अमर शेख कैसे बने प्रतिरोध की बुलंद आवाज?

मर शेख एक आंदोलनकारी लोक शाहीर थे। वे जन आंदोलनों की उपज थे। यही वजह है कि अपनी जिन्दगी के आखिरी समय तक वे आंदोलनकारी रहे। देश की आजादी के साथ-साथ ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ और ‘गोवा मुक्ति आंदोलन’ में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही। उन्होंने इन आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

कम्युनिस्ट पार्टी के कल्चरल फ्रंट के वे अभिन्न अंग थे। अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गव्हाणकर जैसे होनहार साथियों के साथ अमर शेख बंबई इप्टा में शुरुआत से ही शामिल हो गए थे।

जमीन से जुड़े इन कलाकारों ने ‘तमाशा’, लावणी और ‘पोवाड़ा’ जैसी महाराष्ट्र की लोक कलाओं को एक नई जिन्दगी दी। उनमें नये रंग भरे, नये प्रयोग किए। कारखानों में कामगारों और ग्रामीण इलाकों में किसानों के बीच जब वे इन कलाओं को पेश करते, तो बड़े पैमाने पर दर्शक उनसे जुड़ जाते। उनमें नया जोश जाग उठता।

20 अक्टूबर, 1916 महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के बार्शी तालुके में एक गरीब परिवार में जन्मे अमर शेख का असली नाम मेहबूब हुसेन पटेल था। वे छोटे ही थे, जब पिता ने उनकी मां को छोड़ दिया। मां शेख मुनीरा ने ही मेहबूब हुसेन की परवरिश और उन्हें तालीम, तर्बीयत दी। गरीबी की वजह से वे बमुश्किल सातवी जमात तक पढ़ पाए।

उनका बचपन अभावों में बीता। स्कूल की पाठशाला से ज्यादा उन्हें जिन्दगी की पाठशाला ने पढ़ाया-सिखाया। संघर्ष ही उनके गुरू थे। जिन्दगी के गुजारे के लिए उन्होंने छोटे-छोटे काम किए। मसलन अखबार बांटना, मिल की नौकरी और यहां तक कि ट्रकों पर क्लीनर के तौर पर चले।

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बचपन से आंदोलनों में

साल 1930 में उन्होंने महज 14 साल की उम्र में पहली बार आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लिया। अमर शेख की मां को लोक गीत गाने का बड़ा शौक था। वे गीत गाते-गाते अपना घर का काम करती थीं। जाहिर है कि इन गीतों का असर अमर शेख के बाल मन पर भी पड़ा और वे भी कविता, गीत लिखने-गाने लगे। पंद्रह-सोलह साल की उम्र से ही उन्होंने कविता, गीत लिखना शुरू कर दिया था।

अमर शेख की जिन्दगी में बड़ा मोड़ उस वक्त आया, जब वे जिस मिल में काम करते थे, वह मंदी की वजह से बंद हो गई। मिल बंद होने पर अमर शेख समेत सभी कामगारों ने मिल प्रबंधन के खिलाफ हड़ताल शुरू कर दी। जिसका नतीजा यह निकला कि जो कामगार हड़ताल पर बैठे थे, सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया।

अमर शेख को विसापुर की जिस जेल में रखा गया, उस जेल में कॉमरेड कराड़कर भी थे। उन्होंने अमर शेख को जेल में ही मार्क्सवाद का ककहरा सिखाया। उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने को कहा। यह वह दौर था, जब महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा बोलबाला था। कामगारों और किसानों में पार्टी काफी लोकप्रिय थी।

सर्वहारा वर्ग को यह लगता था कि यही पार्टी उनके विचारों की सही नुमाइंदगी करती है। अमर शेख भी पार्टी और इसकी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए और साल 1938 मे वे कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो गए। पार्टी से जुड़ने के बाद, उनकी विचारधारा में और निखार आया।

अमर शेख के खुद की यह सोच बनी कि “समाजवाद ही आज का युगधर्म है। समाज में यदि आर्थिक विषमता को खतम करना है, तो वह समाजवाद से ही मुमकिन है।”

अमर शेख ने पार्टी के कल्चरल फ्रंट पर ही काम किया। पार्टी के जो भी कार्यक्रम होते, वे उसमें पेश-पेश होते। उन्होंने अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गव्हाणकर के साथ मिलकर एक सांस्कृतिक ग्रुप ‘अमर कला पथक’ बनाया। जिसका काम जनता में जागरूकता फैलाना था।

इस ग्रुप के माध्यम से अमर शेख किसानों, कामगारों के दुख-दर्द को सामने लाने का काम करते थे। शोषण के खिलाफ आवाज उठाते। यही नहीं लोगों को आज़ादी की अहमियत समझाते। अधिकारों के लिए संघर्ष को आवाज देते। यही वजह है कि किसानों और कामगारों में अमर शेख की मकबूलियत बढ़ती चली गई। लोग उन्हें ‘लोकशाहीर अमर शेख’ कहकर पुकारने लगे।

‘अमर कला पथक’ के अलावा जब अमर शेख के साथियों अन्ना भाऊ साठे और कॉमरेड दत्ता गव्हाणकर ने एक और सांस्कृतिक ग्रुप ‘लाल बावटा कलापथक’ (लाल क्रांति कलामंच) बनाने का फैसला किया, तो वे भी इस ग्रुप में शामिल हो गए। कम्युनिस्ट पार्टी पर जब देश में पाबंदी लगी, तो अमर शेख कुछ समय तक अंडरग्राउंड भी रहे। लेकिन पार्टी और इसकी विचारधारा से नाता नहीं तोड़ा।

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शायरी से अवाम में बेदारी

अमर शेख का संपूर्ण साहित्य उठाकर देख लीजिए, इस साहित्य में सामाजिक विसंगतियों, असमानताओं और वर्गभेद का जहां मुखर विरोध है, तो वहीं वे अपनी कविताओं और गीतों से अवाम को साम्राज्यवादी ताकतों, जागीरदाराना निजाम और सरमायेदारी के खिलाफ उठने का आह्वान भी करते हैं। वे मुल्क में लोकशाही के हिमायती थे।

अंग्रेजी हुकूमत में किसानों, कामगारों की जो बदहाल आर्थिक स्थिति थी, उनकी रचनाओं में इसका चित्रण प्रचुर मात्रा में मिलता है। देश और देशवासियों की यह हालत देखकर वे खामोश तमाशाही नहीं हो जाते, बल्कि अपने गीत, कविताओं, लावणी और पोवाड़े में जबरदस्त प्रतिरोध दर्ज करते हैं। अवाम में सामाजिक, राजनैतिक चेतना जगाने का काम करते हैं। ताकि वे अपने हक के लिए आगे आएं।

अमर शेख का ज्यादातर लेखन साम्राज्यवाद और सरमाएदारी के खिलाफ है। जनता की जो मूल समस्याएं हैं, वही उनकी रचनाओं के विषय रहे। जनता और उनकी समस्याएं अमर शेख की रचनाओं के केंद्र में रहीं। शायरी उनके लिए मन बहलाने का साधन नहीं थी, वे इसे एक आंदोलन के तौर पर लेते थे। अपनी शाहिरी से अवाम में बेदारी लाना ही उनका एक मात्र मकसद था।

आज़ादी के बाद भी अमर शेख का संघर्ष खतम नहीं हुआ। महाराष्ट्र से जब साल 1957 में ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ की मांग उठी, तो वे भी इस आंदोलन में शामिल हो गए। कम्युनिस्ट पार्टी की रहनुमाई में हुए इस आंदोलन का नेतृत्व कॉमरेड आचार्य अत्रे, कॉ. डांगे, विश्वास राव पाटिल, एस.एम. ज्योति, उद्धव राव पाटिल, ए. के. हंगल जैसे नेता कर रहे थे।

प्रदेश की जनता को इस आंदोलन से जोड़ने और इसकी सर्वव्यापकता के लिए ‘अमर कला पथक’ और ‘लाल बावटा’ के कलाकारों लोक शाहीर अन्ना भाऊ साठे, दत्ता गव्हाणकर और अमर शेख ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अपने गीतों और पोवाड़ों से जनता को अपने साथ जोड़ा। ढपली की थाप पर जब अमर शेख अपनी बुलंद आवाज में गीत, पोवाड़े गाते तो उसका जनता पर जबर्दस्त असर होता। जनता आंदोलित हो जाती।

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गजब की शख्सियत

अपनी शायरी के साथ अमर शेख की शख्सियत भी गजब थी। लंबे-लंबे बाल, आंखे तेजस्वी और बुलंद आवाज। धोती और कुर्ता उनकी पसंदीदा पोशाक थी। वे जब अपनी बुलंद आवाज में शायरी पढ़ते, तो माइक की जरूरत नहीं पढ़ती थी। उनकी आवाज में वह जादू और कशिश थी कि लोग खिंचे चले आते थे।

महाराष्ट्र से दिल्ली में संसद तक जो मार्च निकला, अमर शेख इस रैली की अगुवाई करने वाले अहम लीडरों में से एक थे। संसद के सामने जो धरना हुआ, इसमें अमर शेख ने ढपली बजाते हुए, लगातार सात घंटे तक गीत गाए।

प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उनके गीत गाने का अंदाज कुछ ऐसा था कि जैसे मुंह से आग निकल रही हो। बहरहाल इस मोर्चे की मांग के आगे सरकार झुकी और खुद प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू मोर्चे के लीडरों से मिलने आए और उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी मांग पर विचार किया जाएगा।

इस आंदोलन का ही नतीजा था कि 1 मई 1960 को महाराष्ट्र राज्य का गठन हुआ। इसके बाद भी अमर शेख खामोश नहीं बैठ गए, गोवा मुक्ति आंदोलन जब शुरू हुआ, तो इस आंदोलन में भी उन्होंने शिरकत की। भारत-चीन युद्ध के समय कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों से मतभेद के चलते वे कुछ समय तक पार्टी से दूर भी हुए, लेकिन बाद में वे फिर इसमें शामिल हो गए और जिन्दगी के आखिरी समय तक रहे।

कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी विचारधारा पर उनका यकीन कायम रहा। अमर शेख आज़ादी के बाद भी अपने दल ‘अमर कथा पथक’ के मार्फत अवाम में सामाजिक, सियासी चेतना फैलाने का काम करते रहे।

यहीं नहीं जब भी समाज और देश को उनकी जरूरत हुई, तो वे इसके लिए आगे निकलकर आए। चाहे स्कूल बनवाने के वास्ते हो या फिर चीन, पाकिस्तान के आक्रमण के समय देश के युद्ध कोष में मदद करने की बात हो, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए उन्होंने हमेशा चंदा इकट्ठा किया। और अपनी ओर से मदद की।

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प्रकाशित रचनाएं

मेहबूब हुसेन पटेल, अमर शेख कैसे हुए? इसके पीछे यह किस्सा है कि मराठी सिनेमा के मशहूर निर्देशक मास्टर विनायक ने जब उन्हें अपनी फिल्म में अदाकारी के लिए लिया, तो इनका नाम अमर शेख रख दिया और यहीं से मेहबूब हुसेन पटेल, अमर शेख हो गए।

लोक शाहीर अमर शेख के गीत-कविताओं की तीन किताबे हैं। जिनमें पहली किताब ‘अमर गीत’ है, जिसमें उनके गीत शामिल हैं। आजादी से पहले आई यह किताब, अंग्रेज हुकूमत ने जब्त कर ली थी। बाद में साल 1951 में यह किताब दोबारा प्रकाशित हुई। उनकी दूसरी किताब ‘कलश’ है। इसमें ज्यादातर उनकी कविताएं, तो कुछ पोवाड़े हैं।

साल 1963 में आई, ‘धरती माता’ उनकी तीसरी किताब है। इस किताब में लावड़ी, पोवाड़ा और कविताएं शामिल हैं। कविताओं और गीत के अलावा अमर शेख ने दो नाटक ‘पहला बलि’ और ‘झगड़ा’ भी लिखे। ‘झगड़ा’ नाटक के लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला।

‘पाथरवड’, ‘ढोंगी’, ‘मोरीवाली’, ‘जलधारा नो’, ‘बेड़ी आई’, ‘कोकिले’ और ‘पृथ्वी से प्रेमगीत’ अमर शेख की चर्चित कविताएं हैं। इन कविताओं में सामाजिक-आर्थिक विषमता, जातिवाद, वर्गभेद, सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों पर तो प्रहार है ही, जनता को शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने का पैगाम भी है।

उनकी कविताओं और गीत में स्त्री का सम्मान और प्रकृति का शानदार चित्रण भी मिलता है। जहां तक अमर शेख को कोई पुरस्कार या सम्मान देने का सवाल है, तो उनके महाराष्ट्र और देश के लिए इतने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक योगदान के बावजूद, उन्हें न तो महाराष्ट्र सरकार ने और न ही किसी भी केन्द्र सरकार ने सम्मान के काबिल समझा।

अमर शेख के गांव बार्शी में जरूर उनका स्टेच्यू और मुंबई यूनीवर्सिटी में एक कक्ष का नाम, उनके नाम पर है। सत्ता और सियासी पार्टियों ने भले ही अमर शेख को भुला दिया हो, लेकिन सूबे के सर्वहारा वर्ग में अमर शेख का नाम पूरे अकीदे और उनके काम को शिद्दत से याद किया जाता है। यही एक सच्चे कलाकार की जिन्दगी का हासिल है।

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क्यों रहे उपेक्षित?

कॉमरेड आचार्य अत्रे, ने अमर शेख के साहित्य पर लिखा है, “अमर शेख की कविताओं में सामाजिक चेतना और वर्ग चेतना का दर्शन होता है।” वहीं आचार्य माधव पोतदार की राय है, “अमर शेख का मानवता पर अमिट प्रेम था, लेकिन उनके साहित्य में क्रांति की आवाज भी है।”

अमर शेख के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित किताब ‘संग्राम कवि अमर शेख’ के लेखक डॉ. अकरम पठान कहते हैं, “अमर शेख एक क्रांतिकारी शख्सियत थे। उन्होंने अपनी शायरी से समाज में चेतना पैदा करने का काम किया और शोषण करने वालों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।”

मराठी भाषा के इतने सशक्त कवि होने के बाद भी अमर शेख को मराठी साहित्य में वह मान्यता नहीं मिली, जिसके कि वे वास्तविक हकदार थे। मराठी साहित्य के मूर्धन्य आलोचकों ने यदि उन्हें साहित्यकार ही नहीं माना, तो कहीं न कहीं इसके पीछे उनके पूर्वग्रह भी हैं। इतनी शानदार और हंगामेदार जिन्दगी होने के बाद भी अमर शेख पर हिंदी में भले ही अभी तलक कोई किताब नहीं आ पाई हो, लेकिन मराठी भाषा में उन पर काफी काम हुआ है।

डॉ. अकरम पठान ने अमर शेख के जीवन और उनकी कविताओं पर एक बेहतरीन किताब ‘संग्राम कवि अमर शेख’ (मराठी) लिखी है। जिसमें उन्होंने अमर शेख के साहित्य का सशक्त मूल्यांकन किया है। यही नहीं आचार्य माधव पोतदार, डॉ. अजीज नदाफ और शब्बीर मुलानी ने भी अपनी किताबों में अमर शेख की कविताओं और गीतों पर विस्तार से बात की है।

अमर शेख ने साहित्यिक और समाजी कामों की शुरुआत, अपने जिगरी दोस्त अन्ना भाऊ साठे के साथ की। उनके साथ अपनी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा बिताया। यह महज इत्तेफाक है कि अन्ना भाऊ साठे के निधन 18 जुलाई, 1969 के एक महीने बाद ही 29 अगस्त, 1969 को महज 53 साल की उम्र में अमर शेख ने भी इस दुनिया से अपनी विदाई ले ली। उनकी मौत एक दुर्घटना में हुई। वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में कहीं जा रहे थे कि उनकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई और इस दुर्घटना ने इस अजीम लोक शाहीर को हमसे हमेशा के लिए छीन लिया।

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