ था। उनका परिवार एक व्यापारी समुदाय से ताल्लुक रख़ता था। उनके दादाजी के पास कपडा मील थी। वे मर्चेंट थे, याने धनी व्यापारी जमात से उनका संबंध था। मगर उन्हें व्यापारी कहेलवाना पसंद नही था।
वैसे तो उनका परिवार मुंबई में रहता। मगर अपने वतन कच्छ आया-जाया करता। उन दिनों कच्छ में संस्थानी शासन था। सुझबुझ बढ़ी तो यूसुफ़ को एहसास हुआ कि यह शासन सामंतवाद और अन्याय पर टीका हैं, जिसमें मानवीयता के लिए कोई जगह नही। इस एहसास के बाद उन्हें सामंती शासन और उसपर टीके शानो-शोकत से चिढ़ सी हुई। जिसके बाद उन्होंने अपने नाम से ‘मर्चेंट’ निकाल दिया।
न्या. चंद्रशेखर धर्माधिकारी कहते है, “इस नाम से उन्हें ‘व्यापारी या सौदागर’ होने की बू आती थी और वे तो जात-जमात, धर्म वा धंधे के लेबलों पर विश्वास ही नहीं रखते थे, बल्कि ऐसे लेबलों से नफरत करते थे।” वह स्कूली शिक्षा का दौर था, मगर बाल यूसुफ़ कि समझ और सोंच उम्र से कीं ज्यादा आगे थी।
मुंबई के ग्रांट रोड परिसर के ‘ट्यूटोरियल स्कूल’ में उनकी शुरुआती पढ़ाई हुई। उसके बाद बोरीबंदर स्थित न्यू हाई स्कूल में उनका दाखिला हुआ। उनके करीबी मित्र उन्हें यूसुफ़ मेहरअली बुलाते थे। यह नाम कैसे पड़ा इस बारे में जानकारी उपलब्ध नही होती। आगे चलकर उनका नाम यूसुफ़ भाई हो गया। और यहीं नाम से वह चर्चीत हुए।
मीनू मसानी और सोली बाटलीवाला यूसुफ़ के स्कूली मित्र थे जो आगे चलकर बड़े राजनीतिक नेता बने। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण भी उनके करिबी दोस्तों मे थे। नेहरू के एक भाषण से प्रभावित होकर वे हमेशा के लिए स्वाधीनता आंदोलन से जुडे।
यूसुफ़ मेहरअली को अपने दोस्तों से बड़ी आत्मीयता और लगाव था जिसका उदाहरण इस घटना से मिलता हैं, सोली बाटलीवाला के कहने पर उन्होंने एक साल के लिए सेंट झेवियर में दाखिला लिया था। बाद में वह ‘एल्फिस्टन कॉलेज’ पहुँच गए। सही मायनों मे यहां उनके प्रतिभा को चार चांद लग गए। कॉलेज के दिनों में यूसुफ़ सांस्कृतिक कार्यक्रमों मे भाग लेते। भाषण देना और संघटन कुशलता उनके खून में बसी थी। अपने प्रभावी भाषणों से वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध बना देते।
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और बने लोकनायक
यहीं से यूसुफ़ ने अपने राजनीतिक सफर का आग़ाज किया। वे छात्र आंदोलन से जुडे। यूनिवर्सिटी सुधार के लिए बनाई गई सोशल स्टडी कमिटी के वे अध्यक्ष बने। जिसके बाद उन्होंने विद्यार्थियों से जुडी हर समस्या पर आंदोलन छेडा और प्रशासन से मुखातिब हुए। दंडवते बताते हैं की, यहीं से उन्हें सार्वजनिक जीवन जीने कि इच्छा प्रकट हुई। वे छात्रप्रिय तथा अध्यापक प्रिय थे। प्रिन्सिपल हॅमिल के वे चहते छात्र थे।
जनाब दंडवते प्रि. हॅमिल से जुडा एक दिलचस्प किस्सा बयान करते हैं, एक दफा यूसुफ़ और उनके दोस्तों को कृषि प्रदर्शनी देखने पुणे जाना था। उनके जेब में पैसे ज्यादा नही थे इसलिए कम पैसो मे रहने का इंतजाम करना लाज़मी था। उन्हें एक शरारत सुझी। वे पुना इंजिनिअरिंग कॉलेज के प्रिन्सिपल फ्लीटवुड से जा मिले और कहा, हम प्रिन्सिपल हॅमिल के चहेते विद्यार्थी और उनके दोस्त हैं। उन्होंने कहा है कि आपके कॉलेज के हॉस्टल में हमारे रहने का इंतजाम हो।
इतना सुनते ही फ्लीटवुड सवाल-जवाब करने लगे, उन्होंने कहा कि मि. हॅमिल को आप आखरी दफ़ा कब मिले थे। इस सवाल पर यूसुफ़ गडबडा गए। वे इस अवस्था में ज्यादा देर तक नही रह पाए क्योंकि प्रिन्सिपल स्मीथ के बंगले के एक कमरे में मि. हॅमिल रुके थे और बाहर होनेवाली बातचित सुन रहे थे। उन्हें बाहर आता देख यूसुफ़ चौंक गए। हॅमिल ने उनसे इनक्वायरी की और मामला वही रफा-दफा हुआ, क्योकि रहने के लिए यूसुफ़ को हॉस्टेल में कमरा मिल चुका था।
यूसुफ़ मेहरअली के जिन्दगी एक महत्त्वपूर्ण घटना 20 मई 1928 को घटी। ‘बॉम्बे स्टुडेट ब्रदरहुड’ संघठन ने ओपेरो हॉऊस में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था, जिसमें सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू भाषण दे रहे थे। यूसुफ़ ने पुरे आत्मियता के साथ उनके भाषण सुने। अपनी बात में नेहरू ने सभ्यता और संस्कृति के विरासत को लिए युवाओ को स्वाधीनता आंदोलन से जुडने का ऐलान किया था।
यह बताने कि जरुरत नही कि यूसुफ़ नें नेहरू से मुलाकात की और देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया। जिसके बाद वे ‘युथ लीग’ से जुडे। इस संघठन के सेक्रटरी के रूप में उन्हें ‘वर्ल्ड पीस युथ काँग्रेस’ परिषद के लिए हॉलैंड जाने का मौका मिला। पैसो के वजह से यह मामला न रुके इसलिए दोस्तो ने चंदा जमा कर यूसुफ़ को दिया था। वहां जाकर यूसुफ़ मेहरअली ने हिन्दुस्थानी स्वाधीनता कि आकांक्षाओ को दुनिया के सामने रखा।
यूसुफ़ मेहरअली ने आगे चलकर इस संघठन के माध्यम से युवाओ को जोडने का काम किया। यूसुफ़ के भाषणो से प्रभावित होकर उन दिनो ऐसे ही एक संमेलन मे गए जी.जी. पारिख ने मुझे बताया, “मेहरअली समाजवादी आंदोलन तथा खासकर युवाओं में बहुत ज्यादा पॉप्युलर थे। अपने भाषणो के जरीए वे उन आम लोगो के दिलों तक पहुँच जाते जहां तक शायद ही कोई राजनेता पहुंच जाता हैं। वह युवाओ के जननायक थे।”
जी.जी. पारिख यूसुफ़ मेहरअली के प्रशंसक हैं। उम्र के 97 बसंत पार कर चुके पारिख हर सार्वजनिक कार्यक्रम में यूसुफ़ मेहरअली कि याद को ताजा करते हैं। बीते दिनों मुंबई में संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ हुए एक मार्च में पारिख पहुँचे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन से जुडी अपनी यादे बताई। उन्होंने जब वहां मौजूद युवाओ को यूसुफ़ मेहरअली के बारे में बताया तो, युवाओं का जज्बा देखते बनता था। पारिख के मुंह से मेहरअली को सुनते ही उनको सुनने वाले हजारो युवाओ ने सिटीयाँ और तालीया बजाकर मेहरअली के प्रति अपने उत्साह का मुज़ाहरा किया।
मुझसे बात करते हुये पारिख यूसुफ़ मेहरअली के यादों मे इतने खो गए कि उन्हें समय का अंदाजा भी नही रहा। उनके मुंह से यूसुफ़भाई के बारे में सुनना मेरे लिए वख़ार का बायस रहा।
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एक कुशल संघटक
यूसुफ़ मेहरअली जन्मजात प्रभावी वक्ता, नेता और एक संघटन कुशल इन्सान थे। इसी से जुडा एक किस्सा मधु दंडवते अपनी किताब में बयां करते हैं। 3 फरवरी 1928 को यूसुफ़ जब साइमन कमिशन के विरोध में पुलिस के लाठीयों से जख्मी होकर घर लौट रहे थे, तब रास्ते में एक युवक ने उनसे पुछा,
“क्या तूम साईमन गो बैक के आंदोलन से आ रहे हो, सुना हैं कि वहां पुलिस ने यूसुफ़ मेहरअली को बुरी तरह से पिटा है उनका हाथ टुटा है और वे बुरी तरह से जख्मी हैं।” इसपर यूसुफ़ नें कहा, नही ज्यादा लगा नही हैं, बस सर पर चोट आई हैं।” इसपर वह युवक झल्ला गया,“तूम झुठ बोल रहे हो, यूसुफ़भाई को पुलिस ने बहुत मारा है वह जख्मी है, में उन्हें देखने वहीं जा रहा हूँ।”
यह आलम था उनके लोकप्रियता का। इस आंदोलन के बाद साईमन गो बैक नारा पूरे देश में छा गया था। उन दिनो यूसुफ़ कानून कि पढ़ाई कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने भारत प्रशासनिक सुधार के लिए एक आयोग का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष सर जॉन अल्सब्रुक साईमन थे।
आयोग के रिपोर्ट के बाद ब्रितानी हुकूमत देशवायीसीयो पर अपनी नकेल और ज्यादा मजबूत होनेवाली थी। स्वाधीनता सेनानी चाहते थे कि इस कमिशन में भारत के लोगों को शामिल किया जाये। पर अंग्रेजी सरकार नही मानी। जिसका विरोध काँग्रेस के साथ मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा जैसे अनेक राजनीतिक संघटनों ने इसका विरोध करने के प्रस्ताव को मंजुरी दी।
सोशालिस्ट पार्टी कि और से यूसुफ़ मेहरअली ने इस कमिशन का विरोध करनी कि योजना बनाई। 3 फरवरी रात तीन बजे से यूसुफ़ और उनके कुछ मित्र साईमन कमिशन के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। गड़बड होने कि भनक प्रशासन को लग गई।
उधर मोल बंदगरगाह जहां, साईमन उतरने वाले थे वहां यूसुफ़ अपना भेस बदलकर छिप गए जैसे ही साईमन का जहाज किनारे लगा, उन्होंने फ़ौरन उनके सामने जाकर ‘साईमन गो बैक’ का नारा दिया। पुलिस ने उन्हें पकड लिया और बुरी तरह पिटा। दिन ढलते-ढलते यह खबर पूरे शहर में फैल गई।
दूसरे दिन ग्रांट रोड पर मि. साईमन के विरोध में जनसभा हुई हुई। जिसमे यूसुफ़ ओर उनके मित्र शामिल थे। जहां पुलिस ने अमानवीय तरीके से हमला किया। इसके बाद देशभर में साईमन विरोध कि लहर दौड़ पडी।
कमिशन मुंबई से निकलकर लाहौर पहुँचने वाला था। वहां भगत सिंह कि ‘हिन्दुस्थान रिपब्लिक सोशालिस्ट पार्टी’ ने लाला लजपतराय को साईमन के खिलाफ अपना समर्थन दिया। उन्होंने साईमन के विरोध करने कि योजना बनाई।
अक्तूबर आते आते साईमन लाहौर पहुँच गये। वह 3 अक्तूबर का दिन था, करीबन पाँच हजार लोग लाहौर रेल्वे स्टेशन पर साईमन के विरोध में खडे थे। मौलाना जफरअली, मदनमोहन मालवीय, भगत सिंह, गोपीचंद भार्गव और लालाजी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। पुलिस ने इन निहत्थे लोगों पर लाठीया बरसाई जिसमें लालाजी कि अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हुई थी। जिसके बाद पूर देश के युवा ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ संघटित हुये।
1929 में उन्होंने गवर्मेंट लट कॉलेज से कानूनी पढ़ाई पूरी की और वकालत के लिए बंबई हाईकोर्ट पहुँचे। पर जज ने उन्हें वकालत कि सनद देने से मना किया, वजह साफ थी। मेहरअली कई सार्वजनिक आंदोलनो से जुडे थे, साईमन गो बैक कि घटना उन्हें वकालत करने से रोकने कि बड़ी वजह बनी। यह भी एक तरह से अच्छा हुआ। मेहरअली नें उस पिटने वाले पुलिस के खिलाफ मुकदमा दायर किया। जो पूर नऊ महीनों तक चला और सरकार ने अपनी गलती स्वीकार की।
मोल बंदरगाह पर पिटने वाले उस पुलिस सार्जेट को कोर्ट ने 100 रुपये जुर्माने की सजा दी। यह केवल मेहरअली की जीत नही थी बल्कि सारे स्वाधीनता आंदोलन कि जीत थी। मेहरअली अब पूरी तरह से सामाजिक आंदोलन से जुड गए।
यूसुफ़भाई ने मुंबई के मिल मजदूरों को संघटित करने का काम शुरु किया। कंपनी मालिको के खिलाफ मजदूरों के शोषण के विरोध में उन्होंने बडा आंदोलन छेडा। एन.एम. जाशी, बी.जी. खेर के साथ मिलकर मजदूरों के हको के लिए वह सरकार और मील मालिको से लड़ पड़े। आगे चलकर उन्होंने दांडी मार्च में भी भाग लिया। इस तरह वे पूरी तरह सार्वजनिक जीवन के अपने सफर पर चल पड़े।
1929 में मुंबई में दंगे हुए तब नेशनल मिलिशिया नामक संघठन बनाकर उन्होंने दंगाग्रस्त भागो का दौरा कर वहां शांति प्रस्थापित की। 1939 में उन्होंने अपने गृहप्रदेश कच्छ रजवाडे के खिलाफ जंग छेडी।
अपने प्रभावशाली भाषणो के माध्यम से उन्होंने मुंबई के गुजराती युवाओ को इस आंदोलन के लिए तैयार किया। महिला और किसानो के रजवाडे के खिलाफ खडा होने का हौसला दिया। जिसके बाद एक निर्णायक लढ़ाई कि शुरुआत हुई। मेहरअली ने राजा को खुले रूप से चुनौती दी राजनीतिक सुधार कार्यक्रम चलाना, असेम्ब्ली और कार्यकारी मंडल कि स्थापना, बडे लगानों को हटाना जैसी मांगे शामिल थी।
यह अलग बात है कि ब्रितानी सरकार के मदद से राजा ने आंदोलन क कुचल कर रख दिया। पर उनके संघठन कौशल्य का नमुना नेहरू, आज़ाद और महात्मा गांधी जैसे दिग्गज नेता मान गए थे।
अच्युत पटवर्धन दंडवते लिखित मेहरअली के जीवनी के प्रस्तावना में लिखते हैं, “उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता हैकि वे भारी बहुमत से बंबई नगर निगम के महापौर चुने गए।
मेहरअली में महत्वाकांक्षा लेशमात्र न थी। उन्हें जीवन में जो भी पुरस्कार मिला
वहसमूचे भारत की जनता के सभी वर्गों के स्नेह और आदर का फल था।”
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एक विद्वान नेता
मेहरअली हिन्दुस्थान ही नही बल्कि विदेश में भी लोकप्रिय थे। वे विद्रोही और बागी किस्म के नेता थे। ब्रिटिशो के नीतीयों क खुलकर विरोध करते।वे सिर्फ एक राजनेता या स्वाधीनता संग्राम के लीडर नही थे, बल्कि एक विद्वान भी थे। उनका मानना था कि दमनशाही क्रांति असल शुरुआत होती हैं।
पटवर्धन मानते हैंकि, “मेहरअली उस पीढ़ी के व्यक्ति थे, जो भारत की प्राचीन धरोहर से प्यार करते थे, परंतु साम्राज्यवादी प्रभुत्व द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का सामना करने में समर्थ आधुनिक भारत के निर्माण का दायित्व उठाने के लिए भारत के युवाओं का आव्हान करते समयपुनरूद्धारवादी वृत्ति का लेशमात्र भी परिचय नहीं दिया।”
वे सबके लिए समान न्याय और आर्थिक हितों में बराबरी का दर्जा चाहते थे। वे खुदको ‘न्याय समाजवादी’ कहते थे। अपने इस विचार को लोगों और कार्यकर्ताओं तक पहुँचाने के लिए कई किताबे लिखी। खुदका पब्लिकेशन हाऊस भी शुरु किया।
क्विट इंडिया, इंडिया स्ट्रगल फॉर फ्रीडम, व्हाट टू रीड ए स्टडी सिलेबस, काँग्रेस सोशालिस्ट पार्टी इत्यादी उनकी प्रमुख रचनाए हैं। ‘ट्रीप टू पाकिस्तान’ पोलिटिकल सटायर हैं, जिसका मकसद पाकिस्तान के कल्पना का विरोध करना था, यह किताब 1943 में प्रकाशित हुई थी।
‘लीडर्स ऑफ इंडिया’ में उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के नेताओं कि जीवनीया लिखी। जिसमे मौलाना आज़ाद, नेहरू, गांधी, तिलक जैसे लिडरो कि युवा पिढी को पहचान कराई।
उनका मानना था कि संघठन के कार्यकर्ताओ को भारतीय संस्कृति और समाज के प्रति आदर हो। इसके लिए राजनीतिक शिक्षा का होना वे जरूरी मानते। संगीत, नाटक, कला और साहित्य में उनकी रूची थी।
उस्ताद अल्लादिया खान से उनकी गहरी दोस्ती थी। वे पर्यावरण प्रिय थे। खेती और किसानी के प्रति उन्हें आदर था, यहीं वह रही कि उन्होंने किसानों और मजदूरों का हमेशा सम्मान किया।
1942 का ‘क्विट इंडिया’ मूहमेंट स्वाधीनता संग्राम का आखरी सबसे बडा आंदोलन माना जाता हैं। उन दिनों मेहरअली बंबई के मेयर थे। इस रूप से वह इस आंदोलन के आयोजक थे। 8 अगस्त 1942 को काँग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन मुंबई मे होने जा रहा था। जिसके लिए महात्मा गांधी, नेहरू, मौ। आज़ाद, सरदार पटेल मुंबई आ चुके थे।
आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिए रूपरेखा तैयार कि जा रही थी। जिसमे यूसुफ़ मेहरअली मौजूद थे। आंदोलन का नारा क्या होना चाहीए इस बारे में गांधीजी ने पुछा तो, वहां मौजूद में कई लोगों ने अपने विचार रखे।
के गोपालस्वामी अपनी किताब ‘गांधी अँड बॉम्बे’ में यह दिलचस्प किस्सा कुछ इस तरह बयान करते हैं। “उनमें से एक ने ‘गेट आउट’ का सुझाव दिया। गांधी ने इसे अपवित्र मानते हुए खारिज कर दिया।
राजगोपालाचारी ने ‘रिट्रीट’ या ‘विदड्रॉ’ का उल्लेख किया। इससे प्रभावी संदेश पहुँचने मे दिक्कते होंगी कहकर गांधी न इसे नकार दिया। यूसुफ़ मेहरअली ने गांधी को एक धनुष (बिल्ला) भेट किया जिसमें लिखा था ‘क्वीट इंडिया।’ गांधी ने तुरुंत अनुमोदन देते हुए कहा, ‘आमीन।’
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में यूसुफ़ मेहेरअली कि विशेष भूमिका रही। उन्होंने ‘क्विट इंडिया’ रुपरेखा कि एक पुस्तिका छपवाई, जिसे बाद में उस जनसभा में रखा गया, जिसकी पाँच हजार कापीयां हाथोहाथ बीक गई। उसी तरह अंग्रजी के ‘क्यू’ अक्षर जो ‘क्वीट इंडिया’ का पहला अक्षर है, उसके टाइपिन और बिल्ले बनवाये, जो सभा में बेचे गये थे और जिससे आंदोलन की आर्थिक मदद भी मिली थी।
‘साईमन गो बैक’ और ‘क्वीट इंडिया’ यह दो घोषणा स्वाधीनता आंदोलन के मील का पत्थर साबीत हुई। इन दो घोषणा ने सामान्य लोगों के दिलों मे देश के प्रति प्रेम और आत्मियता को बनाये रखने में मदद की। यह घोषणाए आगे चलकर एक चंगारी के तहत उभरी। जिसने अंग्रेजी हुकमूत के शोषनीय और अन्यायी तथा सामती व्यवस्था को जलाकर राख कर दिया।
पर अफसोस के सात कहना पड़ता है की राजनेता, अभ्यासक, इतिहासकार और सामान्य लोगों को यह घोषणाएं तो याद हैं पर उनका निर्माता याद नही।
तीन साल पहले 9 अगस्त 2017 को इस आंदोलन की 75वीं बरसी मनाई गई, उस दिन संसद मे विशेष चर्चा आयोजित की गई, तब किसी ने भी यूसुफ़ मेहरअली का नाम नही लिया। 15 अगस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से इस आंदोलन के महिमा का बखान किया पर तब भी उन्हे मेहरअली याद नही आये।
आज सब के जुबान पर यह घोषणा तो हैं, पर यूसुफ़ मेहरअली भुला दिये गये हैं। समाजवादी आंदोलन जो यूसुफ़ मेहरअली के बलबुते उंचाई पर पहुँचा उसने भी एस लोकनायक को भूला दिया।
इसकी वजह मैंने जी. जी. पारिख से जानना चाही तो उन्होंने न छापने कि शर्त पर कई ‘ऑफ दि रेकॉर्ड’ बाते बताई, जिसे मुझे एहसास हुआ कि सोशालिस्ट पार्टी का संस्थापक रहा ये शख्स बाद में आनेवाले व्यक्तीयों के व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते बली चढ़ा दिया गया।
पारिख ने मुझे बताया “समाजवादीयों को अल्पसंख्याक समुदाय के लोगों का याद रखना चाहीए। उन्होंने इस आंदोलन के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। मोईनद्दीन हॅरिस, पीटर अल्वारिस तो तरह भूला दिये गए हैं। इसी तरह मेहरअली भी आज शायद हि किसी को याद हैं। मैंने तो कोशिश की थी कि उन्हें याद रखा जाये। जिसके लिए हमने व्याख्यानमाला भी चलाई थी।”
मेरा निरिक्षण रहा हैं कि, यूसुफ़ मेहरअली और मोईनुद्दीन हॅरिस को महाराष्ट्र के समाजवादी याद नही करते। इसी तरह का बर्ताव निहाल अहमद के साथ भी रहा। मैंने इस बारे में उनके परिवार के सदस्यों से बात कि उन्होंने खुलकर बात करने से पढ़े :मना किया।
मुझे याद हैं कि, महाराष्ट्र के समाजवादी कहे जाने वाले नरहर कुरुंदकर ने तो मोईनुद्दीन हैरीस कि खुले रुप से कठोर आलोचना की थी। हैरीस का इस्लाम प्रेम कुरुंदकर को सेक्युलर विचारधारा को खतरा लगा था। कहा जाता हैं कि कुरुंदकर खुलकर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी करते थे।
अच्युत पटवर्धन ने इस गलती को स्वीकार कर लिया था। इस बारे में उन्होंने लिखा हैं, “उनके (यूसुफ़ मेहरअली) देहावसान के बाद (पार्टी में) बडी रिक्तता उत्पन्न हो गयी जिसकी पूर्ति अब तक नहीं की जा सकी। साथ ही पार्टी नेताओ कि व्यक्तिगत अहमन्यता ने दल (पार्टी) को खंडित करडाला।”
मेहरअली के भूलाए जाने पर मैंने समाजवादी आंदोलन का डॉक्युमेंटेशन कर रहे प्रसिद्ध समाजवादी क़ुरबान अली को पुछा तो उनका जवाब भी इससे अलग नही था। पटवर्धन मानते हैं की, “समाजवादी दल में मेहरअली का योगदान विश्लेषणात्मक रीति द्वारा अभिव्यक्ति की सीमाओं से कहीं अधिक परे और महान था।”
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और हार गए जिन्दगी
मेहरअली बंबई विधानमंडल में सदस्य थे। अपनी बात मनवाने के लिए और अपना पक्ष मजबूत बनाने के लिए तरह-तरह कि दलीले देते। जो उस लंबे समय तक चर्चा का विषय बनती। तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजी खेर ने अपनी यादों मे इसका जिक्र भी किया था। 1950 के मार्च महीने में सदन मेंभूमी सेना विधेयक पर चर्चा चल रही थी। मेहरअली अपनी बात रख रहे थे। तभी वे एकाएकी गीर पड़े।
तबीयत ख़राब होने के चलते उन्हें उनके दोस्त पीटर अल्वारीस जो इन दिनों सदन के सदस्य थे, मना किया था। मगर वे नही माने और चले आये।उस दिन मेहरअली को हार्टअटैक आया था।
जिसके बाद अल्वारिस ने उन्हें उठाकर घर ले गए। जिसके बाद वह फिर कभी सदन नही आये। काफी दिनों तक वे बिस्तर पर पड़े रहे। ऐसे दिनों में वे अपना कामकाज करते रहे। मना करने के बावजूद वे नही रुके, एक वक्त ऐसा आया जब दोस्तो ने उन्हें मिलने जाना छोड दिया, क्योंकि वे हमेशा तबीयत कि चिंता किये बगैर घंटो बतीयाते ।
2 जुलाई 1950 को मुंबई के ‘जसावाला नर्सिंग होम’ में अलसुबह उनका निधन हुआ। उस समय वह केवल 47 साल के थे। जी.जी. पारिख बताते हैं कि, “उस दिन मुंबई मानो थम सी गई थी। तमाम बडे राजनेता, आम लोग और उनके चाहने वाले गम में डुब गये थे। अपने नेता के खो जाने पर मजदूरों ने खुद से अपना काम बंद कर दिया था। मंत्रालय और मुंबई का कामकाज जैसे रुक गया था।”
एक विद्वान राजनेता, कार्यकर्ता, कुशल संघटक, प्रभावी वक्ता, दिलदार दोस्त, मजदूरों का नेता, एक मेअर, विधायक और स्वाधीनता सेनानी का यह नायक आज पूरी तरह से इतिहास के नये पन्नों से गायब हैं। इनके पार्टी ेक लोग भी अब उन्हें याद नही करते। इतिहासकारों को भी उनका नाम नही भाता।
इस महान शख्सीयत को कोई याद करे ना करे इससे कोई फरक नही पड़ता। फरक तो उनके विचारों को हम अमल में लाते हैं, या नही इससे पड़ता हैं। यूसुफ़ मेहेरअली के विचार औऱ व्यक्तित्व आज भी एक जीवनदायी प्रेरणा बना हैं, क्या यह काफी नही हैं।
जाते जाते:
* जाकिर हुसैन वह मुफलिस इन्सान जो राष्ट्रपति बनकर भी गुमनाम रहा
हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।