‘मकबूल’ अदाकार इरफ़ान खान आज जिंदा होते, तो वे अपना 54वां जन्मदिन मना रहे होते। बीते साल 29 अप्रेल को वे हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए थे। अदाकारी के मैदान में आलमी तौर पर उनकी जो शोहरत थी, ऐसी शोहरत बहुत कम अदाकारों को नसीब होती है। वे अदाकारी की इब्तिदा थे, तो इंतिहा भी।
सहज और स्वाभाविक अभिनय उनकी पहचान था। स्पॉन्टेनियस और हर रोल के लिए परफेक्ट! मानो वो रोल उन्हीं के लिए लिखा गया हो। उन्हें जो भी रोल मिला, उसे उन्होंने बखूबी निभाया। उसमें जान फूंक दी।
इरफ़ान की किस फिल्म का नाम लें और किस को भुला दें? उनकी फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें उन्होंने अपनी अदाकारी से कमाल किया है। ‘मकबूल’, ‘हैदर’, ‘मदारी’, ‘सात खून माफ’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘तलवार’, ‘रोग‘, ‘एक डॉक्टर की मौत‘ आदि फिल्मों में उनकी अदाकारी की एक छोटी सी बानगी भर है।
यदि वे और जिंदा रहते, तो उनकी अदाकारी के खजाने से ना जाने कितने मोती बाहर निकल कर आते।
राजस्थान के छोटे से कस्बे टोंक के एक नवाब खानदान में 7 जनवरी 1967 को पैदा हुए, इरफ़ान खान अपने मामू रंगकर्मी डॉ. साजिद निसार का अभिनय देखकर, नाटकों के जानिब आए। जयपुर में अपनी तालीम के दौरान वे नाटकों में अभिनय करने लगे।
जयपुर के प्रसिद्ध नाट्य सभागार ‘रवींद्र मंच’ में उन्होंने कई नाटक किए। उनका पहला नाटक ‘जलते बदन‘ था। अदाकारी का इरफ़ान का यह नशा, उन्हें ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ यानी एनएसडी में खींच ले गया। एनएसडी में पढ़ाई के दौरान अपने फादर के इंतिकाल के बाद, उन्हें काफी माली परेशानियां झेलना पड़ीं।
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शुरुआत में मिले यादगार रोल
एक वक्त, उन्हें घर से पैसे मिलने बंद हो गए। एनएसडी से मिलने वाली फेलोशिप के जरिए, उन्होंने साल 1987 में जैसे-तैसे अपना कोर्स खत्म किया। बहरहाल नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने इरफ़ान की एक्टिंग को निखारा। उन्हें एक्टिंग की बारीकियां सिखाईं, जो आगे चलकर फिल्मी दुनिया में उनके बेहद काम आईं।
एनएसडी में पढ़ाई के दौरान इरफ़ान ने कई बेहतरीन नाटकों में अदाकारी की। रूसी नाटककार चिंगीज आत्मितोव के नाटक ‘एसेंट ऑफ फ्यूजियामा’, मेक्सिम गोर्की के नाटक ‘लोअर डेफ्थ्स’, ‘द फैन’, ‘लड़ाकू मुर्गा’ और ‘लाल घास पर नीला घोड़ा’ आदि में उन्होंने अनेक दमदार रोल निभाए।
स्टेज पर अभिनय करते-करते, वे टेलिविजन के पर्दे तक पहुंचे। उन दिनों राष्ट्रीय चैनल ‘दूरदर्शन’ शुरू-शुरू ही हुआ था और उसके नाटक देशवासियों में काफी पसंद किए जाते थे। इरफ़ान ने यहां अपनी किस्मत आजमाई और इसमें वे खासा कामयाब हुए।
गीतकार-निर्देशक गुलजार के सीरियल ‘तहरीर’ से लेकर ‘चंद्रकांता’, ‘श्रीकांत’, ‘चाणक्य’ ‘भारत एक खोज’, ‘जय बजरंगबली’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘सारा जहां हमारा’, ‘स्पर्श’ तक उन्होंने कई सीरियल किए और अपनी अदाकारी से दर्शकों की वाह–वाही लूटी।
‘चाणक्य’ में सेनापति भद्रसाल और ‘चंद्रकांता’ में बद्रीनाथ और सोमनाथ के रोल भला कौन भूल सकता है? उन्हीं दिनों इरफ़ान ने टेली फिल्म ‘नरसैय्या की बावड़ी’ में नरसैय्या का किरदार भी निभाया था। टेलीविजन में अदाकारी, इरफ़ान खान की जुस्तजू और आखिरी मंजिल नहीं थी। उनकी चाहत फिल्में थीं और किसी भी तरह वे फिल्मों में अपना आगाज करना चाहते थे।
बहरहाल इसके लिए उन्हें ज्यादा लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। साल 1988 में निर्देशक मीरा नायर ने अपनी फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ में इरफ़ान को एक छोटे से रोल के लिए लिया। फिल्म रिलीज होने तक यह रोल और भी छोटा हो गया। जिससे इरफ़ान निराश भी हुए।
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फिल्मों से मिली पहचान
बावजूद इसके उनका यह रोल दर्शकों और फिल्म समीक्षकों दोनों को खूब पसंद आया। फिल्म ऑस्कर अवॉर्ड के लिए भी नॉमिनेट हुई, जिसका फायदा इरफ़ान को भी मिला। अब उन्हें फिल्मों में छोटे-छोटे रोल मिलने लगे।
फिल्मों में केंद्रीय रोल पाने के लिए इरफ़ान को एक दशक से भी ज्यादा वक्त का इंतजार करना पड़ा। साल 2001 में निर्देशक आसिफ कपाड़िया की फिल्म ‘द वॉरियर’ उनके करियर की टर्निंग प्वाइंट साबित हुई। इस फिल्म से उन्हें जबर्दस्त पहचान मिली। ये फिल्म अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी प्रदर्शित की गई। उनकी इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति पर बॉलीवुड का भी ध्यान गया।
निर्देशक विशाल भारद्वाज ने अपनी फिल्म ‘मकबूल’ के अहम किरदार के लिए उन्हें चुना। साल 2003 में यह फिल्म रिलीज हुई और उसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं। पंकज कपूर, तब्बू, नसिरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पीयूष मिश्रा जैसे मंजे हुए अदाकारों के बीच इरफ़ान ने अपनी अदाकारी का लोहा मनवा लिया।
साल 2004 में वे ‘हासिल’ फिल्म में आए। इस फिल्म में भी उन्हें एक नेगेटिव किरदार मिला। इस निगेटिव रोल का दर्शकों पर इस कदर जादू चला कि उन्हें उस साल ‘बेस्ट विलेन‘ का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला।
जाहिर है कि ‘मकबूल’ और ‘हासिल’ के इन किरदारों ने इरफ़ान को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया। एक बार उन्होंने शोहरत की बुलंदी छुई, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
अपने एक पुराने इंटरव्यू में इरफ़ान ने खुद कहा था, “उनके करियर में सबसे बड़ी चुनौती, उनका चेहरा था। शुरुआती दौर में उनका चेहरा लोगों को विलेन की तरह लगता था। वो जहां भी काम मांगने जाते थे, निर्माता और निर्देशक उन्हें खलनायक का ही किरदार देते। जिसके चलते उन्हें करियर के शुरुआती दौर में सिर्फ निगेटिव रोल ही मिले।”
लेकिन अपनी मेहनत और दमदार एक्टिंग से वे फिल्मों के मुख्य किरदार नायक तक पहुंचे और इसमें भी कमाल कर दिखाया। हां, इसकी शुरुआत जरूर छोटे बजट की फिल्मों से हुई। एनएसडी में उनके जूनियर रहे निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर‘ से उन्हें वह सब कुछ मिला, जिसकी वे अभी तक तलाश में थे।
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आंखें भी करती अभिनय
फिल्म न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट साबित हुई, बल्कि इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। ‘पान सिंह तोमर‘ के बाद उन्होंने एक के बाद एक कई हिट फिल्में दीं। ‘हिन्दी मीडियम’, ‘लंच बॉक्स’, ‘चॉकलेट’, ‘गुंडे’, ‘पीकू’, ‘करीब करीब सिंगल’, ‘न्यूयार्क’, ‘लाइफ इन ए मेट्रो’, ‘बिल्लू बार्बर’ आदि फिल्मों में उन्होंने अपने अभिनय से फिल्मी दुनिया में एक अलग ही छाप छोड़ी।
शारीरिक तौर पर बिना किसी उछल-कूद के, वे गहरे इन्सानी जज्बात को भी आसानी से बयां कर जाते थे। हॉलीवुड अभिनेता टॉम हैंक्स ने उनकी अदाकारी की तारीफ करते हुए एक बार कहा था, “इरफ़ान की आंखें भी अभिनय करती हैं।”
वाकई इरफ़ान अपनी आंखों से कई बार बहुत कुछ कह जाते थे। आहिस्ता-आहिस्ता अल्फाजों पर जोर देते हुए, जब फिल्म के पर्दे पर वे शाइस्तगी से बोलते थे, तो इसका दर्शकों पर खासा असर होता था। इरफ़ान बॉलीवुड के उन चंद अदाकारों में से एक हैं, जिन्हें हॉलीवुड की अनेक फिल्में मिलीं और उन्होंने इन फिल्मों में भी अपनी अदाकारी का झंडा फहरा दिया।
‘अमेजिंग स्पाइडर मैन‘, ‘जुरासिक वर्ल्ड‘, ‘द नेमसेक’, ‘अ माइटी हार्ट’ और ‘द इन्फर्नो‘ जैसी हॉलीवुड की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुपर-डुपर हिट रही फिल्मों का वे हिस्सा रहे। डैनी बॉयल की साल 2008 में आई ‘स्लमडॉग मिलेनियर‘ को आठ ऑस्कर अवॉर्ड्स मिले। जिसमें उनकी भूमिका की भी खूब चर्चा हुई।
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हमेशा पॉजिटिव रवैया
यही नहीं ताईवान के निर्देशक आंग ली के निर्देशन में बनी फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई’ ने भी कई अकेडमी अवॉर्ड जीते। अपनी एक्टिंग के लिए इरफ़ान को अनेक अवार्डों से नवाजा गया। साल 2004 में ‘हासिल’, साल 2008-‘लाइफ इन अ मेट्रो’, साल 2013-‘पान सिंह तोमर’ और साल 2018 में ‘हिंदी मीडियम’ के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। साल 2011 में भारत सरकार ने इरफ़ान को ‘पद्मश्री’ सम्मान से सम्मानित किया।
इरफ़ान खान ने अपने आखिरी दो साल ‘न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर’ नामक खतरनाक बीमारी से जूझते हुए बिताए। जिंदगी के जानिब उनका रवैया हमेशा पॉजिटिव रहा। इतनी गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी, उन्होंने कभी अपनी हिम्मत नहीं हारी।
यह उनकी बेमिसाल हिम्मत और जज्बा ही था कि साल 2019 में वे विदेश से इलाज के बाद मुंबई वापस लौटे। वापस लौटकर ‘इंग्लिश मीडियम’ फिल्म की शूटिंग पूरी की। साल 2020 की शुरुआत में यह फिल्म रिलीज हुई।
जब ऐसा लग रहा था कि उन्होंने अपनी बीमारी पर काबू पा लिया है। वे जिन्दगी की जंग जीत गए हैं, कि अचानक उनकी मौत की खबर ने सभी को चौंका दिया।
इरफ़ान खान आज भले ही जिस्मानी तौर पर हमसे जुदा हो गए हों, लेकिन अपनी लासानी अदाकारी से वे अपने चाहने वालों के दिलों और जेहन में हमेशा जिंदा रहेंगे।
जाते जाते :
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।