फकरुद्दीन बेन्नूर : मुसलमानों के समाजी भाष्यकार

देश में हिन्दुत्वप्रणित संघठनों का आतंक जब अपनी चरम पर था, ठिक उसी समय सामाजिक सौहार्द और सद्भावना के बानी प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर इस दुनिया से चल बसें। आज उनके निधन को दो साल पूरे हुए हैं। इस बिच मुसलमानों के दुख और दर्द पर खुलकर बात करनेवाला कोई हिमायती समाज से नहीं निकला। ऐसे में प्रो. बेन्नूर का याद आना लाजमी हैं।

प्रो. बेन्नूर उस सौहार्द और बहुसांस्कृतिकता के प्रतिनिधी थे, जिसे भारत कि प्राचीन सभ्यता कहा जाता हैं। गंगा-जमुनी परंपरा, सामाजिक न्याय, अंतरधार्मिक संवाद एवं सामाजिक उत्थान उनके लेखों का आशय रहता। सूफी परंपरा के वे अध्येता थे।   

25 नवंबर 1938 में महाराष्ट्र के सातारा में जन्मे बेन्नूर लोकतांत्रिक राजनीति के तटस्थ चिकित्सक माने जाते हैं। उन्होंने सरेउम्र सामाजिक सौहार्द के साथ समाजवाद, गांधीवाद, वामपंथी विचारो को आगे लेकर जाने का काम किया। वे किसी भी राजनीतिक विचारधारा के अंधभक्त नही बने। बल्की उन्होंने समय समय पर उसकी कठोर समीक्षा भी की हैं।

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परंपरावादी धारणाओं के आलोचक

शुरुआत में सोलापूर जिला न्यायालय में कारकून थे। बाद में पुणे के सेना कैम्प बतौर क्लार्क नोकरी की, उसके बाद उन्होंने 1966 में लातूर के एक कॉलेज राजनीति विज्ञान के अध्यापक के रूप में कार्य शुरु किया। एक साल बाद वे सौलापूर लौट आये वहाँ के संगमेश्वर कॉलेज अध्यापन शुरू किया। 1998 तक अपने रिटायरमेंट तक वे यहीं रहे।

सोलापूर जिला न्यायालय में केंद्रीय गृहमंत्री सुशीलकुमार शिंदे उनके सहयोगी थे। शिंदे उनके करीबी मित्रों से थे। 1970 के दशक में उन्होंने समसामाईक विषयों पर लिखना शुरू किया। मुस्लिम राजनीति, हिन्दु-मुस्लिम सौहार्द, सूफी-संत परंपरा, मुसलमानों के रूढी तथा परंपरा पर लिखते रहे है।

बेन्नूर मुसलमानों में पनपती परंपरावादी धारणाओ के सख्त आलोचक रहे। उनका मानना था की, यहां के मुसलमानों का रहन-सहन, अरबों जैसा न होकर आम भारतीयों जैसा हैं, इसलिए प्रादेशिक हैं।

भारत के मुसलमान होमोजिनाईज हैं इस भ्रम को लेकर उन्होने तिखा प्रहार किया हैं, उनका मानना था कि, ‘भारत के मुसलमान किसी सुरत में एक जैसे नही हैं, उनके विविध प्रांतो तथा राज्यो की प्रादेशिकता भरी हैं, वे किसी भी सुरत में अरबो जैसे नही हैं। भारतीय मुसलमानो धर्म तो अरबी हैं, पर उनका रहन सहन और जिन्दगी विशुद्ध भारतीय हैं। वे कभी गुजराती हैं, तो कभी असमी तो कभी मराठी हैं। भारत में रहे विविध प्रदेशो में बसे मुसलमानो की प्रादेशिकता ही उनकी एक अलग पहचान हैं।

बेन्नूर इस्लामिक फिलोसॉफी के सहिष्णु मूल्यों के प्रचारक भी थे। इस्लाम और पवित्र कुरआन में उल्लेखित संदेशो को उन्होंने अपने लेखों मे उकेरा हैं। उनके इस्लामी अध्ययन पर असगरअली इंजिनिअर का काफी प्रभाव रहा हैं। उन्होंने फिलोसॉफी के साथ पॉलिटिकल इस्लाम का भी गहराई अध्ययन किया था।

वे कहते थे कि इस्लाम तो सभी धर्मों की तरह बराबरीइखलास, एकता और भाईचारे का संदेश देता है। उनके मुताबिक सभी की खुशहाली, समानता, मानवीयता, प्रेमभाव और एकता के लिए काम करना हर व्यक्ती का परम कर्तव्य होना चाहीए।

महिलाओं के अधिकार के पक्षधर थे। कुरआन में महिलाओं को दिए गए स्थान और अधिकारों को लेकर उन्होंने काफी बहस की हैं। उनका मानना था की, इस्लाम में स्त्री और पुरुष के बीच कोई भेद नहीं है। अल्लाह के सामने दोनों ही बराबर हैं।

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सुधारवादी संघटक

भारतीय मुसलमानों का रहन-सहन, उनकी जातीयाँ, भारतीय लोकतंत्र, प्रतिगामी राजनिती की वैश्विक व्याख्या इनके कई लेखो में पाई जाती हैं। सामंती राज, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, अरब वर्ल्ड और अन्य भाषाई विषयो पर उनका गहरा अध्ययन था।

उनके निजी ग्रंथागार में दुनिया भर से जमा की गई कई हजार किताबे मौजूद थी, जिसे उनके परिवार द्वारा आज भी संजो कर रखा गया हैं। अंग्रेजी, हिन्दी और मराठी के कई महत्त्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ उनके ग्रंथागार में थे। 

बेन्नूर 70 के दशक में महाराष्ट्र समाजवादी आंदोलनों के संघटकों द्वारा चलाये सुधारवादी मुहीम से जुडे। पर मुसलमानों के प्रति उनकी हीन भावना और गैरजिम्मेदाराना दृष्टिकोण के चलते वे जल्द उससे बाहर निकल आये।

इसकी वजह बताते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा कुदरत में विस्तार से लिखा हैं। फुले-शाहू-अम्बेडकर विचारधारा के साथ मिलकर उन्होंने कई सामाजिक सुधार के कार्यक्रम चलाए। वे दलित पँथर के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। कई सालों तक उन्होंने इस संघठन के सोलापूर युनिट का काम किया।

फकरुद्दीन बेन्नूर एक कठोर आलोचक और चिंतनशील विचारक थे। बेबाकी उनका मिजाज था। वे किसी का मुलाहिजा नही रखते, लगत बात को लगत साबि करने के लिए उन्हें दलीले नहीं देनी पडती।

कहते हैं, चरमपंथ के आरोपो में जब मुसलमानों को सताया जा रहा था, तब उन्होंने उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री और अपने करीबी मित्र सुशीलकुमार शिंदे को काफी खरी खोटी सुनाई थी। जिसके चलते दोनो कई दिनों तक नाराजगी थी रही।

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प्रकाशित किताबे

मुस्लिम समुदाय के समाजी समस्या को लेकर उन्होंने 7 किताबे लिखी। इसके अलावा इन्होंने कई प्रतिष्टित पत्रिका और अखबारों में हजारों लेख लिखे। उन्होंने ज्यादातर मराठी में ही लिखा। उनके लेख अंग्रेजी पुस्तको में अनुवाद किए जा चुके हैं। उसी तरह उनके लेख हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित हुए हैं। 

मरहूम बेन्नूर राजनीति विज्ञान के साथ वह इतिहास के भी चिंतक थे। मध्यकालीन इतिहास पर उनकी अच्छी पकड थी। उपनिवेशवादी इतिहासशास्त्र की कूटनीति पर उन्होंने काफी कुछ लिखा हैं। मध्यकाल का इतिहास, मुगल सल्तनत, अरब जगत, मध्य-पूर्व का इस्लामी शासन उनके पसंदिदा विषय रहे हैं। 

सामंती व्यवस्था, पूंजीवाद, उपनिवेशवाद, विभाजन, हिन्दुत्व की राजनीति भी उन्होंने काफी लिखा हैं। 1998 में प्रकाशित उनकी किताब भारतीय मुसलमानो की मानसिकता और सामाजिक संरचनाकाफी सराई गई। इस किताब को लेकर उत्तर, मध्य भारत से लेकर दक्षिण भारत तक चर्चा चली। इसको पहल प्रकाशन के प्रकाशित किया था। उदय प्रकाश, कमलेश्वर ने इस किताब को काफी सराहा था।

इसमें बेन्नूर नें गैरमुस्लिमो से विनती की हैं की, इस्लाम को लेकर नही बल्की एक समाज के तौर पर मुसलमानों के बारे सोंचना होंगा। भारतीय मुसलमानो होमोजिनियस यानी एकसंधता पर तिखा हमला किया। भारतीय मुसलमान अरबो से अलग हैं, मराठी मुसलमानो की इतिहास, संत और सुफी परंपरा को नये से पेश किया। उनका कहेना था, मुसलमानों के प्रादेशिकता, समाजरचना, जातियता, बहुलता और धार्मिकता को समझे बगैर इस समाज को नहीं समझा जा सकता।

उनकी एक अन्य किताब हिन्द स्वराज्य गांधीवादी वामपंथ की चर्चा करती हैं। गांधींजी के मुसलमानों के प्रति विचार, इस्लाम और इतिहासशास्त्र पर बहस करती यह किताब 2010 में प्रकाशित हुई। जिसका सुधारित संस्करण 2018 में उनके निधन क एक हफ्ते पहले प्रकाशित हुआ।

दुसरी अन्य किताब मुस्लिम राजकीय विचारको पर लिखी हैं। जिसे मुंबई के विकास अध्ययन केंद्र ने हिन्दी में छापा हैं। इसमें उन्होंने आलम खुंदमिरी, मौलाना हसरत मोहानी, एम.ए. अन्सारी के काँग्रेस के राजनिती की चर्चा की हैं।

साथ ही मौलाना हुसेन मदनी, तुफैल अहमद मंगलोरी, के, एम, अशरफ, रफिक ज़कारिया, असगर अली इंजिनिअर का सटीक व्यक्तिचित्रण किया हैं। मुसलमानों की राजनीति और उसकी लाचारी को समझने के लिए यह किताब काफी उपयुक्त हैं। उनके अन्य किताबों मे हिन्दुत्व, मुस्लिम आणि वास्तव, आधुनिक भारतातील मुस्लिम विचारवंत, सुफी संपद्राय आणि वांड्मय प्रवाह, गुलमोहर आदी। 

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साहित्य आंदोलन कि स्थापना

1989 मे उन्होंने मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की बुनियाद रखी। इस आंदोलन से मराठी मुसलमानों कि भाषाई पहचान और उनकी सामाजिक संरचना पर बहस शुरु की। साथ ही मुसलमानों के प्रादेशिकता को दर्शाते हुए उनकी भाषाई खुबीयों कि चर्चा की हैं। इस विषय पर लिखी उनकी मराठी किताब मुसलमानों कि भाषा, संस्कृति, सभ्यता के साथ ढांचागत बुनियाद के अस्तित्व को दर्शाती हैं।

उनके इस साहित्य आंदोलन ने कई नव-युवको को लिखने के लिए प्रेरित किया। जिसके चलते दलित साहित्य के तरह ही मराठी मुसलमानों के समस्या को रेखांकित करना शुरू हुआ। इस आंदोलन ने मुसलमानों के जातिप्रथा को सामने लाया। जिसे लेकर आगे ओबीसी मुसलमानो का आंदोलन खडा हुआ।

1995 में बेन्नूर ने मुस्लिम ओबीसी आंदोलन को खडा किया। असगरअली इंजिनिअर ने टाईम्स ऑफ इंडिया, प्रफुल्ल बिडवई ने दि हिन्दू और फकरुद्दीन बेन्नूर ने मराठी के अखबारो में मुसलमानों के जाति प्रथा पर लेख सिरिज चलाई। इस आंदोलन नें उत्तर भारत के पसमांदा आंदोलन को इंधन देने का काम किया। जिसे बाद में समुचे भारत को हिला कर रख दिया। 

मुस्लिम ओबीसी आंदोलन ने महाराष्ट्र के इमाम, धर्मगुरू के बांछे हिल गई। प्रदेश कि सरकार ने पिछडे मुसलमानों की नए से गणना कर उन्हें सरकारी सहुलते प्रदान की। 2006 में स्थापित सच्चर आयोग ने मुस्लिम ओबीसी और पसमांदा आंदोलन के मांगो को जगह दी, मुसलमानो को शिक्षा मे आरक्षण की बात रखी।

2015 में फकरूद्दीन बेन्नूर ने महाराष्ट्रीन मुस्लिम आरक्षण आंदोलन की नींव रखी, इस संघठन नें मुसलमानो के आर्थिक पिछडेपन की मांगे सरकार से समक्ष रखी, शिक्षा में आरक्षण, लघु उद्योगो के लिए कर्ज सुविधा आदी मांगो को लेकर राज्यभर कई आंदोलन किये।

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बेबाक इन्सान

प्रो. बेन्नूर ने अपने जीवन में हजारों छोटे-बड़े कार्यकर्ता तैयार किये हैं। विशेषकर महिला एक्टिविस्ट के लिए वे प्रेरणा और उत्साह का स्रोत बने। हमेशा मुस्कुराता चेहरा, नये विचारो का आदर, उन्हे समझने की जुगत मे वे हमेशा रहते। उन्हें ज्ञान का घमंड बिलकुल नही था। नये लोगों से वे घंटो बात करते।

सोशल साईंटिस्ट  इम्तियाज अहमद, इतिहासकार मुशिरुल हसन, प्रो. रणधीर सिंह, उदय प्रकाश, उनके करीबी मित्रों मे से थे। महाराष्ट्र में डॉ. मोईन शाकिर, रफिक ज़कारिया, असगर अली इंजिनियर, सूर्यनारायण रणसुभे, यशवंत सुमत, अशोक चौसालकर से उनकी काफी अच्छी बनती थी। अपने काम को लेकर उन्होंने देश-विदेश के दोरे भी किए। राज्य सरकार द्वारा संचालित कई अभ्यास मंडलों पे उन्होंने अपनी भागिदारी निभाई।


उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी लिखना और सामजिक सुधार क प्रति समर्पित की थी। उनका व्यक्तित्व एक तरफ बेबाक, सख्त तो दूसरी और रहमदिल था। जो व्यक्ति वैचारिकता में तोलमोल करता, इसे वे कतई पसंद नही करते। हिन्दुवादी विचारधारा के वे कट्टर आलोचक थे।

छिपे सुधारवादी तथा अपने आप को प्रोग्रेसिव्ह कहने वालो लोगों के इस्लाम और मराठी मुसलमानों के देखने के नजरिए पर उन्होंने सिधा हमला किया। फिर भी सब लोग उनका आदर करते। भारतीय राजनीति क उनके देखने का नजरिया द़ूरदृष्टीवाला था। भारतीयता और उसकी बहुल्यवाद के वे हिमायती थे। मुसलमानों का अस्तित्व खतरें

बेन्नूर अपनी आखरी सांस फासिवादी ताकतों से लडते रहे। वे इस्लाम के नाम पर मुसलमानो में जारी परंपरा और रूढि़वादीता पर प्रहार करते रहे। अंतिम समय तक वे धर्मावलंबीयों के प्रतिगामी विचारों के खिलाफ खड़े रहे। इसके चलते धर्मगुरुओं के निशाने पर हमेशा रहे, उनके खिलाफ सामाजिक बहिष्कार का आह्वान किया। पर वे अपने विचारो पर डँटे रहे।

उनके लिखे विचार भारत और मुस्लिम कौम के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित हुए हैं। 17 अगस्त 2018 को सोलापूर में लंबे बिमारी के बाद उनका निधन हुआ। सामाजिक सौहार्द, गंगा-जमुनी परंपरा के बानी और बेबाक इन्सान को भावभिनी श्रद्धांजली…

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