मलियाना के रहने वाले पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दिकी बताते हैं, 23 मई 1987 को लगभग दोपहर बारह बजे से पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरु किया। यह घेरे बंदी लगभग ढाई बजे खत्म हुई। पूरे इलाके को घेरने के बाद कुछ पुलिस और पीएसी वालों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरु कर दी। दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया।
घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दी। नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मार-पीट कर ट्रकों में फेंकना शुरु कर दिया गया।पुलिस और पीएसी लगभग ढाई घंटे तक फायरिंग करती रही।
दरअसल, पीएसी हाशिमपुरा की तर्ज पर ही मलियाना के मुस्लिम नौजवानों को कहीं और ले जाकर मारने की योजना पर काम रही थी, लेकिन वहीं पीएसी की फायरिंग से इतने ज्यादा लोग मरे और घायल हुए कि पीएसी की योजना धरी रह गई।इस ढाई घंटे की फायरिंग में में 73 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हो गए और सौ से ज्यादा घर जला दिए गए।
मलियाना दंगों से संबंधित जो मामला मेरठ सत्र न्यायालय में चल रहा है उसमें मुख्य शिकायतकर्ता याकूब अली हैं। याकूब बताते हैं कि “23 मई 1987 के दिन जो नरसंहार मलियाना में हुआ था उसमें मुख्य भूमिका पीएसी की थी।शुरुआत पीएसी की गोलियों से ही हुई थी और दंगाइयों ने पीएसी की शरण में ही इस नरसंहार को अंजाम दिया था।”
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मुर्दे बने आरोपी
पेशे से ड्राइवर याकूब अली इन दंगों के वक्त 25-26 साल के थे। उन्होंने ही इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज (एफआईआर) कराई थी। इसी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने दंगों की जांच की और कुल 84 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। इस रिपोर्ट के अनुसार 23 मई 1987 के दिन स्थानीय हिंदू दंगाइयों ने मलियाना कस्बे में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों की हत्या की और उनके घर जला दिए थे।
लेकिन याकूब का कहना है कि उन्होंने यह रिपोर्ट कभी लिखवाई ही नहीं थी। वे बताते हैं, “घटना वाले दिन मुझे और मोहल्ले के कुछ अन्य लोगों को पीएसी ने लाठियों से बहुत पीटा। मेरे दोनों पैरों की हड्डियाँ और छाती की पसलियां तक टूट गई थी। इसके बाद सिविल पुलिस के लोग हमें थाने ले गए। अगले दिन सुबह पुलिस ने मुझसे कई कागजों पर दस्तखत करवाए। मुझे बाद में पता चला कि यह एफआईआर थी जो मेरे नाम से दर्ज की गई।” इस एफआईआर में कुल 93 लोगों के नाम आरोपित के तौर पर दर्ज किये गए थे.
याकूब कहते हैं, “ये सभी नाम पुलिस ने खुद ही दर्ज किये थे।” याकूब की इस बात पर इसलिए भी यकीन किया जा सकता है क्योंकि इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे लोगों के नाम भी आरोपित के रूप में लिखे गए थे जिनकी मौत इस घटना से कई साल पहले ही हो चुकी थी।
हालांकि याकूब यह भी मानते हैं कि इस रिपोर्ट में अधिकतर उन्हीं लोगों के नाम हैं जो सच में इन दंगों में शामिल थे। लेकिन एफआईआर में किसी भी पीएसी वाले के नाम को शामिल न करने को वे पुलिस की चाल बताते हैं।
वे कहते हैं, “मलियाना में जो हुआ उसमें किसी हिन्दू को एक खरोंच तक नहीं आई। वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया नरसंहार था। इसमें मुख्य साजिशकर्ता पीएसी के लोग थे और वे आरोपित तक नहीं बनाए गए।”
मलियाना में परचून की दुकान चलाने वाले मेहराज अली बताते हैं, “मेरे पिता की भी उस दंगे में मौत हुई थी। उस दिन वे पड़ोस के एक घर की छत पर थे। उनके गले में गोली लगी थी। यह गोली पीएसी वालों ने ही चलाई थी। स्थानीय लोगों के पास ऐसे हथियार नहीं थे जिनसे इतनी दूर गोली मारी जा सके।”
इस घटना के 23 साल बाद 23 मई सन 2010 को मलियाना के लोगों ने इस नरसंहार में मरने वालों की याद में एक कार्यक्रम किया था। इस कार्यक्रम में ज़्यादातर मृतकों के परिजन और नरसंहार में घायल हुए लोग शामिल हुए। सब के पास सुनाने के लिए कुछ न कुछ था।
मुहंमद यामीन के वालिद अकबर को दंगाईयों ने पुलिस और पीएसी के सामने ही मार डाला था। नवाबुद्दीन ने उस हादसे में अपने वालिद अब्दुल रशीद और वालिदा इदो को पुलिस और पीएसी के संरक्षण में अपने सामने मरते देखा था।
आला पुलिस अधिकारियों के सामने ही दंगाईयों ने महमूद के परिवार के 6 लोगों को जिन्दा जला दिया। शकील सैफी के वालिद यामीन सैफी की तो लाश भी नहीं मिली थी। प्रशासन यामीन सैफी को ‘लापता’ की श्रेणी में रखता है। आज भी उस मंजर को याद करके लोगों की आंखें नम हो जाती हैं। जब कभी उस हादसे का जिक्र होता है तो लोग देर-देर तक अपनी बदकिस्मती की कहानी सुनाते रहते है।
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टूटती उम्मीदे
मलियाना निवासी वकील अहमद मेरठ में दर्जी का काम करते हैं।1987 में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले तो मेरठ स्थित उनकी दुकान लूट ली गई और फिर मलियाना में हुए दंगों में उन्हें गोलियां लगीं। वकील अहमद इस मुक़द्दमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह हैं। वे कहते हैं, “मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कभी भी न्याय नहीं होगा। मेरी आधी से ज्यादा उम्र इस इन्तजार में बीत चुकी है और बाकी भी यूं ही बीत जाएगी।”
वकील अहमद की तरह ही रईस अहमद भी इन दंगों के एक पीड़ित हैं। दंगों में रईस को गोली लगी थी और उनके पिता की हत्या कर दी गई। वे बताते हैं, “23 मई की सुबह मेरे अब्बू घर से निकले थे और फिर कभी वापस नहीं लौटे। हमें उनकी लाश तक नसीब नहीं हुई। सिर्फ यह खबर मिली कि पास में ही फाटक के पास उनकी हत्या कर दी गई थी।”
न्यायालय से अपनी नाउम्मीदी जताते हुए रईस कहते हैं “न्यायालय के सामने यह मामला हमेशा ही अधूरा पेश हुआ था और इस अधूरे मामले की सुनवाई भी आज तक पूरी नहीं हो सकी। अब तो हम यह मान चुके हैं कि हमें कभी इन्साफ नहीं मिलेगा।”
मलियाना के पीड़ितों की इन टूटती उम्मीदों के कई कारण हैं। इनमें से कुछ इस मामले में चली न्यायिक प्रक्रिया को मोटे तौर पर देखने पर साफ हो जाते हैं।1987 में हुए मलियाना दंगों की जांच मेरठ पुलिस ने लगभग एक साल में पूरी की थी।
23 जुलाई 1988 को पुलिस ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किया। इस आरोप पत्र में कुल 84 लोगों को मुल्ज़िम बनाया गया था। इनका दोष साबित करने के लिए पुलिस ने 61 लोगों को अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया। लेकिन बीते 34 साल में इनमें से सिर्फ तीन लोगों की ही गवाही हो सकी है। इनमें भी आखिरी गवाही साल 2009 में हुई थी।
पिछले 34 सालों से मेरठ की एक सत्र अदालत में मलियाना मामले में मुकदमा चल रहा है। याचिकाकर्ताओं के अनुसार, इस मामले में प्रमुख दस्तावेज एफआईआर ही गायब हो गई है। कार्यवाही शुरू होने के बाद से 800 से अधिक तारीखें दी गई हैं।
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हमेशा से उठते सवाल
पिछली सुनवाई चार साल पहले हुई थी। मलियाना के मुसलमानों को लगता है कि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, जैसा कि हाशिमपुरा के पीड़ितों को 31 अक्टूबर 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फ़ैसले के द्वारा मिला था।
पीड़ितों के वकील नईम अख्तर सिद्दीकी बताते हैं, “इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने लगभग दो साल पहले सन 2019 में एफआईआर की मूल कॉपी की मांग की थी। लेकिन यह एफआईआर रिकार्ड्स से गायब है। इस कारण भी यह मामला रुका पड़ा है।”
मलियाना दंगों की सुनवाई आज पहले से भी ज्यादा विकट हो चुकी है. मेरठ के ‘अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-15’ की कोर्ट में चल रहे इस मामले की असल कार्रवाई अब तभी आगे बढ़ेगी जब कोई नया न्यायाधीश 34 साल पुराने इस मामले को शुरुआत से समझेगा।
गायब हो चुकी एफआईआर के बिना मामले को आगे बढाने की रणनीति बनाएगा और अब तक हुई कार्रवाई के आधार पर आगे की कार्रवाई के आदेश देगा। यदि यह सब संभव हुआ तब भी मलियाना के पीड़ितों को कुछ हद तक ही न्याय मिल सकता है। इन पीड़ितों के साथ पूरा न्याय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि आज तक कोर्ट के सामने मलियाना की पूरी हकीकत कभी रखी ही नहीं गई।
मलियाना दंगों में पीएसी की भूमिका पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। साल 1988 में जब इस मामले में पुलिस द्वारा आरोपपत्र दाखिल किया गया, उससे पहले भी स्थानीय अख़बारों में यह बात उठने लगी थी कि पीएसी ने स्थानीय दंगाइयों की मदद से ही मलियाना में यह खूनी खेल खेला था। इसकी जांच के लिए अस्सी के दशक में ही एक जांच आयोग भी बनाया गया था।
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मर चुके कई गवाह
जस्टिस जी एल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में बने इस आयोग की रिपोर्ट को आज तक सार्वजानिक नहीं किया गया है। स्थानीय पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दिकी बताते हैं, “पुलिस ने जो जांच की उसमें किसी भी पीएसी वाले को आरोपी नहीं बनाया गया। जबकि इस घटना में पीएसी ने ही मुख्य भूमिका निभाई थी।
तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने तो पीएसी के एक कमांडर को इसी कारण निलंबित भी किया लेकिन कुछ समय बाद ही यह निलंबन वापस ले लिया गया। खबर है कि श्रीवास्तव आयोग ने इस घटना के लिए पीएसी को ही दोषी पाया था लेकिन वह रिपोर्ट आजतक सार्वजानिक नहीं की गई।”
वकील नईम अख्तर का कहना है कि “मेरठ की अदालत में जो मामला चल रहा है उसमें यदि दोषियों को सजा हो भी जाए तो भी पीएसी के वे लोग कभी दंडित नहीं हो पाएंगे जो इस नरसंहार के असली गुनहगार होते हुए भी आरोपी नहीं बनाये गए। वैसे भी जिस धीमी गति से यह मामला अदालत में चल रहा है उस गति से तो आरोपितों का दंडित होना भी लगभग असंभव ही है।
याकूब बताते हैं कि कई गवाह तो मेरठ से बाहर रहते हैं और पैसे की कमी के चलते सुनवाई के लिए कोर्ट भी नहीं आ पाते हैं। उनको यह भी लगता है कि अब इस केस का कुछ नहीं होना है। “बीते 28 साल में कई दोषी और कई गवाह तो मर भी चुके हैं। बाकी लोग भी मेरी तरह ही इन्तजार में हैं कि मौत पहले आती है या गवाही की बारी। न्याय का तो अब कोई इन्तजार भी नहीं करता।”
इन दंगों के पीड़ित अब न्याय की उम्मीद तक छोड़ चुके हैं. वैसे पूरे न्याय की उम्मीद उन्हें कभी थी भी नहीं। क्योंकि 23 मई 1987 को मलियाना में जो कुछ भी हुआ था उसका पूरा सच कहीं दर्ज ही नहीं हुआ। शायद हुआ भी हो तो जांच आयोग की उन रिपोर्टों में जिन्हें आज तक सार्वजनिक ही नहीं किया गया।
यूं तो देश में ऐसे बहुत से नरसंहार हुए हैं, जिनमें सीधे-सीधे सरकारों का हाथ रहा है, लेकिन 23 मई 1987 को हुआ मलियाना नरसंहार ऐसा कलंक जो शायद कभी छुटाया नहीं जा सकेगा। इस का दर्द तब और बढ़ जाता है, जब नरसंहार के चौंतीस साल भी पीड़ितों को न्याय तो दूर, दोषियों को बचाने की कोशिश की जाती है।
मलियाना के लोगों का यह भी लगता है कि सरकार ने मृतक के आश्रितों को मुआवजा राशि देने में भी भेदभाव से काम लिया। उनका कहना है कि उन्हें केवल 40-40 हजार रुपयों का मुआवजा दिया गया था, जो अपर्याप्त था।
जबकि हाशिमपुरा के पीड़ित परिवारों को पांच-पांच लाख रुपया मुआवज़ा दिया गया। पीड़ित परिवारों की मांग है कि उन्हें भी मुआवज़े की तरह उसी तरह का राहत पैकेज दिया जाए, जिस तरह से हाशिमपुरा के पीड़ितों को दिया गया है।
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लेखक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी) पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक सालों का अनुभव है। वह पीआईबी, भारत सरकार और भारत की संसद द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।