दकन की शिक्षा नीति का नायक था महेमूद गवान

सल्तनत काल में भारत के शिक्षा क्षेत्र में काफी परिवर्तन हुए। कुतबुद्दीन ऐबक और मुहंमद तुग़लक का दौर भारत में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के प्रचार का दौर माना जाता है। तुग़लक के बाद दकन में बहमनी सल्तनत (Bahmani kingdom) की बुनियाद रखी गयी। इसने दकन में शिक्षा के प्रसार में अहम भूमिका निभायी। बहमनी का हबशी सरदार महेमूद गवान (1411-1481) ने बिदर में एक विश्वविद्यालय कि स्थापना की थी।

मलिक अंबर के बाद महेमूद गवान (Mahmud Gawan) वह हबशी सरदार है, जिसने दकन कि तारीख पर अपना खास असर छोडा है। मलिक अंबर और महेमूद गवान के अहद में काफी फर्क है। मलिक का दौर महमूद की मौत के तकरीबन एक सदी बाद शुरु होता है।

यह कहना गलत नहीं होगा की, दकन में हबशी सरदारों के राजनीति की बुनियाद महेमूद गवान ने ही रखी थी। महेमूद कि सियासत ने दकन में शिया हुकूमतों का मार्ग भी मजबूत किया था। वैसे अंबर और गवान दोनों में कई समानताएं हैं।

मलिक अंबर से पहले बिदर शहर में महेमूद गवान ने पानी के लिए भूमिगत नहरें बनवाई थी। इसी कल्पना को मलिक ने औरंगाबाद में अमल में लाया था। जिसकी गवान से अधिक चर्चा हुई। दोनो ने अपनी सल्तनत की राजनीति में मर्कजी (केंद्रीय) मुकाम हासिल किया था।

मुगलों की पराजय और अहमदनगर के निज़ामशाह हुकूमत कि बागडौर संभालने की वजह से मलिक अंबर को ज्यादा महत्व हासिल है। महेमूद गवान की हत्या के बाद बहमनी में राजनैतिक विद्रोह और अन्य तीन-चार दकनी राजवंशो की प्रेरणास्थली बन गया। खासतौर से आदिलशाही और कुतूबशाही पर गवान का काफी असर रहा।

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कौन था महेमूद गवान?

महेमूद फारस (अब का ईरान) के गवान का रहनेवाला था। उसका मूल नाम मलिक शाह था। उस दौर में शहर और मुल्क के नाम से लोगों को जाना जाता था। इसलिए इसका नाम महेमूद गवान बन गया। महमूद तकरीबन 40 साल की उम्र तक दुनियाभर घुमता रहा।

अलाउद्दीन बहमनी के दौर में वह व्यापारी बनकर बिदर (हिन्दुस्थान) आया और यहीं बस गया। बादशाह ने इसे बिदर का हाकिम (प्रधान) मुकर्रर किया। इसने अलाउद्दीन और मुहंमद शाह बहमनी के दौर में राज्य के प्रशासन का बखुबी नेतृत्व किया।

महेमूद शुरआती दौर से एक अच्छा शिक्षाविद् था। उसे किताबें पढ़ने और शायरी लिखने का शौक था। फलसफा, तर्कशास्त्र और गणित में उसने महारत हासिल की थी। अब्दुल रहमान जामी उस दौर के विख्यात सुफी शायर थे। उन्होंने मेहमूद गवान कि काफी तारीफ की है।

उसके दौर में बहमनी सल्तनत का काफी विस्तार हुआ। ये राज्य उससे पूर्व चार सुबों तक सीमित था, जो बाद में 8 सुबों में फैल गया। महेमूद के कारनामों से खुश होकर मुहंमद शाह ने इसे ‘ख्वाजा जहां’ के किताब से नवाजा था।

यह एक अजीब इत्तेफाक है की, जिन्हें भी ‘ख्वाजा जहां’ का खिताब मिला वह बादशाह के द्वारा कत्ल कर दिया गया। महेमूद भी यह खिताब मिलने के बाद कहता था कि, ‘अब शायद कत्ल होने का वक्त आ गया है।’

महेमूद की यह बात सच साबित हुई। इसवीं सन 1481 में राज्य में चल रहे एक साजिश के चलते मुहंमद शाह बहमनी ने उसे कत्ल करने का हुक्म जारी कर दिया।

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विश्वविद्यालय की बुनियाद

मुहंमद शाह बहमनी के अहद में महेमूद गवान ने एक विश्वविद्यालय (मदरसा) कि स्थापना की थी। बिदर में स्थापित यह मदरसा कुछ ही दिनों में दुनियाभर में मशहूर हो गया। यहां ईरान, अफगानिस्तान, तुर्कस्तान, बगदाद से लोग पढ़ने के लिए आते थे।

मदरसे में एक हॉस्टेल भी था। जहां शिक्षक और बच्चे एक साथ रहते थे। मदरसे के लिए पानी का इंतजाम नहरों के जरिए किया गया था। यहां पढ़ने आए बच्चों को खाना और कपड़े मुफ्त में दिए जाते थे। साथ ही इस लंगर से गरीबों को भी खाना दिया जाता था।

विश्वविद्यालय कि लायब्ररी में 3000 से ज्यादा किताबें मौजूद थी। साथ ही यहां के शिक्षक और अन्य कर्मचारीयों की भी अपनी निजी लायब्ररीयां थीं। जिसमें दुनियाभर के विद्वानों की किताबें शामिल थी। हुकूमत की तरफसे मदरसे के इंतजाम पर विशेष ध्यान दिया जाता था।

यहां से पढ़नेवाले कुछ बच्चों ने बहमनी सल्तनत के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर काम किया। महेमूद गवान ने दुनियाभर से मशहूर विद्वानों को विश्वविद्यालय में पढाने के लिए आमंत्रित किया था। इसमें कार्यरत ज्यादातर विद्वानों को ईरान और बगदाद से बुलाया गया था।

जिनमें मौलाना नुरुद्दीन जामी, विख्यात ईरानी विद्वान जलालुद्दीन दवानी, शेख सदरुद्दीन अब्दुल रहमान रवासी का नाम शामिल है। उस दौर में अरबी और फारसी साहित्य अध्ययन का यह एकमात्र केंद्र था। मेहमूद के कत्ल के बाद यह विश्वविद्यालय सरपरस्ती से महरुम हुआ।

गवान के कत्ल के साथ ही बहामनी सल्तनत का भी खात्मा हुआ। बिदर पर बरीदीयों की हुकूमत कायम हुई। बरीदशाही का दौर बिदर में काफी अफरा-तफरी के लिए जाना जाता है। इसी दौर में मदरसे को काफी नुकसान भी पहुंचा। पर कुछ ही दिनों में बरिदीयों की हुकूमत खत्म हुई।

आदिलशाही सल्तनत ने भी बिदर पर कुछ दिनों तक अपना कब्जा जमाया था। इसी दौर में विश्वविद्यालय की हालत बदतर होती गयी। मदरसे की छत और दरवाजे कि लकडीयां भी टूट गयी थी।

एक रुसी प्रवासी अँटोनी सेज निकेटीयन (Athanasius Nikitin) सन 1469 से 1474 तक बिदर में ख्वाजा यूसुफ खरासानी के फर्जी नाम से रह रहा था। उसने इस विश्वविद्यालय को वैश्विक सभ्यता का एक अहम केंद्र माना है। इसने यहां कि शिक्षा व्यवस्था को काफी सराहा है।

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औरंगजेब का दौर

सन 1682 के बाद दकन के अहम शहरों पर औरंगजेब ने अपना कब्जा जमाना शुरु किया। बिदर पर भी औरंगजेब का कब्जा हुआ। इसी समय ईसवीं सन 1696 में बारुद के एक जखीरे में आग लग गयी। धमाके में विश्वविद्यालय के दो खुबसूरत मिनार टूट गये। हॉस्टेल के कुछ कमरे भी इस आग की चपेट में आ गये।

औरंगजेब इस हादसे की खबर से काफी नाराज हुआ। उसने विश्वविद्यालय को उसकी पुरानी हालत पर लाने का आदेश दिया। सुभेदार इफ्तेखार खान, मुख्तार खान और कलंदर खान ने बादशाह के आदेश से इसकी मरम्मत करवाई। जिसके बाद दुबारा विश्वविद्यालय में शिक्षा का दौर शुरु हुआ।

औरंगजेब ने बिजापूर के विख्यात आलिम सबगतुल्लाह मद़नी के शिष्य मौलाना मुहंमद हुसैन को इस विश्वविद्यालय का प्रमुख नियुक्त किया। उन्होंने तकरीबन 10 साल तक इसकी बागडोर को संभाला। औरंगजेब ने इस मदरसे का खर्च चलाने के लिए गुटूंर वगैराह इलाके की जागीर मुकर्रर की थी।

उस दौर में औरंगजेब ने भारत के मदरसों की शिक्षा प्रणाली में बदलाव कि काफी कोशिशे की थी। उसने फिरंगी महल के जरिए ‘दर्स ए निज़ामी’ (एक प्रकार का अभ्यासक्रम) की बुनियाद भी रखी थी। इसकी अध्ययन प्रणाली पर आधुनिक दौर में भी भारत के तमाम मदरसों में अमल किया जाता रहा है। पर अफसोस के साथ कहेना पड़ता हैं की आज यह सिलेबस मदरसा शिक्षा पद्धती से दूर चला गया है।

औरंगजेब के इस नये दृष्टिकोण ने मेहमूद गवान के मदरसे को नये रंग में ढाला। मदरसे में शिक्षा का सिलसिला औरंगजेब के बाद कुछ दिनों तक चलता रहा।

विश्वविद्यालय में शिक्षा कब बंद हुई इसकी जानकारी इतिहास में नहीं मिलती। औरंगजेब के बाद बिदर हैदराबाद के आसिफीया हुकूमत में शामिल कर लिया गया। मदरसे कि इमारत का कुछ हिस्सा अब भी मौजूद है, जो उसके गौरवशाली इतिहास को बयान करता है।

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