कुतूबशाही और आदिलशाही में मर्सिए का चलन

रबला के शहिदों की याद में मर्सिए (शोक गीत) लिखने का रिवाज सदियों से चला आ रहा है। मध्यकालीन भारत में लिखे कई मर्सिए आज भी मौजूद हैं। मध्यकाल से ही दकनी जुबान और अदब का मर्सिए एक अहम हिस्सा हैं। दकनी के साथ यह मर्सिए उर्दू में भी काफी लोकप्रिय हैं।

दकनी जुबान की शुरुआत के संबंध कई मतभेद हैं। मगर दकनी के विकास में कुतूबशाही सुलतानों के योगदान को कोई इनकार नहीं सकता। कुली कुतूबशाह को दकनी के पहले चरण के प्रमुख कवियों में स्थान है। इसने सेकडों मर्सिए भी लिखे हैं। जिन में से कुछ दकन में आज भी गाये जाते हैं।

क्या हैं मर्सिए?

मर्सिए आम तौर पर मरे हुए शख्स की खुबीयां बयान करने के लिए लिखे जाते हैं। अजहर अली फारुखी मर्सिए के अभ्यासक हैं, उन्होंने उर्दू मर्सियाकिताब लिखी है। फारुखी के अनुसार मर्सिया शब्द रसा इस धातू से बना हुआ है। इसका मतलब मय्यत पर रोना होता है। अरबो में मर्सिया लिखने का रिवाज आम था।

किसी करीबी शख्स का निधन होता तो मर्सिए लिखे जाते या फिर लिखवाए जाते थे। मगर करबला कि अजीम जंग के बाद अरबस्तान के बाहर मर्सिए सिर्फ इमाम हुसैन और उनके साथ मारे गए शहीदों की याद में लिखे जाने लगे। मगर अरबों में आज भी गैर करबलाई लोगों पर भी मर्सिए लिखे जाते हैं।

उम्मेहानी अशरफ ने अपनी किताब उर्दू मर्सिहानिगारीइस किताब में मर्सिए की खुसुसियात बयान कि हैं वो लिखती हैं, “मर्सिए का सबसे बडा कमाल यह है की, इसमें एक ही वक्त में शायरी कि सारी खासियत समायी हुई है। मिसाल के तौर पर मसनवी में जिस तरह वाकिआत सिलसिले के साथ बयान किए जाते हैं, यही सुरत मर्सिए में होती है। इसलिए खुसिसियत के लेहाज से मर्सिए को मसनवीं कहा जा सकता है। कुछ मर्सियानिगारों मसनवीं की शक्ल में लंबे मर्सिए लिखे हैं।

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कुतूबशाही मर्सिए

कुतूबशाही दौर में मसनवी की तरह मर्सिआनिगारी कि भी शुरुआत हुई। मुहंमद कुली कुतूबशाह को कुछ विद्वान उर्दू का पहला शायर कहते हैं, इसी कारण उनका मानना है की, वह भारत में उर्दू का पहला मर्सिएनिगार हैं। लेकिन फ्रेंच विद्वान गारसा दतासी इससे सहमत नहीं है, वो नुरी को उर्दू का पहिला मर्सिएनिगार कहते हैं।

मगर नसिरुद्दीन हाशमी का तर्क दातासी के मतों को खारीज करता है। वह नूर सरहारमसनवीं लिखनेवाले शेख अशरफ को पहला मर्सिएनिगार मानते हैं। अपने तर्क के समर्थन में हाशमी ने शेख अशरफ की शहादतनामाइस मसनवीं का हवाला दिया है।

यह मसनवीं ईसवीं सन 1503 में लिखी गयी है। मगर शहादतनामा की लैखनशैली पर कई विद्वानों ने सवाल उठाया है। जिस वजह से किसी एक तर्क को अंतिम मानना ठिक नहीं रहेगा। मगर इस बात से किसी को असहमती हो नहीं सकती की, यह तीनों उर्दू के शुरुआती दौर के मर्सिएनिगार हैं।

सय्यदा जाफर ने कुली कुतुबशाह के नजमों, गजलों, शायरी और मर्सिए का संकलन  कुल्लियात ए कुतूबशाह संपादित किया है। इसमें उर्दू के विख्यात अभ्यासक मोहियोद्दीन कादरी जोरकुतुबशाह के मर्सिए के बारे में लिखते हैं, ‘मुहंमद कुली मजलिस ए अजामें अपने मर्सिए खुद सुनाया करता था। अपने कलाम के साथ वह बज्म ए गम’ (गम की महफील) से मुख़ातिब होता था।उसका एक मर्सिया है-

आओ मिलकर मातमिया सब इस गमां थें लहुवा वें

वा अमामा या अमामा याद कर कर दिल खोएं

आह हमारे दर्द थे दरियां कूं सब जोश होता

मातमिया के लहू बंदा थे आग सब बुझ जाता

एक दुसरे मर्सिए में कुली कुतुब सारी दुनिया के परिंदों को शहादत ए हुसैन के गम में शरीक करता है,

देखो तुम्हे ऐ मांसा दाने चरें न पंख्या

धरती है मातम की, दिखाँ धरती बिचारे वाए वाए

हजरत फातिमा जो इमाम हुसैन कि मां हैं, उनका दर्द बयान करते हुए कुली लिखता है।

लहू रोती हैं बीबी फातिमा अपने हसीना तैं

और लहू लाली का रंग सातु गगन अपराल छाया है।

मोहर्रम के गम में कुतुबशाह ने कुछ शायरी भी लिखी है। उसमे से एक शेर यह है-

किया है महामानी यूं अमामा का मुहर्रम तूं

जंगल में करबला के सब बलायां को बुलाया है।

मुसलमानां कूं नहीं है इस बराबर कोई बला जग में

के अंजू अन के लहू सिती प्याले भर पिलाया है।

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आदिलशाही मर्सिए

जिस तरह हैदराबाद में मोहर्रम कि अपनी संस्कृति है उसी तरह बिजापूर भी मोहर्रम और शिया तहजीब का केंद्र रहा है। बिजापूर कि आदिलशाही का संस्थापक यूसुफ आदिलशाह खुद एक शायर था।

उसके बाद अली और इब्राहिम आदिलशाह (दुसरा) यह दो सुलतान दकनी के काफी मशहूर शायर माने जाते हैं। आदिलशाही दरबार के कुछ शायर भी मर्सिएनिगारी के लिए जाने जाते हैं, जिनमें नुरी का नाम विख्यात है, वह अपने एक मर्सिए में लिखता है,

कोई नजम इसमें तो करता न था                 

दुल्हे सब तआस्सुब दिया हम मिटा

न कुछ खौफ खाया न झिझका जरा              

दहम मर्सिए से बहल कर दिया।

शुरु में किया नजम कुल वाकिआ   

दहम तक अहवाल पुरा लिखा

जब इसकूं लोगों के आगे पढा                    

अजब हाल आशुरखाने में था।

जिन वांस करते थे सब वाह वाह                

दकनी में लिख्या है क्या मर्सिया

इब्राहिम आदिलशाह (दुसरा) के बाद मुहंमद आदिलशाह तख्तनशीन हुआ। वह शिक्षा के प्रसार के लिए जाना जाता है। वह हर साल मोहर्रम में कई घंटे उलमा (विद्वानों) और महफिलों में बैठा रहता था। इसी के दौर में बिजापूर के मोहर्रम कि शान में इजाफा हुआ।

इसी तरह अली आदिलशाह (दुसरा) भी मोहर्रम का खास अहतराम करता था। उसने कुछ मर्सिए लिखे हैं। उनमें से एक मर्सिया यह है,

दस दिन करुं जारी यौमे तेज गम ते रो रोया इमाम

अत गन हुए अंजुवा मरे तुज गम पे रो रोया इमाम

लिखने लग्या जब मर्सिया तब मुंह कलम का वाकिआ

तू खा लिया अपना हया तुज गम ते रो रोया इमाम

आशूर का सुनकर निदा हर शै करे मातम सदा

हैरान हुए शाह व गुदा तुज गम ते रो रोया इमाम

तर लोक मिल यूं गम करें सब ऐश को बरहम करें

शाही निन पर गम करें तुज गम ते रो रोया इमाम

आदिल अली शाह राजना मुल्क-मुल्क तुम साजना

तुज देख गम जियूं पाकनां तुज गम ते रो रोया इमाम

जाते जाते :

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