शेख चांद हैदराबाद के आखरी निज़ाम मीर उस्मानअली के दौर में औरंगाबाद शहर के मशहूर लेखक हैं। वे बाबा ए उर्दू मौलवी अब्दुल हक के शिष्य थे। इन्होंने मौलवी हक के निगरानी में उर्दू शायर सौदा के संदर्भ में काफी अच्छा शोधकार्य किया है। महज 31 साल की उम्र में उनका निधन हुआ।
इन्होंने संत एकनाथ, मलिक अम्बर, निजामुल मुल्क आसिफजाह अव्वल, सौदा यह किताबें लिखी हैं। यह लेख उनकी किताब मलिक अम्बर से लिया गया है, जो सन 1931 में लिखी गयी है।
दकन के कई शहरों ने मध्यकाल में व्यापार और आर्थिक क्षेत्र में काफी तरक्की की थी। बहमनी सल्तनत और उसके बाद दकन की मुख्तलिफ रियासतों की सरपरस्ती में व्यापार और कृषि क्षेत्र में कुछ बदलाव आए थे। इसी वजह से यहां कपडा बुनना, लकड़ीयों को तराशना, लोहारी, कागजसाजी, मिट्टी के बर्तन, हथियार, रंगनिर्माण जैसे उद्योग शुरू हो सके।
यह दावे से नहीं कहा जा सकता की मलिक अम्बर ने इस कारोबार को बढावा देने में क्या कोशिशें की। कुछ हवाले इतिहास के किताबों से मिलते हैं, जिससे उस दौर के व्यापार और आर्थिक प्रगती पर रौशनी पड़ती है। हम इनको निचे दर्ज कर रहे हैं।
कपडानिर्मिती उद्योग
मलिक अम्बर के दौर में कपडा निर्मिती उद्योग काफी तरक्की पर था। खडकी (औरंगाबाद) और खास तौर से पट्टण (पैठण) में कपडा निर्मिती उद्योग ज्यादा संख्या में मौजूद थे।
यहां के कारखानों में कमख्वाब, बुलबुल ए चश्म, मुर्गजाला, गंगा जमनी, धुपछांव, चांदतारा, मश्जर, जर्री, शामियाना, छत्तर, झोल, चारजामा वगैरा कपडे बडी संख्या में बनाए जाते थे।
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कारचोबी के कारखाने
इन कारखानों में जरदोजी का काम किया जाता था। बादला, सलमा, सितारे, गोखुरू, मोती और मोर जैसे जरदोजी के प्रकार मौजूद थे। इस काम को करनेवाले शख्स को जरदोज कहा जाता था। यह काम मलिक अम्बर के दौर में भी होता था। जैसा की हम ‘तुज्क ए जहांगिरी’ और दिगर तारीखी किताबों में इस तरह के तोहफों की फेहरीस्त देखते हैं।
यह तोहफे खुसूसन मलिक अम्बर के द्वारा या फिर दकन के कुछ सरदारों के द्वारा दिए जाते थे, इसलिए इस बात पर यकीन किया जा सकता है की, यहां की जरदोजी काफी मशहूर थी। मलिक अम्बर के दौर का एक वाकिया है।
ईसवीं सन 1609 में कुतूबशाह के दरबार से एक ईरानी राजदूत अपने देश वापस लौट रहा था। जाते हुए वह अपने साथ ‘कमख्वाब’ (उस समय के कपडे का एक नाम) का एक टुकडा ले गया। जिसको पट्टण (पैठण) के कारीगरों नें पांच बरस में तैयार किया था। पट्टण में हजार-हजार रुपये के थान तैयार होते थे।
सुती कपडा उद्योग
कुछ समकालीन स्त्रोतों के हवाले से यह भी पता चलता है की, मलिक अम्बर के अहद में निज़ामशाही में सुती कपडे के कारखाने भी बडे पैमाने पर थे। यहां ऐसे कपडे तैयार होते थे, जो अकबर जहांगीर और शहान ए ईरान (ईरान का शाह) के दरबार में भी भेजे जाते थे।
अकबरी दौर का मशहूर मलिकउश्शोअरा फैजी दकन आया था। इसने यहां से एक अर्जदाश्त (निवेदन) बादशाह के हुजूर में भेजी थी, जिसमें पट्टण के पारचाबाफी (सुती कपडानिर्मिती) के बारे में लिखा था की, ‘सनत ए पारचाबाफी दर पट्टण बेबद्ल अस्त’ (यहा सुती कपडा उद्योग काफी प्रगती पर पहुंचा है।)
अकबरी दौर के अमीर की इस तरह से तारीफ इस बात का सबूत है की, हिन्दुस्तान में कोई भी शहर यहां के कारखानों की बराबरी नहीं कर सकता था। जो सुती कपडा यहां तैयार होता था, वह मुल्कभर में इस्तेमाल किया जाता था। बादशाही, दौलतमंद और साहब ए हैसियत लोग आला दर्जे के कपडे इस्तेमाल करते थे। मुल्क के बाहर भी यहां से व्यापार के लिए कपडा भेजा जाता था।
‘महबूब ए जिल मुनीन’ इस किताब के लेखक मौलवी अबू तुराब ने रफिउद्दीन शिराजी के हवाले से लिखा है की, ‘रफिउद्दीन शिराजी एक बार दौलताबाद सैर के लिए गया था। वह मलिक अम्बर के महल में ठहरा था। इसने मलिक अम्बर के ‘दिवान ए मुहासिब’ से पुछा की, ‘दौलताबाद, खडकी और पट्टण से किस कदर रेशमी पारचा (रेशमी कपडा) दुसरे मुल्कों को जाता है?’
तो उसने जवाब दिया की, ‘सालभर में तीन खरवार (एक खवार यानि तीन मन अठरा सेर) और पांच लाख होन की आमदनी इससे सरकारी खजाने में दाखिल होती है। एक होन सव्वा तीन रुपये का होता है। इससे सोलह-सतरा लाख रुपये सालाना महेज परचा, रेशम के कारखाने से सरकार को मिलते थे। पहले इससे भी ज्यादा आमदनी होती थी, मगर अब कम हो गई है।’
इससे मालूम होता है की, मुसलसल जंगों की वजह से कारोबार को काफी नुकसान पहुंचा था। जंगो में मसरुफ रहने की वजह से मलिक अम्बर भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दे सका।
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काग़ज निर्मिती
दौलताबाद काग़ज निर्मिती उद्योग का केंद्र था। यहां अलग-अलग नमुने के काग़ज तैयार होते थे। निज़ामशाही अंमलदारी में जो काग़ज तैयार होता था। वह निज़ामशाही काग़ज कहलाता था। फैजी ने दौलताबाद के काग़ज कि बहोत तारीफ की है।
यह कारोबार दौलताबाद में काफी पुराना था। आज भी दौलताबाद इसके लिए जाना जाता है, मगर अब यहां इस कारोबार का ज्यादा चलन नहीं है। ना ही अब यहां का काग़ज अब विदेशी कागज के साथ मुकाबला कर सकता है। यही हाल पारचाबाफी का है। अब भी पट्टण और औरंगाबाद में इसके कारखाने कायम हैं। मगर अब इसमें पहले जैसी रौनक नहीं है।
लोहारी (शस्त्रनिर्मिती)
लोहारी का काम तो कसबे-कसबे में होता था। कृषि के सारे अवजार बनाए जाते थे। इसके अलावा मामूली जरुरत की चीजें मसलन छुरी, चाकू, चमचे, हतोड़े, कुलहाडी वगैरे सब तैयार होते थे। हथियार बनाने के कारखाने बडे शहरों में बनाए गए थे।
दकन के शहरों में अब भी जो हथियार पाए जाते हैं और मलिक अम्बर के जमाने में जिन हथियारों का जिक्र तारीखों में कहीं-कहीं मिलता है वह सब यहीं तैयार होते थे। चुनांचा तलवार के अलग नमुने जिनमें सहराई, पट्टा, बत्ती, असल मिसरी फरहंग, खंजर, नेमचा वगैरा तैय्यार किए जाते थे। इसके अलावा जंबिया, कट्यार, बिछवा, बांक, मारु, छुरा, सबदरु, भाले, बलम, अलम आदी भी बनाए जाते थे।
खुराबीन और बंदुकें भी तैयार कि जाती थी। तोपें भी यहीं ढाली जाती थी। यहां की तोंपें बडी और कारआमद होती थी। जिसकी मिसाल दुसरी जगह नहीं मिलती। बीजापूर, दौलताबाद, कंधार (नांदेड जिला) में अब तक यहां की तोपें मौजूद हैं और बेमिसाल कारीगरी का सबूत देती हैं।
तलवार और खंजर के कब्जों पर नक्षीकाम भी होता था। ढालें भी अच्छी बनायी जाती थी। इनपर सोने चांदी का काम भी किया जाता था।
मलिक अम्बर के दौर में पारचाबाफी और हथियार निर्मिती के कारोबार काफी तरक्की पर थे। जहांगीर दरबार के अंग्रेज यात्री थॉमस रो के बयान से मालूम होता है की, उसे एक मर्तबा अपने फौजीयों के लिबास और हथियार के लिए विदेसी कपडे और तलवारों की जरुरत पडी थी।
चुनांचा थॉमस रो 18 जून 1617 को लिखता है, ‘सिपेसालार मलिक अम्बर ने अमीरुल बहर (नौसेना प्रमुख) स्प्राग के जरीए फरमाईश की हैं के, बुहरहानपुर में थॉमस रो के लिए अंग्रेजी कपडा और तलवारें फौजियों के लिए भेजी जाएं। इससे हमारी उस तिजारत की तरक्की होगी जो दम तोड रही है।’
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लकड़ी और रंगनिर्मिती
लकड़ीयों के जरीए कई चिजें बनायी जाती थी। पुरानी इमारतों में भी इस काम को देखा जा सकता है। पट्टण के नज्जारी (लकडी काम करनेवाले) काफी मशहूर थे। लकडी पर बारीक, नाजूक काम काफी उम्दा तरीके से करते थे। सागवानी लकडी पर बेलबुटे अलग-अलग तरीके से बनाए जाते थे। पट्टण (पैठण) में अब भी इसके नमुने मिलते है।
मलिक अम्बर के जमाने की इमारतों में (जो उसकी बनाई हुई नहीं हैं, मगर उसके दौर में निर्माण हुई है।) बाज बड़े गैरमामुली नमूने मिलते हैं। पट्टण के कारीगरों को दुर देशों से बुलाया भी जाता था। इसके अलावा सोने चांदी के जेवर भी आला दर्जे के बनाए जाते थे।
रंगसाजी का काम बहोत उम्दा होता था। रंग के कारखाने यहां आज से 50 साल पहले तक मौजूद थे। कुंभारी का काम भी मशहूर था। इसी तरह से अन्य कारोबार भी काफी उरूज पर था। मलिक अम्बर ने मुल्क और विदेश में व्यापार की सारी सहुलतें प्रदान कर रखी थी। हजारों रुपये का माल बाहर जाता था।
इसके अपने जहाज भी थे। फारस (अब का ईरान) के रास्ते इसके तिजारती जहाज विदेश जाते थे। तिजारत के जरीए इसे काफी मुनाफा भी होता था। सिर्फ तीन शहर खड़की, दौलताबाद और पट्टण से इसे सालाना 17-17 लाख रुपये की सालाना आमदनी मिलती थी।
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