औरंगाबाद के वली दकनी उर्दू शायरी के ‘बाबा आदम’ थें

रंगाबाद में जन्मे वली दकनी उर्दू शायरी के पितामह माने जाते हैं। मौलाना मुहंमद हुसेन आजादने उन्हें उर्दू का पहला कवि कहा है। वली के जिंदगी को लेकर विद्वान तथा साहित्यकारों मे कई मतभेद नजर आते हैं।

आज भी वली को लेकर विवाद थमता नजर नही आता। गौरतलब है कि फारसी की तुलना में स्थानीय़ भाषा को कविता का जुबान बनाने को श्रेय वली दकनी को ही जाता हैं।

र्दू शायरी के बाबा आदम कहे जाने वाले वली औरंगाबादी के बगैर दकन के शायरी तथा साहित्य परंपरा कि चर्चा करना बेमानी हैं। दक्षिण कि उर्दू साहित्य इस कवि के जिक्र के बिना अधुरा हैं। 

वली के जीवनी को लेकर अनेकों मदभेद विद्वानों में नजर आते हैं। उनके पैदाईश और मृत्यु को लेकर सभी ने अलग-अलग घटनाक्रम को दर्शाया हैं। जिसके वली के बारे में लिखने-बोलने से पहले सोंचना पडता हैं कि असल तारीख कौन सी हैं। 

वली को वली मुहंमद, वली गुजराती और वली दकनी इन तीन नामों से जाना जाता हैं। दकनवाले उसे वली औरंगाबादी के नाम से जानते हैं। इन अलग-अलग नामों से उनके अलग-अलग निवास स्थानो को सूचित करता हैं। फिराख गोरखपुरी कहते हैं कि वली दकनी का जन्म 1668 में औरंगाबाद में हुआ।

वही जानकीप्रसाद शर्मा वली को 1748 में पैदा कराते हैं। पर डॉ. रामबाबू सक्सेना कि एक बहुत पुरानी किताब ‘A History Of Urdu Literature’ से जन्म का असल प्रमाण ज्ञात होता हैं। यहां वली को लेकर प्रमाण कही जानी वाली जानकारी उपलब्ध होती है। लेखक के अनुसार मीर तकी मीरने अपने दिवान निकातुश्शोराभी यही माना था कि वली कि पैदाईश हिजरी 1076 याने 1668 को हुई हैं। 

बहुत से लोग  लोग यह भी मानते हैं कि वली की पैदाईश अहमदाबाद में हुई। उनका पुरा नाम वलीउल्लाह था। फिराख गोरखपुरी वली का मूल नाम शम्सुद्दीन बताते हैं। जबकी कई विद्वान वली मुहंमद बताते हैं और वतन औरंगाबाद। वली दकनी के कादरिया शेखो के वंशज थें।

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कैसे बने वली दकनी?

उम्र के 20 साल तक वली नें औरंगाबाद में रह कर तालीम हासील की। उसके बाद धार्मिक क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अहमदाबाद गये। उस समय अहमदाबाद में शाह वजीहुद्दीन अल्वी के खानकाह में एक प्रसिद्ध मदरसा था। तब यह जगह प्रख्यात शिक्षा केंद्र मानी जाती थी। जहां दूर-दराज से पढने के लिए विद्यार्थी आते रहते थे। यहां वली ने शेख नुरुद्दीन सुहरावर्दी से शिक्षा हासील की।

प्रो. जानकीप्रसाद शर्मा लिखते हैं कि, “वली ने शेख साहब से ही तसव्वुफ का मर्म समझा। तसव्वुफ के लोकवादी व्यापक दृष्टि से वली प्रभावित हुए। बाद में चलकर यह उनकी शायरी की मुख्य भूमि बनी। वली को यही से शेर कहने की जुस्तजू पैदा हुई।

औरंगाबाद लौटकर वली ने शायरी की शुरुआत की। दकन के आसिफजाही सल्तनत कविता, गझल, नजमे तथा अदबी माहौल के लिए सुविख्यात रहा हैं। हर दौर में इस सल्तनत ने अदबी दानिश्वरों को सन्मान और आदर दिया हैं।

इस सल्तनत ने वली दकनी के अंतप्रतिभा को उभारा और एक अदबी वातावरण दिया। शुरु में वली नें करबला के शहिदों के नाम मसनवी लिखी। जो ‘दह मसनवी’ के नाम से जानी जाती हैं।

वली के जिंदगी के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही हैं। जो मौजूद हैं उसे ही आगे ले जाने का काम बहुत विद्वानों ने किया जाता हैं। तो कुछ लोगों ने नये संशोधन किए हैं। इस संशोधनो से पता चलता हैं कि वली एक मस्तमौला सुफी फकीर थें। उनकी अलग-अलग शहरों मे अनगिनत लोगों से दोस्ती थी।

वली पूर्ण रूप से सुफी संत थेइसलिए उनमे कोई धार्मिक भेदभाव न था। उनक दोस्तों में बहुत से गैरमुस्लिम भी थें। अमृतलालखेमदासगोहर लालमुहंमद यार खां देहलवी आदि उनके कई मित्रों के नाम स्त्रोतो से पता चलते हैं। उनके शेरो में जगह-जगह इन लोगों के नाम आते हैं।

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दकनी सभ्यता के दूत

वली की कविता में दकन की संस्कृति कि झलक दिखती थी। उनके कविताओ में ऐतिहासिक महत्त्व भी था। जानकीप्रसाद शर्मा को उनकी गजलो मे संदेह नजर आता हैं। वे वली को दकनी का पहला शायर भी नही मानते। जबकी फिराख गोरखपुरी इस बारे में काफी उदार नजर आते हैं।

फिराख नें वली की ग़ज़लें को कोमल कल्पना तथा भाव सौष्ठव से सरोबर कहा हैं। वली सिधे शब्दो में लिखते थे। उनकी कविताओं से सीधी किन्तु प्रभावशाली अनुभूती मिलती हैं।

जानकीप्रसाद अपने ‘उर्दू साहित्य की परंपरा’ पहला लेख वली पर लिखा हैं। जिसे वे वली को दुर्बीन से देखते नजर आते हैं। दुसरी तरफ इस संग्रह में ही वे फिराख गोरखपुरी पर लिखे अपने लेख में उनकी खुलकर तारीफ करते हैं। खैर। वली के शायरी भाषा कि बात करे तो उसमें कोई संदेह नहीं था। बिलकूल सिधे और आसान जुबान में वह अपनी रचनाए करते थे।

वली सन 1700 मे पहली बार दिल्ली गये। वहाँ उन्हे दिल्ली के प्रसिद्ध विद्वान शाह सादुल्लाह गुलशन के खिदमत में हाजीर हुए। वली ने अपनी कुछ दकनी रचनाए उन्हे सुनाई। इस पर शाह साहब नें वली से कहा “यह तमाम फारसी के विषय जो बेकार पडे हैं, इन्हे रेख्ता में ढाल दो, तुम्हारी कोई बराबरी नही न कर सकेंगा।

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पहला दिवान और दिल्ली

वली जब दुसरी बार दिल्ली गये तब अपना दिवान साथ ले गए। इसके प्रमाण ‘आबे हयात’ (1910) में मिलते हैं। वली के दो बार दिल्ली सफर की धारणा दिल्ली के जाकिर हुसेन कॉलेज के प्राध्यापक डॉ सय्यद नुरुल हसन हाशमी इस तथ्य को गलत साबीत करते हैं।

हाशमी ने 1982 में प्रकाशित ‘कुल्लियाते वली’ (समग्र) में इस बात का खंडन किया हैं। इसी तरह वली के नाम प्रसिद्ध हुए एक शेर पर भी वे संदेह जताते हैं।

दिल ‘वली’ का ले लिया दिल्ली ने छीन

जा कहो कोई मुहंमद शाह सूँ

दसरअसल यह शेर वली का न होकर शेख शरफुद्दीन मज्मून (1745) का है जो इस प्रकार हैं।

इस गदा का दिल लिया दिल्ली ने छीन

जा कहो कोई मुहंमद शाह सूँ

हाशमी कहते हैं वली केवल एक बार औरंगजेब के शासनकाल में दिल्ली पधारे थे। उस समय दिल्ली का सुबेदार यार खाँ था। वली के एक शेर में इसका जिक्र भी वे करते हैं।

क्यूँ न होवे इश्क सूँ आबाद सब हिन्दोस्ताँ

हुस्न की दिल्ली का हैं सूबा मुहमद यार खाँ

मुंबई के अलीमुद्दीन अलीम ने हाल ही में ‘तजकिर ए शुराए मराठवाडा’ नामक मोटी किताब लिखी हैं। अलीम कहते हैं कि, वली शुरु से ही रेख्ता मे लिखते थे। जब वली पहली दफा दिल्ली गए तब ही वे अपना दिवान साथ ले गये थे। जिसका जिक्र हमने उपर किया हैं। वे कहते हैं उत्तर भारत की उर्दू की अपेक्षा वली की भाषा में काफी दकनीपन मालूम होता है।

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सामान्य लोगों के शायर

बहरहाल वली का दिवान जब दिल्ली पहुँचा तो उच्च वर्ग से लेकर आम लोगों तक उनके शेर पुहँचे। वली के रचनाओं को सामान्य लोगों ने प्रतिष्ठा और सन्मान दिया।

शर्मा लिखते हैं, “वली के नये भाव और विषयो ये लबरेज रेख्ता की गजलों ने दिल्ली के शायरों को जनभाषा मे शायरी की प्रेरणा दी। उनके स्वागत में अनेक नशिस्ते (मुशायरे की महफिले) हुई। वली यहा तक लोकप्रिय हुए कि कव्वाल उनकी आध्यात्मिक गजलों को महफिलों मे गाने लगे।

आज वली रेख्ता के नाम से प्रसिद्ध हैं। उर्दू और दकनी में दिवान जमा कराने वाले वली पहले शायर थे। वली के इस दिवान को पहली बार गार्सां द तासी ने 1833 में दो भागों मे संपादित किया। यह काम उस समय के 8 पाण्डुलिपी के आधार पर किया गया।

इसके बाद 1872 में सुरत के एक शायर मियाँ ‘समझूँ’ ने वली का दिवान प्रकाशित किया। फिर अंजुमन तरक्की उर्दू हिंद ने 1947 में इस दिवान को प्रकाशित किया। ‘रिसाला ए उर्दू पाकिस्तान’ के संपादक मुहंमद इकराम चुगताई ने वली के दिवान के 97 पाणडुलिपियों की लिस्ट प्रकाशित की हैं।

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जीवनी पर कई हैं विवाद

वली के मृत्यू को लेकर भी कई तरह की धारणाए बनी हैं। कई विद्वानो ने वली के मृत्यु का सन अलग-अलग दर्शाया हैं। फिराख गोरखपुरी ने अपनी ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ नामक पुस्तक में वली की सन 1744 में अहमदाबाद में मृत्यु बताई हैं। जानकीप्रसाद शर्मा ने भी इसी को संदर्भ बनाकर अपनी किताब उर्दू साहित्य कि परंपरा में वली का निधन इसी ईसवीं को लिखा हैं।

मगर उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक और शोधकर्ता डॉ. एहतेशाम हुसेन ने वली कि मृत्यु का ईसवी 1707 बताया हैं। जिसे हर कोई प्रमाण मानता हैं।परन्तु डॉ. रामबाबू सक्सेना ने वली कि मृत्यु हिजरी 1141 याने ईसवी 1744 मे मानी हैं। इसके प्रमाण में वह वली कि 1741 की एक गझल पेश करते हैं। 

हुआ है खत्म नव यू दर्द का हाल

था ग्यारह सौ पे एकतालिसवा साल

कहा हातिफ ने यू तारिख माकूल

वली का हैं सब्रून हक पास मकबूल

वली औरंगाबादी की मजार अहमदाबाद में स्थित हैं। और वह ‘चीनी पीर’ के नाम से जानी जाती हैं। जबकी औरंगाबाद के प्रसिद्ध शायर मिर्झा आगा बेग वली दकनी के मृत्यु औरंगाबाद में होने की जिक्र करते हैं।

उन्होने अपनी किताब में वक्फ बोर्डे तथा अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजो का हवाला देकर यह बात साबीत कर दी हैं की, वली की मृत्यु औरंगाबाद दकन में ही हुई हैं। और उनकी मजार गुलशन महल के दरगाह जो कि कलेक्टर ऑफिस के समीप हैं, वहा मौजूद हैं। खैर यह विवाद न जाने कब थमें।

वली दकनी उर्दू को दिल्ली तथा उत्तर भारत में ले जाने वाले पहले कवि कहे जाते हैं। उनकी कई रचनाए आज प्रकाशित हो चुकी हैं। दकन के इस महान शायर नें उर्दू और दकनी को देश की सैर कराई हैं, इस बात से तो कोई विद्वान इनकार नही करता।

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