इन दिनों महाराष्ट्र कि सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले औरंगाबाद के शहर की चर्चा आम हैं। बीते तीन दशक से इस शहर के नाम बदलने कि कोशिशे चल रही हैं। पर इस शहर के विकास का इतिहास क्या हमें ज्यादा कुछ पता नही है। इतिहास में यह शहर और परिसर यादव, खिलजी, बहमनी, निज़ामशाही, मुग़लिया और आसिफजाही दौर का खास था।
वैसे बता दे कि इस शहर का निर्माण औरंगजेब ने नही बल्कि निज़ामशाही के वजीर मलिक अम्बर ने ईसवीं सन 1616 में किया था। उसने निज़ामशाही के प्रधानमंत्री के रूप में ईसवीं सन 1610 में मुग़ल शासक जहांगीर कि सेना को दौलताबाद के करीब पराजित किया।
दकनी इतिहासकार मानते हैं, मुग़लिया सेना के हमेशा के लिए रोकने के उद्देश से उसने यहीं अपना डेरा जमा लिया और एक नगर का निर्माण शुरु किया। उसने इसको निजामशाही सेना कि छावणी बनाया। जब नगर बनाने कि कल्पना अस्तित्व में आयी तो उसने दूरदृष्टी के साथ रचना की।
यहीं वजह हैं की आज इसका भौगोलिक विस्तार काफी बड़ा हैं। यही वजह हैं की मलिक अम्बर कोआज के ‘आधुनिक औरंगाबाद का इंजिनियर’ भी कहा जाता हैं। मलिक अम्बर ने परिसर के भूगोल के हिसाब से शहर की नींव रखी थी। इतिहासकारों का मानना हैं की, यह परिसर पथरिला हैं, जिसकी वजह से शहर का नाम ‘खड़की’ यानी पथरिला रखा गया।
खुलताबाद स्थित चिश्तिया कॉलेज के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर ग़णी पटेल मानते हैं की, “खाम नदी, दुधना व्हॅली और यहां के खड़क को ध्यान मे रखकर नये शहर के लिए इस जगह का चुनाव किया गया हैं।”
वहीं दुलारी कुरेशी जो बामू विश्वविद्यालय कि टूरिझम विभाग कि पूर्व प्रमुख और जानी मानी इतिहासकार हैं, कहती हैं, “मलिक अम्बर के दैर में यहां मुस्लिम, राजपूत, मराठा, कायस्थ, पंजाबी, गुजराती आदी अलग अलग भाषा के और धर्मों के लोग काफी तादाद मे बसते थे।”
कुरेशी ने ‘The social religious Fabric or Arunagabad from Historical Perspective’ शीर्षक से एक शोधनिबंध जून 2015 में खुलताबाद के चिश्तिया कॉलेज में पढ़ा था। जिसमें शहर के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास पर जोर देकर यहां के मिश्र संस्कृति को रेखांकित किया था।
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क्या हैं इतिहास?
औरंगाबाद शहर के नामकरण को लेकर सर्वमान्य तथ्य ये हैं की, जब औरंगजेब दकन के सुबेदार के रुप मे जब यहां आया, तो उसने अपनमे नाम पर शहर का नाम बदल दिया। मगर इस नाम को लेकर इतिहासकारों मे कई धारणाए हैं।
शिवाकांत बाजपेयी जो कभी औरंगाबाद के केंद्रीय पुरातन विभाग में अधिकारी थे, उन्होंने ‘शहर ए औरंगाबाद’ नाम से एक किताब लिखी हैं, उसमें वह बताते हैं,
“प्राचीन ब्राह्मी अभिलेख में जिसमें पैठण (प्राचीन प्रतिष्ठान) के राजतालका गुफाओ का वर्णन मिलता हैं। पैठण सातवाहनों के कि व्यापारिक राजधानी था और उसका एक महत्त्वपूर्ण तालुका राजतालका (वर्तमान औरंगाबाद) था।”
वह आगे यह भी बताते हैं कि, प्राचीन राजतराड़ग या राजतालका क्षेत्र में स्थित खड़की या खिड़की गाँव का जिक्र मिलता हैं। उनकी माने तो तो राजतालका नगर में खड़की गाँव (नगर) का निर्माण हुआ हैं। मतलब मलिक अम्बर ने जो नगर बसाया था वह राजतालका के आसपास ही था।
मध्यकाल में मध्यकालीन महाराष्ट्र में ऐतिहासिक राजधानियों के कई सारे शहर थे। यहाँ अलग-अलग बादशाहों द्वारा सत्ता बदल हुआ, जिसके चलते यहां काफी बदलाव हुये।
ईसवीं सन 1296 तक महाराष्ट्र में यादव की सत्ता की प्रबल और सामर्थ्यशाली सत्ता थी। परंतु अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद यादव का शासन खत्म हुआ और खिलजी घरानों की सत्ता अस्तित्व में आयी।
तब से लेकर दक्षिण के राजनीति में मुसलमानों की सत्ता पर स्थापित करने की कोशिशें होती रही। खिलजी के बाद तुगलक घरानों की सत्ता बनी। आगे 14 शताब्दी में 1307 में बहमनी राज्य की स्थापना दक्षिण में हुई।
कालांतर के बाद दकन के 5 टुकड़े हुए। जिससे पांच शाही (आज़ाद सत्ता) अस्तित्व में आयी। जिसमें अहमदनगर की निजामशाही, बीजापुर की आदिलशाही, बीदर की बरीदशाही, गोलकुंडा की कुतुबशाही और बरार (वराड) की इमादशाही।
ग़णी पटेल अपनी मराठी किताब ‘औरंगाबाद तटबंदी आणि दरवाजे’ में लिखते हैं, “मध्यकाल के शुरुआती दौर में इस शहर को ‘रजतगड़’ पुकारा जाता था। 17वी शताब्दी के शुरुआत में इसका नाम ‘कटक’ (Kataka) या ‘रजतगड़’ था। कटक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ राजधानी होता हैं। इसे हम सैनिक छावणी कह सकते हैं।”
अपनी इसी किताब में पटेल कहते हैं, “औरंगाबाद शहर मुख्य रूप से पथरीली यानी वे बेसॉल्ट पत्थर पर बना है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस जगह कई बार भूकंप आया होगा, जिसकी वजह से शीला रस बाहर निकला होगा। यह परिसर साधारण 20,00,000 चौरस मिल फैला हुआ है।”
भौगोलिक रूप से देखें तो यह सारा परिसर पथरीला है और इस बात से यह साफ होता है कि यह शहर खड़क यानी पत्थर के ऊपर बसा है। जिस खड़क पर शहर बसा है उसे हम खड़की कहते हैं। हेन्री ब्रेवरीज ‘दि तुझ्क जहांगिरी’ में लिखते हैं, खड़क पर बने होने से इस शहर का नाम खड़की हुआ।
बहरहाल खड़की को मलिक अम्बर ने ईसवीं 1610 से 1616 तक यानी छह सालों मे विकसित किया। यह जगह दौलताबाद के समीप पूर्व और कुछ उत्तर की दिशा में था। इस जगह की जनसंख्या काफी कम थी, लिहाजा मलिक अम्बर ने उसे बढ़ाने के लिए तमाम कोशिशें की। इसी वास्ते शहर का दूर की दिशाओं तक भौगोलिक विकास भी किया।
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बीस साल में हुआ विकास
बाजपेयी अपनी किताब मे लिखते हैं, मलिक अम्बर नें छह सालों मे इस नगर को अच्छी तरह विकसित किया। इस बिच उसने नवखंडा, जनाना महल, दीवान ए खास, दिवान ए आम, काला चबुतरा, भड़कल गेट इत्यादी वास्तुओं का निर्माण किया। विशेष रूप से उसने नहरी अम्बरी कि अद्भूत रचना कि, जो पहाडियों से नगर में पानी कि सुविधा उपलब्ध कराती हैं।
यहीं नही मलिक अम्बर ने शहर के सुरक्षा के लिए एक बड़ी सीमा बनवाई थी। कहते हैं, नगर के सुरक्षा के लिए इस तरह कि सीमाएं बनवाना इतिहास में पहली बार अमल में लाया गया था। इस सीमा से मतलब था कि शहर को दुश्मनों से बचाया जाए। आगे चलकर ईसवीं सन 1607 से 1608 में खड़की निजामशाही की सैनिक छावनी के रूप में पहचाना जाने लगा था।
लश्करी सुविधाओं के लिए 1612 में इस शहर को पूर्व नियोजित ढंग से विकास किया गया। मलिक अम्बर ने सर्वोत्तम कारागीर और पेशेवरों को बुलाकर 20 साल में इस शहर को लगभग एक मुकम्मल रूप दे दिया।
जमीन के अंदर पानी सप्लाई की के लिए ‘नहर ए अंबरी’ सन 1624 में मुकम्मल की गई। इस नहरों से नगर के आम लोगों को बहुत फायदा हुआ। इसी तरह बाजार छोटे तालाब, जलाशय, रस्ते, विविध इमारते, बागीचे भी बनवाए।
1626 मे मलिक अम्बर का निधन हुआ। जिसके बाद उसके लड़के फत्तेहखान ने इस शहर को अपना नाम ‘फतेहनगर’ दिया। उसने मुगल शासको को फिर एक बार यहां से खदेड़कर शहर के विकास मे किए मानदंड स्थापित किये।
इसवीं सन 1636 में औरंगजेब बतौर दकनी सुबेदार के रुप में यहां दाखिल हुआ। इससे पहले शहर अच्छे ढंग से विकसित हुआ था। मुग़ल सरदार शाहनवाज खान फत्तेह खान को पराजित किया, इस तरह यह प्रदेश मुगलों के अधीन हुआ।
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खुजिस्त बुनियाद
मुग़लिया सल्तनत ने भी शहर के विकास में चार चांद लगाए। शहर को और भी खुबसुरत बनाने का काम हुआ। शहर में खुबसुरत बागिचे बनाये, नदियों का विकास किया, रस्ते, बाजार बनाये गये।
वहीं औरंगजेब के दौर के खतो-किताबत से पता चलता हैं कि इस शहर को ‘खुजिस्त बुनियाद’ भी कहा जाता था। ‘अहकामें आलमगिरी’ किताब में औरंगजेब के सचिव इनायतुल्ला खान का एक खत हैं, जिसमे वो अपने किसी सेनाधिकारी को कहता हैं, “खुजिस्त बुनियाद की तरफ जाना बेजां हो सकता है..”
इतिहासकार मानते हैं, कि इस खत में इनायतुल्ला खड़की शहर कि ओर इशारा कर रहा था। इससे यह साफ होता हैं कि औरंगजेब कि दौरे हुकूमत में इस शहर को खड़की नाम से ही बुलाया जाता था या फिर किसी अलग नाम से!
मुग़ल सल्तनत की दकन की राजधानी दौलताबाद यानी देवगिरी थी। जब औरंगजेब दौलताबाद से फतेहनगर (खड़की) शहर आया और 28 मई 1644 तक औरंगाबाद में ही रहा, यानी कुल 10 साल वह यहां रहा। औरंगजेब ने तीन और सिमाएं जोडकर शहर को और ज्यादा सुरक्षित किया। 1682 तक चारों सिमाए बनकर खड़ी हो गयी थी।
प्रो. ग़णी पटेल मानते हैं की, आसिफजाही हुकूमत के दौर में इस शहर को औरंगजेब के नाम के साथ जोड़कर यानी ‘औरंगाबाद’ पुकारा जाने लगा। इसकी वजह बताते हुए वह कहते है की, औरंगजेब के दौर को याद करते हुए यह नाम पुकारा जाने लगा।
निजाम उल मुल्क आसिफजाह मुग़लिया सत्लनत का दकनी सुबेदार था। औरंगजेब के मौत के बाद दिल्ली कि सल्तनत में तख्त के लड़ाई के लिए कोहराम मच गया।
दिल्ली का हाल देखकर कई सरदारों ने अपने सुबे को आज़ाद घोषित कर अपनी हुकूमत स्थापित की, उसमे निज़ाम उल मुल्क भी एक था।
जब निज़ाम ने दकन को आज़ाद घोषित किया, तो उसने भी अपनी राजधानी के रूप में औरंगाबाद का चुनाव किया। उसने भी शहर में कई नये इमारते, मंदिर और मस्जिदों का निर्माण किया। रस्तो कि चौडाईकरण कर बागिचो का निर्माण किया। आगे चलकर तिसरे निजाम के दौर में दकन की राजधानी हैदराबाद हुयी।
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खासियतों का शहर
आसिफजाह (तिहरा) सिकंदर जहां ने बार बार होते हमलों और दुश्मनों के नजर से हुकूमत को बचाने के लिए राजधानी को ईसवीं 1762 में औरंगाबाद बदलकर हैदराबाद शिफ्ट किया। जिसके बाद शहर से सबका ध्यान हट गया। पर शहर अपनी रफ्तार से सुचारू रूप से बढ़ रहा था। लिहाजा शहर को हर तरह खुबसुरत बनाने कि कोशिशे हर एक शासक तथा सरदार ने की हैं।
औरंगाबाद के विकास में ऐतिहासिक दृष्टि से अगर देखा जाए तो अरब राष्ट्रों साथ ही मिस्र, उत्तर अफ्रीका, चिल्ली, स्पेन, जेरूसलम की धर्ती पर इस शहर को खड़ा किया गया। इन प्रसद्धि शहरों कि तरह ही इस शहर में आलिशान इमारतों का निर्माण किया गया है।
इतिहास बताता है कि बगदाद शहर 10,00,000 कारागिरों के सहायता से बनाया गया एक सुनियोजित शहर है। उसके चारों दिशाओं मे मजबूत सिमाएं है। इसी धरती पर औरंगाबाद शहर में सीमा दीवारें तथा प्रवेश द्वार बनाए गए हैं। इससे साफ होता है कि 17वीं शताब्दी में औरंगाबाद शहर अरबी तंत्रज्ञान के आधार पर विकसित किया गया है।
दुलारी कुरैशी ‘Tourism Potential in Aurangabad: With Ajanta, Ellora and Daultabad’ किताब में लिखती है, “हर दौर में औरंगाबाद शहर के विकास की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। इस काल में मुस्लिम और हिंदू स्थापत्य कलाकारों के द्वारा कई सारे वास्तुओ को तैयार किया गया हैं।”
शहर की खासियत के बारे में बताएं तो शहर के भव्य दरवाजे और मजबूत सीमाएं और उप सीमाएं। दुसरी खासियत यहां कि नदियां जिसे हर शासक ने विकसित और साफ-सुथरी रखने का काम किया। खाम नदी जो आज पुरी तरह सुख चुकी हैं, मध्यकाल में ये नही यहा के लोगों के लिए एक संजिवनी थी।
52 दरवाजे का शहर आज भी सांस्कृतिक और उद्ममी नजरिये से देखे तो काफी महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र के सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी से पहचाना जाता है। यहां कि संस्कृति विभिन्न महाराष्ट्र से काफी अलग और विशेष हैं।
जाते जाते :
- आज भी अपनी महानतम सभ्यता को संजोए खडा हैं परंडा किला
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।