शहजादे सलीम यानी जहाँगीर बादशाह अपने अन्य वंशजों से थोड़ा अलग था। उसने पिता सम्राट अकबर से राज संभाला था। सन 1605 में अकबर के देहांत के बाद जहांगीर ने मुग़ल सल्तनत संभाली। 22 साल के शासनकाल में जहांगीर ने जो नाम कमाया वह शौर्य और राजकाज के विपरीत सिक्कों के चलन और कलात्मकता के लिए अधिक था।
उसने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ स्वयं लिखी और कहते हैं कि जो लिखा वह अधिकतर सच था।
यह शहजादा सलीम फिजूल में सलीम-अनारकली प्रेम प्रसंग का खलनायक बना रहा। बॉलीवुड ने इस असत्य गाथा को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया, वह भी इस रूप में कि लोग उसकी किसी अन्य छवि से वाकिफ ही नहीं। ख़ास तौर से नई पीढी! पर जहाँगीर या शहजादा सलीम एक अलग किस्म का इन्सान था।
उसके जिन्दगी के किस्से, अफ़साने, षड्यंत्र और उसकी झूठी-सच्ची कहानियों की अलग पड़ताल करते रहें, पर उसके लेखन का मुरीद तो होना ही पड़ेगा। उसकी आत्मकथा का हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। वह भी उत्कृष्ट है।
‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ को पढ़ने से समझ आता है कि वह किस सोच का इन्सान था। युद्धों से दूर था, कलात्मक दृष्टि रखता। परंतु इतिहास ने उसे सिर्फ किवंदंतियों का नायक बनाया और षड्यंत्रों में घसीटा। उसके सकारात्मक पहलू पर बहुत कम प्रकाश डाला।
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आगरा की कहानी
तत्कालीन मुग़ल राजधानी आगरा के विषय में शहजादे सलीम या जहाँगीर के विचार यूँ थे,
आगरा हिन्दुस्ताँ का एक बड़ा प्राचीन नगर है। पहले वहां जमुना के तट पर एक प्राचीन किला था परंतु मेरे जन्म से पहले ही मेरे पिता ने उस को गिराकर कटे हुए लाल पत्थरों का किला वहां बनाना शुरू कर दिया।
जिन लोगों ने संसार की यात्रा की है वह ऐसा दूसरा किला नहीं बता सकते। यह 15-16 साल में तैयार हो गया था। इसके चार दरवाजे थे जिनमें से दुश्मनों पर प्रहार किया जा सकता था। उसके निर्माण में 85 लाख रुपए लगे थे।
आगरा नगर का आबाद भाग नदी के दोनों तटों पर है। पश्चिम के तट की ओर आबादी ज्यादा है और इसका घेराव सात कोस तथा चौड़ाई कोस है। दूसरी ओर की बस्ती का घेराव ढाई कोस है। इसकी लंबाई एक कोस और चौड़ाई आधा कोस है।
इस नगर में अनेक लोगों ने तीन या चार खंड के मकान बना लिए हैं। बस्ती इतनी अधिक है कि गलियों और बाजारों में चलना बड़ा कठिन है। यह दूसरे कटिबंध की सीमा पर स्थित है। उसके पूर्व में कन्नौज प्रांत पश्चिम में नागौर उत्तर में संभल और दक्षिण में चंदेरी है।
हिन्दुओं की पुस्तकों में लिखा हुआ है कि जमुना का निकास कालिंद नाम की पहाड़ी से होता है। वहां अत्यंत भीषण गर्मी के कारण मनुष्य पहुंच नहीं सकते। प्रत्यक्ष निकास एक पहाड़ी से है जो खिजराबाद के समीप स्थित है।
आगरा का जलवायु गर्म तथा शुष्क है। हकीमों का कहना है कि यहाँ सुस्ती तथा निर्बलता आ जाती है, और अधिक लोगों की प्रकृति के लिए यहां की जलवायु अनुकूल नहीं है। परंतु कफ़ और विशाद प्रकृति वालों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता इसलिए यहां हाथी, भैंसें और अन्य पशु आदि से रहते आये हैं।
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सुलतानों की राजधानी
लोदी अफ़गानों के शासन से पूर्व आगरा विशाल नगर था और खूब बसा हुआ था। यहां एक किला था जिसका वर्णन मसूद ने एक कसीदे में किया है, जो उसने सुलतान इब्राहिम के पुत्र की प्रशंसा में लिखा था। यह महमूद सुलतान महमूद गजनी का वंश था, इसको सुलतान इब्राहिम के पुत्र ने जीता था।
जब सिकंदर लोदी ने आगरा को जीत लेने की योजना बनाई तो वह दिल्ली से, जो भारत की राजधानी था, आगरा आया और वहीं रहने लगा। उस तारीख से आगरा की जनसंख्या और समृद्धि बढ़ने लगी और यह नगर दिल्ली के सुलतानों की राजधानी बन गया।
जब सर्वशक्तिमान अल्लाह ने भारत का राज्य इस यशस्वी वंश को प्रदान किया तो स्वर्गीय बादशाह बाबर ने सिकंदर लोदी के पुत्र इब्राहिम की पराजय और वध के बाद तथा हिन्दुस्ताँ के प्रमुख राजा राणा सांगा पर विजय प्राप्त करने के पश्चात यमुना नदी के पूर्वी तट पर आराम बाग बनवाया, जिसकी समानता सुंदरता की दृष्टि से गिनती के स्थान ही कर सकते हैं।
उसने उसका नाम ‘गुलअफशा’ रखा और उसमें कटे हुए लाल पत्थर की एक छोटी सी इमारत बनवाई और एक मस्जिद बनवाई। उसका विचार था कि इसके एक ओर एक विशाल भवन बनाया जाए, परंतु समय ने उसका साथ नहीं दिया और उसकी योजना कभी कार्यान्वित नहीं हुई।
आगरा में खरबूजे, आम और अन्य फल खूब पैदा होते हैं। मुझे आम बहुत अच्छा लगता है। मेरे पिता के राज्य में दूसरे देशों के फल भी यहां मिलते थे। साहिबी कबशी और किशमिशी नाम के अंगूर कई कस्बों में साधारणतया मिलने लगे थे।
अंगूरों की फसल के समय लाहौर में सब प्रकार के अंगूर मिलते थे। फलों में अनानास बड़ा सुगंधित होता है और यह फ्रांस के बंदरगाहों पर जाता है। अब आगरा के बाद में भी हर साल हजारों पैदा होते हैं।
आगरा के निवासी कारीगरी का काम और विद्या की खोज में बड़ा मेहनत करते हैं। प्रत्येक धर्म और संप्रदाय के विभिन्न विद्वानों ने इस नगर में रहना शुरू कर दिया है।
शाही तख्त पर बैठने के बाद मैंने प्रथम आदेश यह दिया कि एक न्याय श्रृंखला लगाई जाए। यदि न्याय विभाग के लोग विलंब या मिथ्याचार करें तो उत्पीड़ित लोग इस जंजीर को खींचे और मेरा ध्यान आकर्षित करें।
मैंने उन लोगों को आदेश दिया कि वह जंजीर शुद्ध सोने की और 30 गज लंबी बनाई जाए। इसका वजन 4 भारतीय मन होना चाहिए। जिसका एक छोर आगरा के शाह बुर्ज पर लगाया जाए, और दूसरा एक पत्थर के स्तंभ से जो नदी के तट पर स्थित हो, वहां लगा दिया जाए…!
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लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।