दकनी सुलतानों को ‘गरीबों का दोस्त’ क्यों बुलाते थे?

ध्यकाल में दकन सांस्कृतिक केंद्र बन कर उभरा। जिसमें मुग़लों के साथ कई दकनी सल्तनतों ने इसके विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

गोलकुंडा कि कुतुबशाही और बीजापुर कि आदिलशाही तथा अहमदनगर की निजामशाही ने दकन में कई सांस्कृतिक मापदंड खडे किये। जिनमें से कुछ को तो आज तक अजिमोश्शान विरासत के रूप में संजोये गए हैं।

दकनी राज्यों को अनेक सांस्कृतिक योगदानों का श्रेय प्राप्त है। दकनी इतिहासकार मानते हैं की, अली आदिलशाह को हिन्दू और मुस्लिम संतों से चर्चाएँ करना पसंद था और उसे सूफ़ी कहा जाता था। उसने अकबर से भी पहले कैथलिक मिशनरियों को अपने दरबार में बुलाया था।

सतीशचंद्र ने लिखा हैं, उसके पास एक उम्दा पुस्तकालय था जिसमें उसने संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान वामन पंडित को नियुक्त किया था।

इसके अलावा इसके ग्रंथालय में उर्दू, फ़ारसी और मराठी के कई महत्त्वपूर्ण किताबे मौजूद थी। उसके बाद उसके आये सुलतानों और अधिकारियों ने भी संस्कृत एवं मराठी को संरक्षण देना जारी रखा।

इतिहासकार मानते हैं, उसे अली आदिलशाह के दौर मे और उसके बाद भी क्षेत्रीयता और प्रादेशिकता को बढ़ावा

दिया गया। उसका उत्तराधिकारी इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1580-1627) नौ साल की उम्र में गद्दी पर बैठा।

लिखा हैं, वह गरीबों पर बहुत मेहरबान था। उसे लोग अबला बाबा यानी गरीबों का दोस्त बुलाते थे। संगीत में उसकी खास दिलचस्पी थी और उसने एक किताब किताब ए नवरस शीर्षक से लिखी थी, जिसमें विभिन्न संगीत के रागों पर गीत लिखे गए थे।

उसने कला और संगीत को समर्पित नवरसपुर नाम का एक शहर भी बसाया। जिसे उसने सांस्कृतिक राजधानी के रूप में पहचान दिलाई। इस शहर में भातर के विभिन्न प्रदेशों तथा बाहर से कलाकारों की आमद रहती। उसने आधिकारिक रूप से कलाकारों को यहां आने के लिए न्यौता दिया।

पढ़े : औरंगाबाद के इतिहास को कितना जानते हैं आप?

पढ़े : आगरा किला कैसे बना दिल्ली सुलतानों की राजधानी?

पढ़े : कंगन बेचकर मिली रकम से बना था ‘बीबी का मक़बरा’

जगतगुरुकहलाया

इब्राहिम आदिलशाह के बुलाने पर बड़ी संख्या चित्रकार, संगीतकार, शायर तथा अदीब यहाँ पधारे। उसने अपने रचे गीतों में संगीत और ज्ञान की देवी सरस्वती की खुलकर प्रशंसा की हैं। अपने उदार दृष्टिकोण के वजह वह जगतगुरुकहलाया। आज भी उसको दकन मे बड़ा सम्मान हैं। खास बात ये हैं कि इसके नाम का एक मंदिर भी बना हैं।

इब्राहिम आदिलशाह बारे में इतिहासकार लिखते हैं, वह मुसलमान सूफ़ीयों के साथ हिंदू संतों और मंदिरों समेत सभी को संरक्षण देता था। उसने मंदिरों को भी कई प्रकार के दान दिए हैं। जिसमें वह दान भी शामिल था, जो विठोबा की आराधना के पंढरपुर को दिया गया था।

कहते हैं, आज भी ये दान विठोबा के वार्षिक उत्सव में पंढरपूर मे दिया जाता हैं। मध्यकाल में पंढरपूर महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का केंद्र बन गया था। इब्राहिम आदिलशाह की उदार, सहिष्णु नीति को उसके बाद उसके उत्तराधिकारी सुलतान और अधिकारीयों ने भी जारी रखा।

अहमदनगर सल्तनत की सेवा में मराठा परिवारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। अहमद निजामशाह तथा उसके बाद आये सुलतानों ने यहां के सांस्कृतिक धरोहर को बनाने का काम किया। सुलताना चांदबिबी तो अपनी विरासत और संस्कृति बचाने के लिए मुग़लो के खिलाफ दटकर खडी रही।

निजामशाही सल्तनत ने कई आलिशान इमारतों का निर्माण किया, उसी तरह सांस्कृतिक सभ्यता को नये से स्थापित किया। जिसमे संगीत, कला और साहित्य को उभारा। इतना ही नये ग्रंथगार और ज्ञान परंपरा विकसित करने के लिए विश्वविद्यालयो का निर्माण किया। मलिक अम्बर के दौर में आर्थिक विकास के साथ सल्तनता का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास भी तेजी से हुआ।

पढ़े : कंगन बेचकर मिली रकम से बना था ‘बीबी का मक़बरा’

पढ़े : दकन की शिक्षा नीति का नायक था महेमूद गवान

पढ़े : हसन गंगू कैसे बना नौकर से बहामनी का सुलतान?

संस्कृतिकर्मीयों का शरणस्थल

गोलकुंडा के कुतुबशाह कहे जानेवाले शासक भी सैनिक, प्रशासनिक और कूटनीतिक उद्देश्यों से हिंदू-मुसलमान, दोनों को अपने दरबार में रखते थे। अधिकारीयों के तौर पर नियुक्त किये गये यह लोग उनकी संस्कृति और भाषा को संजोए थे। जिसका अच्छा असर इन सल्तनतों के प्रशासनिक और सामाजिक व्यवहार पर पड़ा।

इतिहासकार सतीशचंद्र अपनी किताब मध्यकालीन भारत मे लिखते हैं, इब्राहिम कुतुबशाह (मौत- 1580) के राज्य में मुरहरी राव पेशवा के पद तक पहुँचा। यह पद मीर जुमला या वज़ीर के पद के ही नीचे था। जब से यह राजवंश कायम हुआ राज्य में नायकवारी, जो सैनिक एवं भूस्वामी तत्त्व थे, एक ताकत बनकर उभरे। 1672 से लेकर 1687 में मुगलों के अधिकार में जाने तक राज्य के प्रशासनिक और सैनिक मामलों पर दो भाइयों मदन्ना और अकन्ना का वर्चस्व था।

कहते है, गोलकुंडा साहित्यकारों, विद्वानों और संस्कृतिकर्मीयों का शरणस्थल था। अकबर के समकालीन सुल्तान मुहंमद कुली कुतुबशाह साहित्य और वास्तुकला का बेहद शौकीन था। कवि मन का होने के वजह से अन्य धर्मो के प्रति उसे काफी आत्मियता थी।

साहित्यकार तथा आलोचक मानते हैं की, वह दकनी का एक उम्दा कवि था। दकनी भाषा को उत्तर भारत में ले जाने का श्रेय कुली कुतुबशाह को ही जाता हैं। वह दकनी उर्दू, फ़ारसी और तेलुगू में रचना करता था और पीछे एक बड़ा सा दीवान (काव्यसंग्रह) छोड़ गया है।

उसने अपनी कविताओं मे सामाजिक सदभाव, एकात्मता और धर्मनिरपेक्षता के सुर को एकसाथ लाकर पेश किया। इतिसकार मानते हैं कि, ऐसा करने वाला उस जमाने का वह पहला शायर था। उसने अपने कविताओ में केवल अल्लाह और पैगम्बर की स्तुति ही नही की बल्कि क्षेत्रीय भाषा, संस्कृति तथा सहन-सहन को रेखांकित किया।

पढ़े : मौसिखी और अदब कि गहरी समझ रखने वाले आदिलशाही शासक

पढ़े : शिक्षा की विरासत लिए खडी हैं आदिलशाही लायब्ररियाँ

पढ़े : दकनी सभ्यता में बसी हैं कुतुबशाही सुलतानों कि शायरी

उर्दू का विकास

उसने प्रकृति, प्रेम और अपने समय के सामाजिक जीवन के बारे में काफी कुछ लिखा है। सतीशचंद्र लिखते हैं, दकनी रूप में उर्दू का विकास इस काल का एक महत्त्वपूर्ण विकास क्रम है। मुहंमद कुली कुतबशाह के उत्तराधिकारियों तथा उस काल के दूसरे बहुत से कवियों और लेखकों ने भी एक साहित्यिक भाषा के रूप में उर्दू को अपनाया।

स्थानीय भाषा के अलावा फ़ारसी, दकनी और उर्दू को उसने बढ़ावा दिया। इन भाषाई लेखकों ने रूपों, मुहावरों और विषयों के लिए तथा शब्दभंडार के लिए भी हिंदी और तेलुगू पर भरोसा किया। बीजापुरी दरबार ने भी स्थानीय भाषाओं के साथ उर्दू को संरक्षण दिया था।

कुतुबशाही दौर में नुसरती महाकवि थे। जिन्हें सत्रहवीं सदी के मध्य के प्रसिद्ध शायर के रुप में मान्यता हैं। उन्होंने कनकनगर के शासक राजा मनोहर और मधुमालती की प्रेमगाथा लिखी है। दकन से उर्दू अठारहवीं सदी में उत्तर भारत आई।

पढ़े : दकनी को बड़ा ओहदा दिलाने वाले तीन कुतुबशाही कवि

पढ़े : आसिफीया सुलतान मीर कमरुद्दीन की शायरी

पढ़े : कुतूबशाही और आदिलशाही में मर्सिए का चलन

अद्भूत वास्तुशैली

सम्राट अकबर कि तरह कुली कुतुबशाह भी एक उंचे दर्जे का वास्तुकार था। उसके दौर में कई आलिशान इमारतों का निर्माण गोलकुंडा में हुआ। जिनमें सबसे मशहूर चारमीनार है। 1591-92 में पूरी होने वाली यह इमारत मुहंमद कुली कुतुबशाह के बसाए हुए नए नगर हैदराबाद के मध्य में स्थित है। जो आज भी अपनी अच्छी स्थिती में खड़ी हैं।

इस इमारत में चार ऊँची मेहराबें हैं, जो चार दिशाओं में हैं। उसके सौंदर्य का मुख्य आकर्षण चार मीनारें हैं, जो चारमंजिला और 48 मीटर ऊँची हैं। मेहराबों के दोहरे पर्दे पर बारीक नक्काशी की गई है। बाद में उसमें बड़ी सी घडिया बैठाई गयी हैं, जो आज भी शहर का प्रमाण समय बताती हैं।

कुतुबशाह के दौर में शहर के नदियों का विकास किया गया। तथा उनके उपर कई सुंदर पूल भी बनाये गए हैं। औरंगजेब के हमले के दौरान उस समय के शासक अबू हसन तानाशाह के सल्तनत के साथ शहर के खुबसुरती को भी दाग लगा। मगर बाद में आये निजामी हुकूमत में इस शहर कि पुरानी शोभा फिर से लौट आयी। और शहर और भी सुंदर हो गया।

सतीशचंद्र लिखते हैं, बीजापुर के शासकों ने वास्तुकला में हमेशा एक ऊँचे मानदंड और एक बेदाग सुरुचि का परिचय दिया। इस काल की बीजापुरी इमारतों में सबसे मशहूर इब्राहिम रौजा और गोल गुंबद हैं। इब्राहिम रौजाइब्राहिम आदिलशाह का मकबरा है और इसकी शैली अपनी निखार की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई है।

दकनी इतिहासकार मानते हैं, की शाहजहान नें विश्वप्रसिद्ध ताजमहल की कल्पना यही से उठाई हैं। यह इमारत काले पत्थर मे बनाई गयी एक खुबसुरत धरोहर हैं। जिसके चारों कोनों मे लंबी मिनारे हैं। इसकी बनावट और डिझाईन और सुंदरता बिलकूल वैसी ही जैसी ताजमल की दिखती हैं। शहर के मध्य मे स्थित यह खुबसुरत मकबरा देखने दूर दूर से सैलानी आते हैं।

विश्वप्रसिद्ध गोल गुंबद का निर्माण 1660 में हुआ था। आज भी यह इमारत दुनिया में अव्वल दर्जे की कहलाती हैं। कहते हैं, इसका गुंबद दुनिया से सबसे बड़ा हैं। इसके तमाम भागों में संतुलन है तथा विशाल गुंबद को कोनों पर स्थित लंबी, पतली होती जाती मीनारें संतुलित किए हुए हैं। कहते हैं कि इस बडे हॉल में एक कोने में कोई फुसफुसाए तो दूसरे छोर पर वह साफ़ सुनाई देता है।

पढ़े : आज भी अपनी महानतम सभ्यता को संजोए खडा हैं परंडा किला

पढ़े : उदगीर – बरिदीया इतिहास का अहम शहर

पढ़े : औरंगाबाद के वली दकनी उर्दू शायरी के ‘बाबा आदम’ थें

चित्रकला के नये अयाम

दकन में चित्रकला भी फली-फूली और इब्राहिम आदिलशाह (1580-1627) के दौर में अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुंची। साथ ही साहित्यिक परंपरा भी अपने उच्चतम मानक प्राप्त कर उत्तर के सिमाओ का लांघकर बाहर भी चली गयी। जिसके बारें मे फरिश्ता ने अपने प्रवास वर्णन में काफी कुछ लिखा हैं।

आगे मुग़लिया सुलतानों के सम्राज्यवादी अजेंडो ने दकन कि सांस्कृतिक छवी को बेहद नुकसान पहुँचाया। एक वक्त ऐसा आया जब मुग़लो के विरोध के लिए इन तिनों सल्तनतो ने एकसाथ आकर दूश्मनों का मुकाबला किया।

बहुत से इतिहासकार मानते हैं की, गर दकन मे मुग़ल नही आते तो यहां कि संस्कृति और समाज विश्व का एकमात्र मोलजोल वाला और बहुसभ्यता वाला समुदाय होता। जहां कभी कोई सांप्रदायिक बवाल या झमेला नही हो सकता था।

ऐसा नही की मुग़लो ने भी यहां के सांस्कृतिक विरासत पुरी तरह बरबाद किया। बल्कि उन्होंने भी इसको संजोने का और सहजने का काम किया। पर उन्होंने इस काम को शासक के रूप में अंजाम दिया, लिहाजा दकन के सुलतान और शासक इसे अपनी माँ, अपना वतन, अपना धर्म, अपनी मिट्टी मानकर इसको संवारने के लिए प्रतिबद्ध थे।

Share on Facebook