अगर आप सोच रहे हैं कि किसी भी शहर का नाम बदलने के ऐलान के साथ ही उस का नाम बदल जाता है तो आप गलत हैं। किसी भी शहर का नाम बदलने के लिए एक प्रक्रिया का पालन किया जाता है। बिना यह प्रक्रिया अपनाए कोई सरकार किसी भी शहर या जिले का नाम नहीं बदल सकती है। केंद्र सरकार की ओर से इस के लिए गाइडलाइन जारी की गई है। किसी भी राज्य का नाम बदलने के लिए भी सरकार को इसी प्रक्रिया से हो कर गुजरना पड़ता है लेकिन इस के लिए केंद्र की सहमति जरूरी होती है।
पहले जिला स्तर पर (चाहे पंचायत हो या नगर निगम) प्रस्ताव पारित होता है और उस के बाद राज्य सरकार में जाता है। किसी भी शहर या जिले का नाम बदलने के लिए यह जरूरी है कि कोई विधायक या एमएलसी इस के लिए सरकार से मांग करे। बिना मांग के सरकार आगे कदम नहीं बढ़ाती।
विधायक जब इस बाबत कोई मांग करता है तो सरकार इस संबंध में जनता क्या चाहती है? यह भी जानने की कोशिश करती है। प्रशासन नाम बदलने के संबंध में पूरा डिटेल मांगता है। इतना ही नहीं शहर के नाम का इतिहास भी खंगाला जाता है। इस के बाद शहर या जिले का नाम बदलने का प्रस्ताव कैबिनेट में रखा जाता है।
कैबिनेट में प्रस्ताव पास होने के बाद बदले नाम पर मुहर लग जाती है। राज्य विधानसभा से होते हुए सरकार की सहमति के बाद केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के पास यह प्रस्ताव जाता है और वह अन्य मंत्रालय जैसे रेल मंत्रालय, डाक विभाग, सर्वेक्षण विभाग से रिपोर्ट मंगाता है और तब केंद्र इस पर अपनी मोहर लगाता है।
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नाम बदलने की प्रक्रिया
केंद्र की सहमति के बिना यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती। नाम बदलने का निर्णय पास होने के बाद फिर से नए नाम का गजट कराया जाता है। गजट कराने के बाद सरकारी दस्तावेजों से नए नाम लिखे जाने की शुरूआत हो जाती है और इस तरह किसी शहर या जिले का नया नामकरण हो जाता है। केंद्र सरकार के पास 50 से अधिक ऐसे प्रस्ताव अभी विचाराधीन हैं।
राज्यों के नाम बदलने के लिए प्रक्रिया थोड़ी लंबी है। शहर की तरह सरकारें किसी राज्य का नाम भी बदल सकती हैं। भारत के किसी भी राज्य का नाम बदलने का जिक्र संविधान के आर्टिकल तीन व चार में है। किसी भी राज्य का नाम बदलने के लिए सब से पहले संसद या राज्य की विधानसभा से इस प्रक्रिया की शुरूआत की जाती है। इस के बिना यह प्रक्रिया प्रारंभ भी नहीं की जा सकती।
- राज्य का नाम बदलने संबंधी बिल संसद में लाया जाता है। इस के लिए राष्ट्रपति की सहमति भी जरूरी होती है।
- बिल लाने से पहले राष्ट्रपति द्वारा बिल को संबंधित राज्य की असेंबली को भेज कर राय मांगते हैं। इस के लिए एक समयसीमा निर्धारित होती है। हालांकि राज्य की राय राष्ट्रपति या संसद के लिए बाध्यकारी नहीं होती।
- इस बिल को संसद के दोनों सदनों से पास कराने के बाद राष्ट्रपति के पास अप्रुवल के लिए भेज दिया जाता है।
- राष्ट्रपति के अप्रुवल के बाद राज्य का नाम बदल जाता है फिर समस्त दस्तावेजों में नए नामकरण को दर्ज किया जाने लगता है।
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि इस प्रक्रिया में पूरी तरह से धन तथा श्रम का नुकसान होता है।
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नाम बदलने के रणनीति
सवाल ये उठता है कि किसी शहर का नाम बदलने की राजनीति या ऐसी चर्चा को बार-बार उछालने से सरकार या फिर हिंदुत्ववादी संगठनों को क्या हासिल होगा? क्या इस का नाता चुनावों में हिंदुत्व एजेंडे को बढ़ाने से जुड़ा हो सकता है? चुनाव में जाने से पहले इन राजनीतिक दलों में कहीं ना कहीं आत्मविश्वास की कमी दिखती है और वो धार्मिक ध्रुवीकरण चाहते है। वो चाहते है कि ऐसा विवाद उठे जिस से बहस हिंदू-मुसलमान पर सिमट जाए और वर्तमान के ज्वलंत मुद्दे – जैसे बेरोज़गारी, महंगाई या कानून व्यवस्था इन सब से लोगों का ध्यान हट जाए।
दरअसल जिलों, शहरों या राज्यों का नाम बदलने के पीछे सिर्फ एक रणनीति काम करती है और वह है वोट की राजनीति। मायावती ने भी जिलों के गठन और उन के नाम बदलने का सिलसिला इसी आधार पर किया था। यह बात दूसरी है कि बाद में अखिलेश यादव की सरकार ने कई पुराने नाम बहाल कर दिए थे।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने वोट आधार को मजबूत करने के लिए यह सिलसिला शुरू किया और विवाद की हद तक आगे गए। उन्होंने यह सभी नाम महान हस्तियों, जाति प्रतीक पुरुषों के नाम पर रखने का सिलसिला 2019 के चुनाव से पूर्व शुरू किया था और अब फिर आगे बढ़ रहा है।
खास तौर से वे नाम बदले जा रहे हैं जो मुगल काल में रखे गए थे। योगी का तो यहां तक मानना था कि नाम में बहुत कुछ है। आखिर लोग अपने बच्चों के नाम रावण और दुर्योधन क्यों नहीं रखते? दूसरी तरफ यह भी तर्क दिया जाता है कि मुगल काल के दौरान भी इलाहाबाद में कुंभ होता रहा या किसी मुगल शासक ने काशी या बनारस का नाम बदलने की कोशिश नहीं की। ऐसे बहुत सारे परिवर्तन सिर्फ वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए किए जाते हैं। यह बात दूसरी है कि बहुत सारी ऐसी कोशिशें परवान नहीं चढ़तीं। केंद्र सरकार भी इन बातों को समझती है।
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आम लोगों पर असर
किसी भी शहर का नाम बदलने पर उस का सीधा असर आम लोगों पर ही पड़ता है। जब किसी भी शहर का नाम बदला जाता है तो वहां मौजूद सभी बैंक, रेलवे स्टेशन, ट्रेनों, थानों, बस अड्डों, स्कूलों-कॉलेजों को अपनी स्टेशनरी व बोर्ड में लिखे पतों पर जिले का नाम बदलना पड़ता है। इन संस्थानों से जुड़ी वेबसाइट के नाम भी बदलने पड़ते हैं। इस के साथ ही आम लोगों को अपने दस्तावेज भी बदलने पड़ते हैं।
किसी जिले, स्थान, शहर, गली या राज्य के नाम में बदलाव का खर्च वहां की भौगोलिक स्थिति, दफ्तरों की संख्या, वाहनों की संख्या जैसी कई बातों पर निर्भर करता है। लेकिन मोटा-मोटी खर्च का अंदाजा लगाएं तो यह 200 करोड़ से 500 करोड़ या उस से भी अधिक हो सकता है।
राज्य की जहां तक बात है तो उस के नामकरण का खर्च उस के आकार, क्षेत्रफल और यहां तक कि देश-दुनिया में उस की ख्याति पर निर्भर करता है। नए नाम के अनुरूप रोड साइनेज सिस्टम, हाईवे मार्क, मैप्स, राज्य की आधिकारिक स्टेशनरी और नागरिक अधिकारियों को अपडेट करने पर पैसा खर्च किया जाता है। शहर या राज्य की दुकानें, व्यवसाय और कॉरपोरेट घराने भी नाम में बदलाव का पालन करने के लिए इसी तरह की कवायद करते हैं।
एक ज़िले में 70 से 90 तक सरकारी डिपार्टमेंट्स होते हैं। सूचना मिलते ही इन सभी विभागों के चालू दस्तावेज़ों में नाम बदलने का काम शुरू हो जाता है। सभी सरकारी बोर्डों पर नया नाम लिखवाया जाता है। सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों को अपने साइन बोर्ड्स बदलवाने पड़ते हैं।
ज़िले में स्थित सभी बैंक, थाने, बस अड्डे, स्कूलों-कॉलेजों को अपनी स्टेशनरी व बोर्ड में लिखे पते पर ज़िले का नाम बदलना पड़ता है। पुरानी स्टेशनरी और मोहरें बेकार हो जाती हैं। राज्य सचिवालय को भी उस ज़िले के बारे में अपने रिकॉर्ड्स बदलने पड़ते हैं। केंद्र सरकार, रेलवे और चुनाव आयोग को सूचना भेजनी होती है। यदि कोई ज़िला या शहर अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर हो तब तो और मुश्किलें आती हैं, इस की अपनी जटिलताएं हैं।
जाते जाते :
लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।