मौसिखी और अदब कि गहरी समझ रखने वाले आदिलशाही शासक

जब दकन की सबसे बडी सल्तनत बहमनी का खात्मा हुआ तो, कुछ सुबेदारों ने अपनी अलग अलग सल्तनतें कायम कर ली। इनमें एक ‘सल्तनत ए बिजापूर’ भी है। जिसे आदिलशाही राजवंश कहा जाता है।

यह सल्तनत वास्तविक मायनों में बहमनी की जानशीन कही जा सकती है। इसी सल्तनत ने बहमनी अदब को जिन्दा किया। आदिलशाही शासक संगीत के शौकिन थें। आज के इस आलेख में हम इसी बारे में चर्चा करेंगे। यह लेख मुमताज जहां बेगम ने 1929 में लिखा था। इसमें कुछ संपादित बदलाव के साथ प्रकाशित कर रहे हैं।

हमनी दरबार के भटके उलेमा और शायरों का आखरी ठिकाना बिजापूर ही था। आदिलशाही शासक शिक्षा का शौक रखते थे। विद्वान, संशोधक और शायरों को आश्रय देना इन्होने अपना अहम कर्तव्य मान लिया था। मगर यहा हम सिर्फ शायर रहे आदिलशाही बादशाहों के बारे में ही विचार करेंगे।-

यूसुफ आदिलशाह

सल्तनत आदिलशाही का संस्थापक यूसुफ आदिलशाह (Yusuf Adil Shah) का बचपन निहायत तंगहाली में गुजरा। बहमनी सल्तनत में यह एक गुलाम की हैसियत से आया था।

अपनी बहादूरी और काबिलीयत की बदौलत से इसने बादशाह की नजरों में एक अलग मुकाम हासील कर लिया। कुछ ही दिनों में तरक्की करते हुए सुभेदारी का रुतबा पा लिया।

जब बहमनी सल्तनत में आपसी झगडे होने लगे तो यूसुफ बिजापूर का सुबेदार था। इसने परिस्थिती को जल्द ही भांपते हुए, गैरमुल्की सिपाहीयों और अफसरों को अपने साथ कर लिया। और बाद में आदिलशाही सल्तनत की स्थापना की। इस खानदान ने शान शौकत से दो सौ साल तक राज किया।

यूसुफ आदिलशाह फारसी का मशहूर शायर था। उसे फन मौसिखी (संगीत) से बेहद दिलचस्पी थी। शायरों की हिम्मत अफजाई और कदरदानी का यूसुफ आदिलशाह को खास शौक था।

खुद मौसिखी के जलसों में शेर पढा करता था। दरबार में दूर दराज से आये विद्वानों को आमंत्रण दिया जाता था अदबी मेहमानों बादशाह के जानीब से किमती तोहफे नजर किए जाते थें। लगभग 20 साल तक शासन करने बाद उसका निधन हो गया।

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इस्माईल आदिलशाह  

नये बादशाह इस्माईल आदिलशाह अपने पिता यूसुफ आदिलशाह के बाद बहोत कम उम्र में तख्त पर बैठे। इसलिए शुरुआती दौर में कुछ सरदार मिलकर सल्तनत की कारोबार चलाते थे। इस्माईल आदिलशाह की शिक्षादिक्षा इनकी चाची के देखरेख में हुई, जो एक काबील और भविष्य की सोच रखने वाली इरानी औरत थीं।

इस्माईल आदिलशाह अपने पिता की तरह ज्ञानी थें। उन्हे भी विद्वानों से काफी लगाव था। खुद उस समय के प्रसिद्ध और आला शायर थें। वेवफाईइस तखल्लुस के साथ शायरी किया करते थे, मुसव्वीरी (चित्रकला) से भी लगाव था।

दानशूरता की वजह से विद्वानों और साहित्यिकों मे काफी लोकप्रिय थे। इसवीं 1534 में उसका देहांत हुआ। कई इतिहासकारों और विद्वानों ने इनकी तारीफ की हुई है।

इब्राहिम आदिलशाह (द्वितीय

इब्राहिम आदिलशाह (द्वितीय) अपने चचा अली आदिलशाह के बाद बिजापूर की गद्दी पर बैठे। अपने चचा की तरह ही यह निहायत काबील शख्स थे। शेर और कविताओं का शौक था, ‘इब्राहिमउनका तखल्लुस था। शेर शायरी के साथ मौसिखी में भी महारत थी। उर्दू भाषा के साथ बडा लगाव रखते थे।

उनका दरबार शायर और विद्वानों से भरा हुआ था। उस वक्त के काबील तारीफ विद्वान वहां मौजूद थे, कहा जाता है की, भारत में शहंशाह अकबर के बाद सबसे शानदार दरबार इन्ही का था। इब्राहिम आदिलशाह ने गुजरात के कई शायरों को अपने यहां आने की दावत दी, उनकी यहां बडी कद्रदानी की।

इस बादशाह को उर्दू भाषा और जुबान से खास लगाव था। सुलतान ने दफ्तरों में फारसी की बजायी उर्दू भाषा का अमल शुरु करवाया।

उनको इल्म मौसीखी से जो लगाव था वहनवरससे जाहीर होता हैं। बादशाह ने नवरसनामा किताब की रचना कर सुर के तंत्रों को लिखकर, संगीत पर अपने प्रभुत्त्व को सिद्ध किया है। उनकी एक हिंदी कविता

नवरस सौर जग जग ज्योती अनसो दखनी                

युस्त सरसोती माता इब्राहिम परसा रसती दोफी

शुमाली अंबर बत्तीयां फिराए                                     

शरबरत घोल अमृत पिलाए

बादल दमामे बिजलियां बजावे                                               

बाजी खालू आश्ताबिते पावे

सहला नवरस कलियां बदावे                                      

इब्राहिम गरगनी गावे

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अली आदिलशाह (द्वितीय

इब्राहिम आदिलशाह (द्वितीय) के पोते अली आदिलशाह (द्वितीय) ने साहित्यिक वातावरण और खतिजा सुलताना जैसी विद्वान महिला की निगरानी में शिक्षा पाई।

शाही तखल्लुस के साथ इन्होने शायरी की हैं। वे कविताओं की समिक्षा के भी माहीर थें। इसी वजह से उन्हेउस्ताद आलमकहा गया। अली आदिलशाहने कविता के हर तंत्र में रचनाएं की है।

मरजान में साफी नहीं, याकूत में साफी अच्छे    

जिस जात में साफी अच्छे, उस जात कों बेहतर कहो

याकूत हो मरजान की शाही लिख्या सारी गजल

सुनकर जगत के शायरां, इस शेर कु अफसर कहों

उनकी एक रुबाई। एक और अन्य़ कविता में वे लिखते हैं

सब देस गया है, धन ते लढते लढते

खट रात गयी है, पांव पडते पडते

क्या नै क्या मदहन का औंज लगता है मुझे

रहे पांव सिरे परत के चढते चढते

आदिलशाही खानदान में इनके अलावा कई शायर हुए हैं, जिन्होने आदिलशाही संस्कृति का नेतृत्व किया हैं। 

जाते जाते :

* वेदों और उपनिषदों का अभ्यासक था अल बेरुनी

* विश्व के राजनीतिशास्त्र का आद्य पुरुष था अल फराबी

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