विलियम शेक्सपियर ने एक बार कहा था, “नाम में क्या रखा है? किसी चीज का नाम बदल देने से भी चीज वही रहेगी। गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा।” लेकिन लगता है कि नाम में बहुत कुछ रखा है। व्यवहार, गुण-अवगुण ये सब बाद की बातें हैं। नाम आप का एक खाका खींच देता है जो मन-मस्तिष्क पर तस्वीर बना देता है।
आज नाम इसलिए प्रासंगिक हो उठा है क्योंकि उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले एक बड़ा फैसला किया। यह फैसला था औरंगाबाद का नाम बदल कर संभाजीनगर करने का! जिस उद्धव सरकार पर हिंदुत्व छोड़ने के आरोप लग रहे थे उन्होंने इस्तीफे से पहले आनन-फानन में ये फैसले लिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या उद्धव ठाकरे लौट कर हिंदुत्व के उसी रास्ते पर आ गए हैं जो शिवसेना की यूएसपी रही है?
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नामांतरण की मांग
1980 के दशक में शिवसेना एक राजनीतिक पार्टी के रूप में महाराष्ट्र में तेजी से उभर रही थी। 1988 में औरंगाबाद महापालिका के चुनाव में शिवसेना को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इस के बाद बाल ठाकरे ने वहां आयोजित एक विजय रैली को संबोधित करते हुए यह ऐलान किया था कि शहर का नाम संभाजीनगर रखा जाएगा।
लेकिन अपने जीवनकाल में बाल ठाकरे नाम नहीं बदल पाए थे। तब से शिवसैनिक संभाजीनगर ही कहते हैं और सेना के मुख-पत्र में भी ऐसे ही लिखा जाता है। तभी से यह चुनावी मुद्दा भी बना हुआ है और हर चुनाव में यह मुद्दा जोर पकड़ता है। जाहिर है कि सेना अब इस मुद्दे को अपने पक्ष में भुनाएगी।
सत्ताधारी शिवसेना ने 1995 में महापालिका ने एक प्रस्ताव पारित कर इसे राज्य सरकार के पास मंजूरी के लिए भेजा। 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार थी। तब के मंत्रिमंडल ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। लेकिन मंत्रिमंडल के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका की गई।
लंबी लड़ाई के बाद हाई कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला दिया था लेकिन याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट चला गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले मे कहा, नाम बदलने के अलावा शहर के विकास के मुद्दों पर ध्यान दे। बाद में राज्य में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन चुनाव हार गया और मामला लटक गया। क्योंकि कांग्रेस नामांतरण के खिलाफ थी। 2011 में एक बार फिर सत्ताधारी शिवसेना की मनपा ने नामांतरण का प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजा था लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
एक रिपोर्ट में नामांतरण की याचिका के खिलाफ कोर्ट में याचिका करने वाले मुश्ताक अहमद (उस समय नगरसेवक) के हवाले से लिखा गया है कि 1996 में शिवसेना-बीजेपी कैबिनेट ने संभाजीनगर नाम को मंजूरी दे दी थी। लेकिन एक अधिसूचना जारी कर कहा था कि नामकरण करने के बारे में अगर कोई व्यक्ति सुझाव या आपत्ति दर्ज कराना चाहता है तो करा सकता है। इसी अधिसूचना के आधार पर नाम बदलने के फैसले को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट में अपील दायर की गई थी। लेकिन कोर्ट ने यह कह कर याचिका ठुकरा दी कि मामला अभी अधिसूचना तक ही सीमित है। अपील प्री-मैच्योर है।
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सिलसिले की शुरुआत
नाम बदलने का सिलसिला इस देश का नाम बदलने से शुरू हुआ। ब्रिटिश इंडिया को लोकप्रिय भाषा में हिंदोसिता कहा जाता था। लेकिन संविधान सभा के सदस्य इस नाम से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। 15 नवंबर 1948 में शिब्बन लाल सक्सेना ने असेंबली में एक संशोधन प्रस्ताव पेश किया कि भविष्य में इंडिया को ‘भारत’ कहा जाए। उस को मौलाना हसरत मोहानी का समर्थन मिला।
इस पर गणराज्य के नाम को बदलने के अच्छे और बुरे पहलुओं को ले कर गहन चिंतन हुआ। इस बात पर ज़ोर दिया गया कि भारत देश का मूल नाम था। इंडिया और हिंदोसिता से इतर ये एक भूभाग को दर्शाने वाला स्थानीय नाम था। इस के विरुद्ध संविधान सभा के कुछ सदस्य (जिन में आंबेडकर शामिल थे) का तर्क था कि इंडिया नाम दुनिया भर में जाना जाता है और वह किसी एक धर्म से जुड़ा भी नहीं है। इसलिए इंडिया नाम ही रहना चाहिए।
आखीर में दोनों नाम इंडिया और भारत को चुना गया। इसलिए संविधान की धारा कहती है ‘इंडिया जो कि भारत है, राज्यों का संघ है।’ ये बीच का रास्ता था जो कि हमारी जड़ों और दुनिया को दिखाने के बीच की भूमि, एक पुरानी संस्कृति और नए राष्ट्र की परिकल्पना के बीच था।
नामांतरण का इतिहास
शहरों के नाम की वर्तनी बदलने का भी अपना एक अलग इतिहास है। आजादी के बाद जिलों, शहरों, राज्यों के नाम या उन की वर्तनी बदलने की शृंखला काफी चली। आजादी के तत्काल बाद त्रावणकोर कोचीन राज्य का नाम केरल हो गया था। आप को यह भी याद होगा उड़ीसा कैसे ओडिशा हो गया और इसी तरीके से पांडिचेरी का नाम पुड्डुचेरी हो गया। बॉम्बे को मुंबई और कलकत्ता को कोलकाता होते हुए हम सब ने देखा है।
लगभग 20 साल पहले बने उत्तरांचल का नाम भी बाद में बदल कर उत्तराखंड हुआ। बंगलौर अब बेंगलुरू है। गुडग़ांव का नाम गुरुग्राम, नए रायपुर का नाम अटल नगर होते हुए हम सब ने देखा है। नाम बदलने की राजनीति में दक्षिण के राज्य काफी आगे रहे हैं। सिर्फ आंध्र प्रदेश में ही लगभग 6 दर्जन से ज्यादा जिलों और शहरों का नाम बदल दिया गया। कर्नाटक में यह संख्या डेढ़ दर्जन के आस पास है और केरल में लगभग 3 दर्जन।
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महाराष्ट्र ने भी इस काम को करने में बहुत संकोच नहीं किया लेकिन अब उत्तर प्रदेश भी इस काम को तेजी से बढ़ाने के मूड में लगता है। योगी शासन के दौरान मुगलसराय का नाम पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज हो चुका है। इस के अलावा फैजाबाद जिला नहीं रहा उसे अयोध्या कहा जाने लगा है। इस से पहले कानपुर देहात का नाम भी रमाबाई नगर रखा गया था।
बनारस तो काफी पहले ही वाराणसी हो चुका है। अब जब से राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम ध्यानचंद के नाम पर किया गया है भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं। फिरोजाबाद जिला पंचायत ने भी अपने जिले का नाम चंदन नगर रखने का प्रस्ताव रख दिया है।
इस के अलावा संभल का नाम पृथ्वीराज नगर रखने की बात हो रही है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले का नाम भगवान राम के बेटे कुश के नाम पर कुशभाव नगर रखने की बात हो रही है। मुजफ्फरनगर का नाम लक्ष्मी नगर रखने की बात हो रही है जबकि गाजीपुर जिले का नाम महर्षि विश्वमित्र के पिता राजा गाधि के नाम पर गाधिपुरी करने की मांग हुई है।
आए दिन शहर, अस्पताल, चौराहे या सड़कों के नाम बदलते रहते हैं। नाम बदलने के पीछे अपने तर्क हो सकते हैं। कुछ लोग सरकार के फैसलों का स्वागत करते हैं तो कुछ विरोध भी करते हैं। बदलाव की आवश्यकता तो है लेकिन केवल नाम बदलने की नहीं बल्कि इस के साथ-साथ शहरों का विकास करने और लोगों की आकांक्षाओं को पूरा कर वास्तविक परिवर्तन करने की।
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।