क्या राजद्रोह कानूनों को खत्म कर देना चाहिये?

सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर से राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर सुनवाई होनी है। चीफ जस्टिस एन.वी. रमणा, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच इस पर सुनवाई करेगी। राजद्रोह कानून को लेकर पिछले साल जुलाई में भी सुप्रीम कोर्ट ने अहम टिप्पणी की थी।

तब चीफ जस्टिस एन.वी. रमणा ने पूछा था कि, “आजादी के 75 साल बाद भी इस कानून की जरूरत क्यों है?” उस समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘ये एक औपनिवेशिक कानून है। ये स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए था। इसी कानून का इस्तेमाल महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ किया गया था।

“क्या आजादी के 75 साल बाद भी इस कानून की जरूरत है?” तब चीफ जस्टिस रमणा ने कहा था कि, “सरकार कई सारे पुराने कानूनों को निरस्त कर रही है तो फिर धारा 124A को निरस्त करने पर विचार क्यों नहीं कर रही?” इस पर अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा था कि, “कानून को निरस्त करने की जरूरत नहीं है और गाइडलाइन बनाई जानी चाहिए, ताकि इसका कानूनी मकसद पूरा हो सके।”

देश में देशद्रोह या राजद्रोह की धारा के इस्तेमाल को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि, “इस धारा का इस्तेमाल व्यक्तियों और पार्टियों के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है।”

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क़ानून के खिलाफ दलीलें

सत्ता के खिलाफ लिखने, बोलने या दृश्य फिल्म की प्रस्तुति पर प्रतिबंध प्रथमदृष्टया वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन माना जाता है। यद्यपि वैधानिक साधनों से सरकार का विरोध करना इस धारा के अधीन अपराध नहीं माना गया है, किंतु समस्या यह है कि वह वैधानिक साधन क्या है, यह स्पष्ट नहीं है।

अतः राजद्रोह से संबंधित आई.पी.सी. की धारा 124 (A) अपनी परिभाषा में अपूर्ण और अस्पष्ट है तथा यह कभी-कभी औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान बने काले कानून की पुनरावृत्ति नज़र आती है। उल्लेखनीय है कि जे.एन.यू. में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार छात्रों के मामले में 17 महीने के बाद भी पुलिस कोई चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई थी।

1870 में संभावित विद्रोह के डर से औपनिवेशिक शासकों द्वारा देशद्रोह कानून को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में शामिल किया गया था। आज़ादी के बाद इसे खत्म किये जाने के मांगों के बावजूद, यह आज भी कानून की किताबों में बना हुआ है।

उल्लेखनीय है कि तब देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने कहा था कि इन कानूनों से जितनी जल्दी मुक्ति मिल जाए उतना ही अच्छा है। आज सरकारों के बीच यह कानून इतना लोकप्रिय हो गया है कि तमिलनाडु के कुंडकुलम में एक गाँव पर इसलिये देशद्रोह कानून थोप दिया गया था, क्योंकि वे वहाँ परमाणु सयंत्र बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे।

इतना ही नहीं, वर्ष 2014 में झारखण्ड में तो विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी देशद्रोह कानून चलाया गया था। दरअसल, राजद्रोह का कानून भारत के औपनिवेशिक शासनकाल की निशानी है, जहां सत्ता प्रतिष्ठान आंदोलित जनता के खिलाफ इसका इस्तेमाल करता था। अतीत में भी, जब भी किसी के ऊपर इस धारा को लगाया गया, संबंधित एजेंसियों के लिये इसे जायज़ ठहराना टेढ़ी खीर साबित हुआ है।

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क़ानून के समर्थन में दलीले

जैसे- जैसे दुनिया आधुनिक होती जा रही है, ठीक वैसे-वैसे किसी राष्ट्र की सुरक्षा चुनौतियाँ भी गंभीर होती जा रही हैं। ऐसे में यह पहचान करना मुश्किल है कि वे कौन लोग हैं, जो राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता से खिलवाड़ करना चाहते हैं। आई.बी. की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बहुत से ऐसे एन.जी.ओ. हैं, जो राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। ऐसे में वह देशद्रोह कानून ही है जो इन पर लगाम लगाता है।

राजद्रोह कानूनों को खत्म करने की वकालत करने वाले लोगों का तर्क यह है कि इस कानून का दुरुपयोग किया जाता है। यह तर्क अपने आप में इस बात का सूचक है कि इस कानून की कुछ तो उपयोगिता है ही। इस संबध में माननीय सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी कानून के दुरूपयोग की संभावना ही उस कानून के निरस्तीकरण का कारण नहीं बन सकती।

राजद्रोह कानून के विरोधी अक्सर दावा करते हैं कि आई.पी.सी. की धारा 124 (A), अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ की भावना के प्रतिकूल है। अनुच्छेद 19 ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ की बात करता है और इसका नियम 1 (ए) कहता है कि “सभी नागरिकों को बोलने का और अभिव्यक्ति का अधिकार होगा”, किंतु इस स्वतंत्र वाणी अथवा अभिव्यक्ति पर निश्चित प्रतिबंध भी लगाता है।

खेलों की बात करें तो भारत-पाकिस्तान के बीच किसी मैच के दौरान मुहंमद आमिर की गेंदबाज़ी की तारीफ करना या फिर सोहेल अब्बास के गोल पर ताली बजाना देशद्रोह नहीं है, लेकिन किसी भारतीय नागरिक के पाकिस्तान जिंदाबाद बोलने से आपसी सौहार्द बिगड़ता है और देश की सुरक्षा के प्रति चुनौतियाँ खड़ी होती हैं तो ऐसे में राजद्रोह कानूनों की प्रासंगिकता तो बनी रहनी चाहिये।

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बीच की राह

एक लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राजद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधानों के बीच अक्सर तनाव उभरता रहता है। ग़ौरतलब है कि जब भी इस तरह का मामला प्रकाश में आता है तो देश में इस बात को लेकर एक ज़ोरदार बहस छिड़ जाती है कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है, तो फिर सरकार या नेताओं की आलोचना करना, सरकारी नीतियों या प्रशासनिक अधिकारियों की बुराई करना राजद्रोह क्यों और कैसे है?

ऐसे में, कुछ लोग तो अति उत्साह में एक लोकतांत्रिक देश में राजद्रोह या देशद्रोह से संबंधित कानूनों को ही पूर्णतया अनावश्यक करार दे देते हैं। उनका तर्क होता है कि लोकतंत्र में विरोध करना या अपनी बात कहना, जनता का बुनियादी हक है और लोकतंत्र की सार्थकता इसी से सिद्ध होती है। फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार किस आधार पर अपने ही नागरिकों को देशद्रोही साबित करने हेतु औपनिवेशिक कानून का पोषण करती है?

जबकि इस मामले में सरकार के तर्क में मुख्य चिंता उग्रवादियों, चरमपंथीयों और किसी भी प्रकार के अतिवाद से उत्पन्न होने वाले खतरे से देश को बचाए रखने की होती है।

बेशक, सरकार या सरकारी नीतियों की आलोचना करना राजद्रोह कतई नहीं कहा जा सकता है, लेकिन राजद्रोह का मुकदमा तभी दायर होना चाहिये, जब किसी व्यक्ति या किसी समूह द्वारा देश की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर सवाल खड़ा किया जाए।

वहीं यदि हम केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले की बात करें तो पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 124 (ए) को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था। उसने कहा था कि यह प्रावधान अभिव्यक्ति एवं वाणी की मूलभूत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तो लगाता है, किंतु वे प्रतिबंध “सार्वजनिक व्यवस्था के हित में हैं तथा मूलभूत अधिकारों में जिस विधायी हस्तक्षेप की अनुमति है, उसी के दायरे में हैं।”

अदालत ने यह साफ किया था कि राजद्रोह का अपराध तभी माना जाएगा, यदि वह अपराध “हिंसक तरीकों से सरकार का तख्ता पलटने” के इरादे से किया गया हो। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि “सरकारी नीतियों के प्रति असंतोष जताने के लिये अथवा उनमें सुधार की माँग करते हुए कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना राजद्रोह नहीं कहा जाएगा।

लेकिन इस बात की कल्पना करना कठिन है कि भारत के विखंडन की अपील करना या अपनी हरकतों से अप्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हजारों निर्दोषों की जान लेने वाले चरमपंथीयों की प्रशंसा करना ‘केवल कड़े शब्दों का इस्तेमाल’ कैसे माना जा सकता है? इस प्रकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित करना राष्ट्र के विखंडन को न्योता देना होगा।

शासन चाहे किसी भी प्रवृत्ति का हो, हर प्रकार की व्यवस्था में शासन के खिलाफ आवाज़ उठाना दंडनीय अपराध माना जाता रहा है। भारत में भी प्राचीन और मध्यकाल में यह किसी-न-किसी रूप में मौजूद था। आधुनिक काल में, जब 1860 में भारतीय दंड संहिता बनाई गई तो उसके बाद राजद्रोह संबंधी प्रावधानों को धारा 124 (A) के अंतर्गत स्थान दिया गया। बहरहाल, वह दौर औपनिवेशिक शासन का था और उस समय ब्रिटिश भारत सरकार का विरोध करना देशभक्ति का पर्याय माना जाता था।

दरअसल, हमें यह समझना होगा कि न तो सरकार और राज्य एक हैं, और न ही सरकार तथा देश। सरकारें आती-जाती रहती हैं, जबकि राज्य बना रहता है। राज्य संविधान, कानून और सेना से चलता है, जबकि राष्ट्र अथवा देश एक भावना है, जिसके मूल में राष्ट्रीयता का भाव होता है।

इसलिये कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि राजद्रोह राष्ट्रभक्ति के लिये आवश्यक हो जाए। ऐसी परिस्थिति में सरकार की आलोचना नागरिकों का पुनीत कर्त्तव्य होता है। अतः सत्तापक्ष को धारा 124 (A) दुरुपयोग नहीं करना चाहिये। सच कहें तो देशद्रोह शब्द एक सूक्ष्म अर्थों वाला शब्द है, जिससे संबंधित कानूनों का सावधानी पूर्वक इस्तेमाल किया जाना चाहिये। यह एक तोप के समान है, जिसका प्रयोग राष्ट्रहित में किया जाना चाहिये न कि चूहे मारने के लिये, अन्यथा हम अपना ही घर तोड़ बैठेंगे।

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