क्या, कम्युनिस्ट होना था अन्नाभाऊ के उपेक्षा की वजह?

ग बदल घालूनी घाव, (दुनिया बदल दे..) सांगून गेले मला भीमराव, (कह चले भीमराव) गीत में अन्नाभाऊ कहते हैं, ‘पूंजीपतीयोंने हमेशा लुटा हैं, धर्मांधों ने छला हैं’, गीत में, जाति और वर्ग के शोषण के खिलाफ डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के नाम पर, वे दलितों को चोट करने के लिए कहते हैं।

कॉ. अन्नाभाऊ की कहानियाँ, उपन्यास के नायक और नायिकाएँ भी विद्रोही और संघर्षशील हैं। उन्होंने दलितों, शोषितों, श्रमिक और उपेक्षित लोगों के नायको को अपने साहित्य में सम्मानीय स्थान देने का बड़ा मौलिक काम किया है।

मेघ समान अब राह पकडकर हमारी 

आगे चला रण में गरजा, करके अपना दृढ संकल्प 

एकजुट जनता की साधकर जनराज्य की कर रचना 

पूर्ण जनतंत्र लाकर, गाएँ फिर यशगान 

प्रकाशमय आसमान, अंतत: वर्ग-विहीन भारत का करें निर्माण 

बंध तोडे, कदम प्रथम, आगे बढो पीछे न हटो… 

उनके उपन्यास फकीराका नायक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ विद्रोह करता है। उन्होंने इस प्रसिद्ध उपन्यास को डॉ. अम्बेडकर के उग्र लेखन के लिए समर्पित किया था। उपन्यास ने सर्वश्रेष्ठ साहित्य के लिए कई सरकारी पुरस्कार भी जीते हैं। इसके अलावा, IPTA की मदद से, उस समय मराठी फिल्म उद्योग के प्रसिद्ध अभिनेताओं के साथ फकीरानामक फिल्म बनाई गई थी।

शाहीर कॉ. गव्हाणकर ने फिल्म फायनान्स कॉर्पोरेशन (FFC) से वित्तीय कर्ज लेकर इसका निर्माण किया था। अन्नाभाऊ और जाने-माने पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसकी पटकथा लिखी थी और उसे कुमार चंद्रशेखर द्वारा निर्देशित किया गया था।

इसके अलावा अनके कुछ उपन्यासों पर भी प्रदेश में फिल्में बनी हैं। उनका उपन्यास चित्रामुंबई के नाविकों के विद्रोह की पृष्ठभूमि के खिलाफ है और नायिका भी एक विद्रोही है। इसका अन्नाभाऊ के सोवियत रूस जाने से पहले याने 1961 में इसका रूसी में अनुवाद छपा था।

पिछले भाग: 

जैविक बुद्धिजिवी

अन्नाभाऊ साठे न केवल एक साहित्यिक व्यक्ति थे, बल्कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी थे, जिन्हें अक्सर ब्रिटिश और काँग्रेस अधिकारियों के क्रोध और दमन का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी, उन्हें भूमिगत रहना पड़ता था और जेल में डाल दिया जाता था। उनके कई लोक नाटकों पर भी सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था।

अन्नाभाऊ एक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार भी थे। वे दलित-शोषितों और मेहनतकशों की दुर्दशा को पढ़ने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की मशाल’, ‘लोकयुद्ध’, ‘युगांतरऔर अन्य साप्ताहिक पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखते थे। वह पुस्तक-फिल्म समीक्षा भी लिखते थे। 1943 में मुंबई में स्थापित इंडियन पिपल्स थिएटर असोसिएशन’ (IPTA) की स्थापना में भी सहायक थे। 1949 में वह इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

कॉमरेड अन्नाभाऊ ने मराठी में दलित और विद्रोही साहित्य की वैचारिक नींव रखी है। आधुनिक मार्क्सवादी विचारक एंटोनियो ग्राम्स्की ‘जैविक बुद्धिजिवी’ कि परिभाषा करते थे, वह अन्नाभाऊ पर भी लागू होती है। मराठी के प्रसिद्ध विद्रोही साहित्यिक बाबुराव बागुल उन्हें महाराष्ट्र मैक्झिम गौर्की कहते थे।

संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और इसके निर्माण में, अन्नाभाऊ के लाल बावटा कलापथक और उनके सहयोगी कॉ. अमर शेख तथा कॉ. गव्हाणकर ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया।

लेकिन जिन लोकशाहीर, साहित्यिकों ने अपने लेखन और गीतों के माध्यम से देश और दुनिया में पीड़ितों, मजदूरों, कास्तकार, श्रमिकों, दलित-शोषितों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें तथाकथित साहित्यिक तथा संस्कृति के ठेकेदार, तत्कालीन और वर्तमान अधिकारियों ने नजरअंदाज किया है।

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क्यों रहे उपेक्षित?

महाराष्ट्र में, पी. एल. देशपांडे, कुसुमाग्रज, (साहित्यिक) यशवंतराव चव्हाण के नाम पर अकादमी स्थापित की जाती है, अखबारों में स्मरण दिन मनाया जाता है, विशेष अंक निकालते हैं, चैनलों पर चर्चा की जाती है। लेकिन जिनकी वजह से संयुक्त महाराष्ट्र अस्तित्व में आया उन कॉ. अमर शेख, कॉ. अन्नाभाऊ साठे का जन्म शताब्दी वर्ष आया और चला गया, लेकिन न तो शासक और न ही तथाकथित महान संपादकों ने उन्हें याद किया हैं।

मुट्ठी भर उच्च वर्ग के लोग जिन्हें स्वातंत्र्यवीर (?), लोकमान्य (?) कहा गया है, उपरोक्त दैनिक समाचार पत्रों के विशेष अंक निकालना, विशेष लेख प्रकाशित करना और तथाकथित गणमान्य लोगों के लेख पढ़ने पर कार्यक्रम और वेबिनार, सेमिनार आयोजित करने में लगे हुये हैं। यह और भी अफसोसजनक है कि हममें से कुछ लोग इनके बारे में रचे गये विशेष लेख पढ़कर उन्हें राष्ट्रीय नेता मान लेते हैं।

कॉ. अन्नाभाऊ, अमर शेख और गव्हाणकर की हिस्से में आई उपेक्षा का मुख्य कारण यह है कि ये सभी लोकशाहीर जिस जाति-धर्म और वर्ग से आये थे। दूसरा यह है कि वे प्रस्थापित जाति-वर्ग और शासकों के खिलाफ कम्युनिस्ट के रूप में एक मजबूत भूमिका निभा रहे थे। यकिनन ये सच प्रस्थापितों के लिए गले कि हड्डी है।

यहीं वजह है की मुंबई-महाराष्ट्र और देश के मेहनतकश लोग और लोक कलाकारों कि ओर से इन तीनों के स्मृति में जन-कलाकारों का संयुक्त स्मारक मुंबई में खड़ा किया जाना चाहिए। इस जन्म शताब्दी वर्ष का अच्छा परिणाम तभी साबित होगा, जब हम  अन्नाभाऊ साठे, अमर शेख और दत्ता गव्हाणकर के क्रांतिकारी विचारों को दैनिक संघर्ष के माध्यम से अमल में लाये। यहीं एकमात्र कॉमरेड अन्नाभाऊ साठे को क्रांतिकारी अभिवादन होगा।

जाते जाते :

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