उदगीर एक बहोत पुरानी बस्ती है, जो किसी जमाने में एक शहर होगा। स्वतंत्रता से पहले यह बिदर जिले का एक तालुका हुआ करता था। अब यह तालुका लातूर जिले में शामील कर लिया गया है। स्थानिक लोगों का मानना है की, यह बस्ती शायद 800 साल से पुरानी है।
यह सिर्फ लोगों की आस्था नहीं बल्की इसमे सच्चाई भी है। क्योंकी इस शहर में कई इमारतें, विरान खंडहर और एक विशाल किला मौजुद है। कहा जाता है एक ब्राम्हण फकीर ने यहा एक झोपडी डाली थी। चंद दिनों बाद आबादी बढने लगी और इसी फकीर के नामसे जिसका नाम ‘उदयगीर’ था, इस शहर का नाम रखा गया।
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ऐतिहासिक महत्त्व
इस शहर में बने किले को काफी ऐतिहासिक महत्त्व है, कहा जाता है की इस किले को ‘बरिदशाही’ सल्तनत में बनाया गया होगा। मगर कुछ फारसी लिखित साधनो के जरिए यह किला ‘सल्तनत ए बहमनी’ में बनाए जाने की बात कही जाती है। मात्र किस बहमनी बादशाह ने यह किला बनाया होगा, इस संदर्भ कोई ठोस सबुत नहीं मिलते।
कासीम बरीद जब 1503 बिदर का बादशाह बना तो उसने अपने बेटे अमीर बरीद को यह किला सुपुर्द किया था। सन 1517 में अमीर बरीद और महावर का जागीरदार खुदावंद खाँ हबशी के बीच इस किले पर लडाई हुई, जिसमें वह हबशी मारा गया। उस हबशी की मौत के बाद अमीर बरिद के पास यह किला कायम रहा।
सन 1530 में अमीर बरिद ने बिदर बिजापूर के आदिलशाह खिलाफ जंग लडी और गिरफ्तार हो गया, इसके बाद आदिलशाह ने अमीर बरिद की जान बख्श दी और उसे रिहा कर दिया।
उसके बाद फिर अमीर बरिद इसी किले में रहने लगा। कुछ दिन बाद बरार का गवर्नर इमादुलमुल्क ने शिफारीश कर अमीर बरिद को आदिलशाह के जरिए बिदर की बागडौर सौंपी, उसके बाद वह बिदर चला गया।
अमीर बिरद के बाद अली बरिद इस किले का प्रमुख बन गया। सन 1545 में अली बरिद के साथ औसा और उदगीर के किले के पास बुरहान निजामशाह से जंग हुई, जिसमें अली बरीद पराभूत हुआ।
इस हार के बाद यह दोनों किले बुरहान निजामशाह के सुपुर्द कर दिए गए। उसी वजह से उदगीर के किले में कुछ जगह बुरहान निजामशाह के शिलालेख दिखाई पडते हैं।
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कैसी हैं रचना
उदगीर का किला आज भी दुरुस्त हालात में मौजुद है, जिसके चार बुरुज है, साथही 15 छोटे बुरुज हैं जिनका नाम अब कोई बता नहीं सकता। इनमें
1) जमना बुरुज – इसपर दो तोपें मौजूद हैं, इनमें एक तोपपर कुछ लिखावट मौजूद है, मगर अपाठ्यस्वरुप में है।
2) मांग बुरुज।
3) गुप्ती बुरुज – इसपर एक तोप है।
4) फतेह बुरुज – इसपर भी एक तोप रखी हुई है।
इन तोपों के अलावा किले में घोडे के तबेले, शस्त्रागार मौजूद हैं, और एक तोप भी किले में रखी हुई है।
उदगीर किले की तरह शहर में भी कई पुरानी इमारते हैं, जो आज खंडहर में तब्दील हुई हैं। इन खंडहरों पर से इनकी मूल स्थिती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इस शहर में पुरानी 14 बावलीयां मौजूद हैं, जिनके नाम हैं,
1) निची बावली – इसमें तीन सिढीयां लगी हुई हैं, जिसकी वजह से इस तीन सिढीयों की बावली भी कहा जाता है, इसका पानी स्वतंत्रतापूर्व काल में सिर्फ दो गज सतह पर निचे हुआ करता था।
2) बुत बावली – इसे दुधा बावली भी कहते हैं, क्योंकी इसका पानी काफी मिठा और साफ है।
3) बेर सिंधी बावली
4) हजरत चाँद साहब की दर्गाह कि बावली
5) कुंडा बाग की बावली
6) राजमुहंमद की बावली
7) खतीब साहब की बावली
8) मर्खन गली की बावली
9) धर्मसेन की बावली
10) मोमीन गली की बावली
11) देशमुख बाग की बावली
12) धय्यापूर बावली
13) रुस्तुम बावली
14) रेगडी बावली इन बावलीयों के साथ कुछ हमाम भी इस शहर में पाए जाते थे, जिनका जिक्र किताबों में मिलता है, मगर इसका अस्तित्व आज शहर में कहीं नजर नहीं आता।
इस शहर में दखन के कई प्रख्यात सुफी भी निवास कर चुके हैं, इनमें से हजरत ख्वाजा सदरुद्दीन बादशाह कादरी, हजरत चाँद साहब कि दर्गाह शहर में है। साथही उदयगीर स्वामी का मंदिर भी है, हो सकता है, यह वही उदयगीर ब्राम्हण फकीर हों जिनके नामसे इस शहर का नाम रखा गया।
(बशिरुद्दीन अहदम दहेलवी का यह लेख पहिली बार सन १९१४ में लिखा गया था, उसमें कुछ संपादित बदलाव के साथ यहां प्रकाशित कर रहे हैं।)
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