बीते दिनों हमारा ‘सफरनामा’ शाहनूर दैरे पर था। उस दिन साथ में मेरे दोस्त मुश्ताक अहमद कोप्पल और मेरे साथी तनवीर शरीफ भी थे। बेंगलुरु से करीब 365 किलोमीटर दूर हुबली जाने के रास्ते पर हवारी जिलें में स्थित यह जगह हैं। ये एक छोटा सा मगर बहुत खूबसूरत सा गांव है, जिसको सावनूर (Savanur) भी कहते है।
सावनूर नाम को फारसी शब्द ‘शाहनूर’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है ‘रोशनी का बादशाह’ होता हैं। कुछ अन्य लोगों का दावा है कि यह जगह हिन्दू सावन महीने में स्थापित किया गया था और इसलिए इसका नाम ‘सावनूर’ है। खैर।
इस गांव में कई सारे औलिया इकराम, तकरीबन 400 से ज्यादा बुजुर्ग मौजूद थे। उनके स्मृति में बने उनके मकबरे और कई मजारे इस जगह आज भी मौजूद है। जो अपने होने की निशानिया मकबरों से बयां करती हैं।
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नवाबों का शहर
शाहनूर को उस जमाने के नवाबों के साथ जोड़ा जा सकता है। जिनकी कई सारे पूश्ते वहां पर अपनी हुकूमत किए हुए हैं। जिन के बारे कई जानकारीयों आपको यहां मिल जाएगी। इसी तरह कुछ मालूमात वहां के एक पुराने मस्जिद जिसे ‘आसार मस्जिद’ के नाम से जानते हैं, उसके पास के एक कब्रिस्तान में मौजूद। जो पूरी तरह से तबाह हो चुकी हैं।
इस जगह एक खंडहर है, जिसे हम ‘नवाबों किला’ कह सकते हैं। उसका एक खूबसूरत सा दरवाजा मुसाफिरों को खुशामदीद कहता है। जिस पर फारसी जुबान में कुछ लिखा हुआ था, मगर हरियाली उगने के वजह से कुछ दिखाई नहीं दे पाया।
उस छोटे से गांव में बहुत सारी खूबसूरत से किले की दीवारें, पुराने हमाम खाने और ब्रिटिश जमाने के कई सारे मकान, बहुत सारे दरगाह, कब्रस्तान, पुरानी मसाजिद जिसको मिसमार कर नयी-नयी मसाजिद भी खड़ी की गई है। आशूर खाने, पुराने कुंए और बहुत सारी खंडहर और लावारिस इमारतों के निशान दिखाई देते हैं। जाहिर हैं उन बचे-कुचे इमारतों के आसपास गंदगी भी दिखाई पड़ती है।
दिन भर घूमने के बाद हमें इस बात का एहसास हुआ कि इस गांव की रौनक पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। ऐसा लगता है कि किसी जमाने में वहां बड़ी सी दुर्घटनाएं हुई होंगी। जब हम वापस लौटे तो हमें इस बात का बड़ा अफसोस हुआ कि वहां पर मौजूद बहुत ही कीमती विरासत का बिल्कुल ख्याल नहीं रखा गया है और पूरी तरह से अंधेरे में है।
ऐसा भी लगता है कि आने वाले जमाने में वहां पर मौजूद जो विरासते है उसका नामोनिशान बिल्कुल खत्म होने वाला है।
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नवाबों की तारीख
अब्दुल करीम खान जो एक मियाना अफगान थे। मुगल शासक शाहजहां के यहां फौज में काम किया करते थे। वहां पर उनकी सेवा खत्म होने के बाद वहां की खिदमत छोड़कर ईसवीं 1672 में आदिलशाही दौर के अली आदिलशाह (Sultanat of Bijapur) के साथ आकर जुड़ गए।
उनके पोते अब्दुल करीम खान उर्फ बहलोल खान सिपेहसालार के हैसियत से बीजापुर में काम करने लगे। उन्हें सिकंदर आदिलशाह के जमाने में बहुत सारी जागीरे अता हुई।
यह जागीरे उनको पालेगार और जमादार के बगावत के रोकने के सबब में मिली थी। बहलोल खान के मौत के बाद उनके बेटे अब्दुल रऊफ सिपेहसालार की हैसियत से बीजापुर के फौज में काम करने लगे।
जैसे ही बीजापुर के सल्तनत मुगलों द्वारा बरखास्त हुई, तो उन्होंने वहां की कीमती शाही वस्तुंए तथा रॉयल टाइटल औरंगजेब के हवाले कर दिया। जिससे खुश होकर मुग़ल शासक ने उन्हें बंकापुर के आस पास बहुत सारे जमीन है और जागीरे इमान स्वरूप अता की।
कुछ साल बंकापुर को अपने पाए तख्त मानने के बाद वह से वे सावनूर आए। यहीं पर अपना पाया तख्त बनाकर अपना महल तामीर किया। उसके बाद वे वहां के नवाब के नाम से अब तक जाने जाते हैं।
सावनूर का कुछ हिस्सा मैसूर के शासक हैदर अली सल्तनत का हिस्सा था। फिर बहुत बड़ा परिसर नवाबों के कब्जे में था। 1672 से लेकर अंग्रेजों चले जाने तक विभिन्न नवाबों के पास रहा। यहीं वजह हैं की इस जगह को ‘सावनूर के नवाब’ के रूप में पहचाना जाता हैं।
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बलादत उल औलिया
शाहनूर को हर तरह से ‘बलादत उल औलिया’ कहा जा सकता है। क्योंकि शहर में और आसपास सैकड़ों सूफी खानकाहे फैली हुई हैं। कस्बे में दाखिल होते ही, खुबसुरत गुम्बद और कमाने और मिनारे दूर-दूर से आने वालों का इस्तेखबाल करती हैं।
हर नुक्कड़ पर, आंगन में, नीम के पेड़ों की छाँव के नीचे, प्लेटफार्मों पर, कब्रिस्तानों के अंदर, अलग-अलग साईज की हरे मखमली कपड़ों में लिपटे हुए, मजारों पर फुलमालाए और पंखुड़ियों बिखरी दिखाई देती हैं। जिससे यह मालूम चलता हैं, मजारे यहां मौजूद सूफीयों तथा औलिया इकराम की हैं।
यह जगह सैलानीयों को अगरबत्तियों की गंध, फुलों की महक से खुशनूमा बना देती हैं। इतिहास को कुरेदों तो मालूम पड़ता हैं की यहां हजरत कासिम अली शाह, हजरत सैय्यद रोडे शाह कादरी, हजरत सईदा फिरती बीबी माँ साहेबा, हजरत सैय्यद खैरुल्लाह बादशाह जैसे मारूफ ओलिया कदमबोश हुए है।
यहां सालाना कई सारे उर्स मनाए जाते हैं। जिसके लिए दूर दराज से जायरीन यहां आते हैं। जायरीन यहां मौजूद हर दरगाहों में जाते हैं। इस मकाम के आसपास अनगिनत लोकप्रिय जगहें हैं। उनमें से कई मंदिर, मसाजिद अब खंडहर में बदल गए हैं। क्योंकि उनके बारे में जानकारी के कोई प्रामाणिक स्रोत उपलब्ध नहीं हैं।
एक मंदिर से दूसरे मंदिर में घूमते हुए, हमने उनके दावों का समर्थन जुटाने के लिए दस्तावेजों की तलाश की, लेकिन कुछ भी प्रमाण नही मिला न कुछ ठोस जानकारी हम प्राप्त कर सकें।
गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं की, यहां मौजूद लोगों के दिमाग ऐतिहासिक प्रमाण जुटाना नही चाहते, यहीं वजह हैं, सटीक जानकारी के साथ शहर में जानकारी देनेवाला कोई आदमी या किताबें नहीं हैं। शुक्र है कि कुछ लोग मिले जो कुछ न कुछ बताने को तैयार थे। पर समय की कमी के कारण हम उन तक नहीं पहुंच सके।
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लेखक बीजापूर स्थित पर्यटन प्रमी हैं। पुरानी ऐतिहासिक इमारतें और हेरिटेज संवर्धन के लिए कार्य करते हैं।