आधुनिक रंगकर्म के अध्ययन के बाद अपने नाटकों में देशज रंग-पद्धति अपनाने वाले हबीब मानते थे, “पश्चिम से उधार लेकर उसकी नकल वाले शहरी थिएटर का स्वरूप अपूर्ण और अपर्याप्त है, साथ ही सामाजिक अपेक्षाएं पूरी करने, जीवन के ढंग, सांस्कृतिक चलन को प्रदर्शित करने में अक्षम हैं। भारतीय संस्कृति के बहुआयामी पक्षों की सच्ची और साफ़ छाया लोक नाटकों में ही देखी-पाई जा सकती है।”
उनकी इस सोच का ही नतीजा था कि उनके कामयाब नाटक या तो लोक नाटक हैं या फिर उनमें लोक नाट्य तत्वों की भरमार है। लोक से उनका लगाव रुमानी नहीं था, बल्कि वे इसे दिल से जीते थे। छत्तीसगढ़ के अनगढ़ लोक कलाकारों को उन्होंने एक बार अपने नाटक में शामिल किया, तो ये कलाकार हमेशा के लिए उनके थिएटर का हिस्सा हो गए।
उन्होंने रंगमंच में प्रचलित तमाम धाराओं के बरक्स एक अलग ही तरह की रंगभाषा ईजाद की। एक नया रंग मुहावरा गढ़ा। लोक भाषा तथा दीगर मानक भाषाओं के बीच आवाजाही के रिश्ते से बनी हबीब तनवीर की रंग भाषा, आगे चलकर नए सौन्दर्यशास्त्र का आधार बनी।
नाटक में जिस लोकधर्मी ख़्याल का हम तसव्वुर करते हैं, कमोबेश उनके सभी नाटकों में मौजूद है। हालांकि इसमें जोख़िम था, मगर वे इसमें न सिर्फ कामयाब हुए, बल्कि भारतीय रंगमंच में एक नई ‘हबीब तनवीर’ शैली चल निकली।
जीते जी गाथा पुरुष बन जाने वाले हबीब तनवीर ने जब रंगमंच की दुनिया में आए, तमाम नामचीन नाटककार पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे थे। इस लिहाज से देखें, तो उनका लोक रूपों, लोक संस्कृति और प्रदर्शन में दिलचस्पी लेना उस वक्त के हिसाब से क्रांतिकारी कदम था। दरअसल, लोक संस्कृति को लेकर उनका नज़रिया अपने समकालीनों से बिल्कुल जुदा था।
लोक की जानिब तनवीर का ये नज़रिया वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहने की वजह से बना था। अपने शुरुआती दौर में उन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ यानी ‘इप्टा’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में सक्रिय रूप से भागीदारी की थी।
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पत्रकार से नाटककार
बीसवीं सदी के चौथे दशक में मुल्क के अंदर ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक’ अपने उरूज पर थी। तनवीर भी आज़ादी की जद्दोजहद के उस दौर में इप्टा का हिस्सा थे। जन आंदोलन के दौरान साथियों की गिरफ़्तारी के बाद हालात कुछ ऐसे बने कि इप्टा की सारी ज़िम्मेदारी उन पर आ गई।
1948-50 के बीच उन्होंने नाटक लिखने के साथ-साथ उनका निर्देशन भी किया। ‘ए लाईफ इन थिएटर’ में हबीब तनवीर लिखते हैं, “दरअसल निर्देशन मुझ पर आरोपित किया गया। वह मेरा चुनाव नहीं था, मेरा चुनाव तो अभिनय था।”
1 सितम्बर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब अहमद ख़ान की शुरुआती तालीम रायपुर में ही हुई। शायरी से लगाव के चलते ‘तनवीर’ उन्होंने अपना तख़ल्लुस चुना। नाटक में पूरी तरह उतर जाने के बाद शायरी तो उनसे काफी पीछे छूट गई। अलबत्ता ‘तनवीर’ उनके नाम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया।
उन्हें बचपन से नाटकों और फ़िल्मों का शौक था, ख़ासकर पारसी थिएटर उन्हें ख़ूब आकर्षित करता था। बड़े भाई की रंगकर्म में सक्रियता ने उन्हें भी नाटक के प्रति उत्साहित किया। बारह साल की उम्र में उन्होंने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘किंग जॉन’ में प्रिंस आर्थर का क़िरदार निभाया।
पढ़ाई के साथ-साथ शायरी और अभिनय का उनका शौक परवान चढ़ता रहा। नागपुर के मॉरिस कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। बाद में एम.ए. उर्दू के लिए अलीगढ़ गए और फ़िल्मों का शौक उन्हें आख़िरकार मुंबई ले गया।
मुंबई में पैर जमाने के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया। कई छोटे-मोटे काम किए, आकाशवाणी में संगीतात्मक रूपक, पत्र-पत्रिकाओं में फ़िल्मी समीक्षा, विज्ञापन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट वगैरह लिखीं। थोड़े अरसे के बाद उन्हें फ़िल्मों में भी मौक़ा मिल गया। उन्होंने फ़िल्मों में अदाकारी की और कई फ़िल्मों के गाने और संवाद भी लिखे।
मुंबई में फ़िल्मों और पत्रकारिता में मसरूफियत के बावजूद हबीब ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘इप्टा’ से जुड़े रहे। सज्जाद जहीर के घर होने वाली बैठकों में वे बराबर शरीक होते और पुरक़शिश आवाज़ में शायरी पढ़ते।
उनकी छह ग़ज़लें, अली सरदार जाफरी द्वारा संपादित उर्दू के मकबूल रिसाले ‘नया अदब’ में एक साथ शाया हुईं। ‘शांतिदूत कामगार’ उनका लिखा और निर्देशित पहला नाटक था।
प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘शतरंज के मोहरे’, कृश्न चंदर का नाटक ‘मेरा गांव’, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘दंगा’, विश्वनाथ आदिल का ‘दिन की एक रात’ का उन्होंने इन्हीं दिनों निर्देशन किया। फ़िल्मी दुनिया से हबीब तनवीर का मोह भंग जल्दी ही हो गया।
इस बारे में अपने आत्मकथा ‘ए लाईफ इन थिएटर’ में वह लिखते हैं, “जो भी हो सही या गलत, मैं इस बात पर मुतमईन था कि मेरे पास कहने के लिए कुछ था, जैसा भी हो और जो कुछ भी कहना था, सौन्दर्यशास्त्र में, प्रदर्शनकारी कलाओं में और साथ ही सामाजिक रूप से, राजनैतिक नज़रिये से उसका माध्यम सिनेमा नहीं था, वह थिएटर था, यह एक साफ़ बोध था मन में, पांचवें दशक के प्रारम्भिक दिनों में, जो मुझे दिल्ली ले आया।”
बहरहाल, दिल्ली आकर उन्होंने अपना नाटक ‘शतरंज के मोहरे’ दोबारा लिखा और इसमें ख़ालिस लखनवी उर्दू ज़बान का इस्तेमाल किया। नाटक इस बार ज्यादा कामयाब साबित हुआ।
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आगरा बाज़ार से मिली शोहरत
साल 1954 में लिखा ‘आगरा बाज़ार’ वह नाटक था, जिसने हबीब तनवीर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। अठारहवीं सदी के मशहूर अवामी शायर नज़ीर अकबरावादी की ज़िंदगी और रचनाओं पर आधारित नाटक ‘आगरा बाज़ार’ में उन्होंने न सिर्फ़ आम आदमी की ज़िंदगी और उसके रोजमर्रा के सरोकारों को अपना विषय बनाया, बल्कि लेखन में भी वह मुहावरा और तरीका बरता, जो पारंपरिक अभिजन कविता के आदाब और मौजू के बिल्कुल ख़िलाफ़ था।
वह दौर था जब हिन्दोस्ताँनी रंगमंच में अपनी मिट्टी से जुड़ाव और शैली का डंका पीटने वाले नारे और मुहावरे ईजाद नहीं हुए थे। ‘आगरा बाज़ार’ मुल्क के रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ।
नाटक ‘आगरा बाज़ार’ हबीब तनवीर के उन दो मरकजी रुझानों की ओर इशारा करता है, जो आगे चलकर उनके सारे नाटकों में दिखाई दिए। पहला, विचारधारा और कलागत स्तर, उनका लोक जीवन, आम आदमी की ओर झुकाव। दूसरा, नाटक में शायरी और संगीत का इस्तेमाल।
अपनी संगीतमयी प्रस्तुतियों के बारे में उनका कहना था, “मेरी प्रस्तुतियां संगीत प्रधान इसलिए भी रहीं हैं कि दोनों चीज़ों में मेरा थोड़ा बहुत दखल है, शायरी में भी और उसके बाद संगीत में।” बचपन में सुने सौ-दो सौ छत्तीसगढ़ी लोक गीत तो उन्हें मुंहजब़ानी याद थे।
‘आगरा बाज़ार’ की जबरदस्त कामयाबी के बाद तनवीर पेशेवर थिएटर की अपनी योजना को साकार करने में जुट गए। उनकी इस योजना को अमलीजामा पहनाने में बेगम कुदसिया ज़ैदी ने मदद की। थिएटर के लिए जरूरी स्क्रिप्ट बैंक और पैसे जुटाने की ज़िम्मेदारी बेगम जैदी ने अपने ज़िम्मे ले ली।
इस तरह साल 1955 में दिल्ली का पहला व्यावसायिक थिएटर ‘हिन्दोस्ताँनी थिएटर’ अस्तित्व में आया। इसके लिए तनवीर कोई नाटक निर्देशित करते, इससे पहले थिएटर की आला तालीम के इरादे से लंदन पहुंच गए।
ब्रिटिश काउंसिल की स्कॉलरशिप और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन की आर्थिक मदद से उन्होंने लंदन के ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ में दाखिला ले लिया। यूरोप में वह तीन साल रहे और इस दौरान उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को करीब से देखा।
बर्लिन में आठ महीनों के प्रवास में उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख़्त की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। ब्रेख़्त के नाटकों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा और उनके नाटकों में इसकी छाप देखी भी जा सकती है।
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भारतीयता को नाटकों में ढ़ाला
भारत वापसी पर उनकी पहली प्रस्तुति हिन्दोस्ताँनी थिएटर के बैनर पर हुई। शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के हिन्दी अनुवाद ‘मिट्टी की गाड़ी’ को उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ रंगमंच पर उतारा। इस नाटक में उन्होंने पूरी तरह से लोक रंगमंच की पारंपरिक शैली और तकनीक का प्रयोग किया। नाटक को एक ख़ास भारतीयता में ढाला। नाटक बेहद मकबूल हुआ।
लोक के अदब और रिवायतों से उन्हें बहुत लगाव था। उन्होंने कई लोक कथाओं को विकसित कर नाटक में तब्दील किया। मसलन ‘जालीदार पर्दे’ रूसी लोक कथा पर आधारित है, तो ‘सात पैसे’ चेकोस्लोवाकिया की लोक कथा, ‘अर्जुन का सारथी’ छत्तीसगढ़ी कहानी।
‘गांव क नांव ससुराल, मोर नांव दामाद’ छत्तीसगढ़ी लोक कथा, ‘ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह’ राजस्थानी लोक कथा, ‘चरनदास चोर’ राजस्थानी लोक कथा, ‘बहादुर कलारिन’ छत्तीसगढ़ी लोक कथा, ‘सोनसागर’ बिहारी लोक कथा, ‘हिरमा की अमर कहानी’ आदिवासी लोक कथा पर आधारित नाटक हैं।
इन नाटकों की ख़ासियत यह है कि हबीब ने इन लोक कथाओं को सीधे-सीधे ड्रामे में तब्दील नहीं किया है, बल्कि लोक कथा के केंद्रीय विचार को लेकर अपने हिसाब से नाटक में विस्तारित किया। इम्प्रोवाईज किया। यही नहीं इन नाटकों को उन्होंने मौजूदा परिवेश से भी जोड़ा, जो लोगों को ख़ूब पसंद आया।
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संगीत नाटक अकादमी
बेगम ज़ैदी और उनके ‘हिन्दोस्ताँनी थिएटर’ से हबीब का साथ ज्यादा लंबा नहीं चला। बेगम ज़ैदी से वैचारिक मतभेद के चलते, उन्होंने हिन्दोस्ताँनी थिएटर छोड़ दिया और इस तरह साल 1959 में ‘नया थिएटर’ की नींव पड़ी।
अदाकारा और निर्देशक मोनिका मिश्रा, जो बाद में उनकी शरीके हयात बनीं, समेत नौ लोगों ने ‘नया थिएटर’ की बाक़ायदा शुरुआत कर दी। ‘सात पैसे’, ‘रुस्तम सोहराब’, मोलियर का ‘द बुर्जुआ जेंटलमैन’, ‘मेरे बाद’ वगैरह ‘नया थिएटर’ के शुरूआती नाटक थे।
उन दिनों नाटक के साथ-साथ वह पत्रकारिता भी करते रहे। ‘लिंक’, ‘स्टेटसमैन’, ‘पैट्रिएट’ के लिये उन्होंने फिल्म समीक्षा, नाट्य समीक्षा आदि लिखीं।
कुछ बरस तक सोवियत प्रकाशन विभाग में वरिष्ठ संपादक के पद पर भी रहे। साल 1970 में सरकार ने उनकी नाट्य सेवा का सम्मान करते हुये ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार से नवाजा।
नाटक ‘चरनदास चोर’ तक आते-आते हबीर तनवीर ने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। उनके नाटक ख़ालिस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में खेले जाते। ‘अर्जुन का सारथी’, ‘गौरी-गौरा’, ‘चपरासी’, ‘गांव के नांव ससुराल, मोर नांव दामाद’ आदि नाटक पूरी तरह से छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य शैली नाचा में खेले गए।
इन नाटकों को महानगरीय दर्शकों ने भी ख़ूब सराहा। साल 1975 में ‘चरनदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली। इसके बाद उन्होंने अपनी शैली को बिल्कुल नहीं बदला और आख़िर तक इसी शैली में नाटक खेलते रहे। नाटक ‘चरनदास चोर’ के कथ्य की ताज़गी और आकर्षक पेशकश ने पूरे मुल्क में तहलका मचा दिया।
एक शुद्ध लोक कहानी को बिल्कुल नया रूप देकर, मौजूदा हालात से जोड़कर कैसे सामायिक बनाया जा सकता है, इसकी एक शानदार मिसाल है – ‘चरनदास चोर’। साल 1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरनदास चोर’ की कामयाबी ने हबीर तनवीर और नया थिएटर को नए मुक़ाम तक पहुंचाया। ‘चरनदास चोर’ के ज़रिए उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंग-पद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है।
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आधुनिक दृष्टि वाले निर्देशक
हबीब तनवीर का रंगमंच सिर्फ लोक रंगमंच ही नहीं था, बल्कि वह आधुनिक रंगमंच भी था। तनवीर आधुनिक दृष्टि वाले नाट्य निर्देशक थे। उनके पास इतिहास और सियासत की गहरी समझ थी। उनका लोक कला में दिलचस्पी लेना और लोक मुहावरों में काम करना, वैचारिक फ़ैसला था। और अपने इस फ़ैसले पर वे हमेशा कायम रहे।
‘आगरा बाज़ार’ से लेकर ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ तक उन्होंने दर्जन भर से ज्यादा अर्थपूर्ण नाटक लिखे और निर्देशित किए। अपने नाटकों के जरिये वे दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ, उन्हें सम-सामायिक मुद्दों से भी जोड़ते रहे। उनके हर नाटक में एक मक़सद है, जो नाटक के अंदर अंतर्धारा की तरह बहता है।
मसलन ‘आगरा बाज़ार’ में भाषा और अदब के जानिब कुलीन और जनवादी नज़रियों के बीच कशमकश है, तो ‘चरनदास चोर’ सत्ता, प्रशासन और व्यवस्था पर सवाल उठाता है। ‘हिरमा की अमर कहानी’ और स्टीफन ज्वाईंग की कहानी पर आधारित ‘देख रहे हैं नयन’ सियासी नाटक हैं, जो हर दौर में सामायिक रहेंगे।
‘बहादुर कलारिन’ में वे सामंतवाद पर वार करते हैं। ‘जित लाहौर नहीं देख्या, वो जन्मा ही नईं’ हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर और ‘पोंगा पंडित’ समाज में व्याप्त छुआ-छूत को उजागर करता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में वे समाज को लोकसत्ता से जोड़ने की ठोस कोशिश करते हैं।
ऐसा नाटक जिसका कोई मकसद न हो, हबीब तनवीर उसके ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था, “क्लासिक ड्रामे चाहे यहां के हों या पश्चिम के, अगर उनमें समाज के प्रति जागरूकता के आसार और समझ को झंझोड़ने की ताकत नहीं हैं, तो वो मात्र ऐशो-आराम को ही बढ़ावा देंगे।”
2009 ‘नया थिएटर’ का गोल्डन जुबली साल था। हबीब तनवीर की ख़्वाहिश थी कि ‘नया थिएटर’ की गोल्डन जुबली धूमधाम से मनाई जाए। अपने आत्मकथा के दूसरे भाग पर भी वह काम कर रहे थे, लेकिन उनकी ये ख़्वाहिशें अधूरी ही रह गईं। 8 जून, 2009 को हबीब तनवीर दुनिया के रंगमंच से रुख़सत हो गए।
जाते जाते :
- देव आनंद फिल्म इंडस्ट्री के ‘रूमानियत का बादशाह’
- राजेश खन्ना अद्भूत लोकप्रियता हासिल करने वाले सुपरस्टार
- जब दिलीप कुमार ने महाराष्ट्र में चलाया मुस्लिम ओबीसी आंदोलन
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।