शिक्षा की विरासत लिए खडी हैं आदिलशाही लायब्ररियाँ

ध्यकालीन भारत में कई अभ्यासक, संशोधक और उच्चकोटी विद्वान थें। सभी ने भारत के बहुसांस्कृतिक सभ्यता और संमिश्र संस्कृति को शब्दो और ग्रंथों के माध्यम में संवर्धित किया।

मुग़लो के सत्ताशासन के बाद भारत के इस प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को  दुनिया में पहुँची। जिसके बाद विश्व को भारत के ‘भारतीयता’ के बारे में पता चला।

आज हम विश्व में भारत अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति के लिए पहचाने जाने लगे। इस आलेख के माध्यम से मध्यकाल कि ज्ञान परंपरा और उसके साधनो कि चर्चा करेंगे, जो बिमलकुमार दत्त द्वारा 1962 में लिखा गया था।

हमनी सल्तनत (Bahamni Sultanate) जिसकी बुनियाद हसन गंगू ने सन 1317 में रखी थी, इस बारे में काबिल ए जिक्र यह है की, बहमनी बादशाहों ने इसवीं 1526 तक शासन किया। यह शासक साहित्य एवं संस्कृति के सरपरस्त थें।

इन्होने बहुत से विद्यालय और लायब्ररियों कि स्थापना कि थीं। मुजाहिद शाह बहमनी ने 1378 में अनाथ और बेसहारा लोगों के शिक्षा के लिए एक विद्यालय शुरु किया था। जिसकी चर्चा हम आगे करनेवाले हैं।

अहमदशाह ने एक शानदार विद्यालय गुलबर्गा के करीब शुरु किया था। मुहंमद शाह बहमनी सानी ने बिदर में एक अलिशान कॉलेज कि स्थापना की थी, जो बहमनी सल्तनत के उत्कर्ष का प्रतिक माना जाता हैं। इन सभी विद्यालयों कि अपनी अपनी लायब्ररियाँ थी।

बिदर कॉलेज कि लायब्ररी में विद्यार्थी और कर्मचारीयों कि जरुरत के लिए तीन हजार किताबें थी। इन सेंटरो और कुतुबखानों के साथसाथ अमीर और वजीरों के निजी लायब्ररियां भी थी।

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बहमनी सल्तनत का वजीर

महमूद गवान ((Mahmood Gawan) जो तीन पुश्तों तक बहमनी सल्तनत का वजीर था, निहायत सादगीभरे मिजाज का और ज्ञानविज्ञान में रुची रखता था।

मुहंमद शाह (तृतीय) ने सन 1463-1482 में हासील कि हुई फौजी विजय महमूद गवान की धोरणावली का नतीजा थी। जब महमूद गवानइस विजय से वापस लौटा तो उसे उंचे औहदे और रसुख दिए गए।  बादशाह कि माँ ने इसे अपना भाई बनाया, इसे अपना लिबास खिलअत के तौर पर दिया था।

मध्यकाल के प्रसिद्ध इतिहासकार मुहंमद कासीम फरिश्ता (1560-1620) (Muhammad Qasim Firishta) इस बारे में एक कहानी बयान की हैं।

महमूद गवान पर जब तमाम शाही नवाजीशें हुई तो, इसके जवाब इसने जो कुछ किया, इससे मालुम होता है कि, लायब्ररियों के बारे में इसका क्या दृष्टिकोण था। फरिश्ता लिखता है, ‘‘मुहंमद शाह जब इसके घरसे रुख्सत हुआ तो महमूद गवान अपने कमरे में वापस आया, अपना शानदार लिबास उतारा, जमीनपर गिरकर जोरजोर से रोया, फिर बाहरआकर इसने दरवेशों का लिबास पहन लिया।

इसने धार्मिक नेताओं और विद्वानों को बुलाया, इनमें अपनी दौलत और जवाहिरात वितरित कर दिए। अपने लिए सिर्फ हाथी, घोडे और लायब्ररियां बाकी रखी थी।’’

मुल्ला शम्सुद्दीन ने इसके बारे में पुछा, ‘‘घोडे हाथी और लायब्ररियों के अलावा सारी वस्तुंए फकीरों में क्यों बाट दी?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘जब बादशाह मेरे मेहमान बने और उनकी माँ ने मुझे अपना भाई कहा तो, मेरे इरादों ने मेरे अकल पर काबू पाना शुरु किया।’’

महमूद गवान ने अपना व्यक्तिगत ग्रंथ संग्रहालय अपने पास रखा था। उसके मौत के वक्त तक, यानी अप्रैल 1481 तक उसमें 35 हजार कलमी किताबें थी। जिसे स्टुडंट और शिक्षक हमेशा इस्तेमाल कर सकते थें।

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बीजापूर

बिजापूर और गोलकुण्डा को ऐसे लायक बादशाह पैदा करने का फक्र हासील है, जिन्होने साहित्यिक और विद्वानों कि मदद की और कई शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की।

इस काल में बिजापूर शहर में कई उच्च शिक्षा देनेवाले विद्यालय थें। इसमें एक तीन मंजीला कॉलेज की इमारत है, जो इतिहास की एक जिंदा मिसाल है। बाद के दौर में इसको मस्जिद बना दिया गया।

आदिलशाही शासक इल्म के सरपरस्त और साहित्य के शौकीन थें। रफिउद्दीन इब्राहिम सिराजी ने जो अली आदिलशाह (प्रथम) (Adil Shah)1558-1580) का उच्चपदस्थ सरदार था, इसने अपनी किताब तजकिरतुल मुलुकमें बयान किया है की, ‘‘सुलतान को किताबें पढने का बडा शौक था, इन्होने इल्म के हर विषय पर किताब जमा की थी, ताके लायब्ररी भर जाए।

तकरीबन साठ आदमी जिसमें खुशनवीस (सुलेखनकार), मुसव्वीर (चित्रकार), बाईंडर और किताबों को सजानेवाले शामील थे, जो दिनभर लायब्ररी के काम में व्यस्त रहते थे। बादशाह को किताबों का इतना शौक था के, सफर या सैन्य मुहीम में भी किताबें अपने साथ ले जाता था।

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बारीश में बहीं किताबे

एक बार ऐसा हुआ के अली आदिलशाह (प्रथम) इसने इतनी किताबें साथ ली की, चार बडी पेटीयां भर गयी थी। इत्तेफाक से एक बार दिन में जातेजाते मुसलाधार बारीश शुरु हुई। दरियाओं में ऐसा सैलाब आया कि, थोडी दूर का रास्ता तय करना भी मुश्कील हो गया। इस हालत में फौज बिखर गयी।

सिराज आगे लिखता हैं कि, जब बादशाह मंजील तक पंहुचा तो उसे अपने किताबों के संदुक याद आया। पुछने पर पता चला कि, वह संदुक शाही खजाने के साथ दुसरे रास्ते से वापस हो गए। और जो लोग इसके साथ हैं, वह कहीं और रुक गए हैं।

इसपर वह बहोत नाराज हुआ और कहा, ‘‘मैंने तुमसे हजार बार कहा है की, किताबों के संदुक मुझसे जुदा न किए जाएं। मगर मेरे कहने का तुमपर कोई असर न हुआ।’’

इसके बाद तुरुंत एक दरबारी को रवाना किया गया कि, वह किताब की पेटीयां वापस लाए। जबतक किताबों की बक्से वापस नहीं आते, अली आदिलशाह बेचैन रहा।

फरिश्ता जोतारीख ए फरिश्ताका लेखक है, इसे इब्राहिम आदिलशाही (द्वितीय) ने इसे अपनी शाही लायब्ररी में काम करने कि इजाजत दी थी। हाल ही में प्रकाश में आये नये दस्तावेजों से जाहीर होता है कि, एक हिंदू विद्वान वामन पंडीत, जो बिजापूर के शिस खानदान का था, वह शाही लायब्ररियन था।

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औरंगजेब ले गया किताबे

उपलब्ध दस्तावेजो से मालुम होता है कि, कीमती शाही मख्तुतात (हस्तलिखित) की सुरक्षा के लिए नारव गंगाधर और हुसेन खाँ जो आदिलशाही के उच्चपदस्थ अफसर थे, उनके पास यह जिम्मेदारी थी की वह इन मख्तुतात की सुरक्षा का जायजा लें। लायब्रेरीयन कि वार्षिक तनख्वाह एक हजार उन (आदिलशाही रुपया) या तकरीबन 3500 रुपये थी।

आदिलशाह काल के शाही लायब्ररी के बारे में फर्ग्युसन अपनी किताब में लिखता है, ‘‘इसकी कुछ किताबें हर उस शख्स के लिए जो अरबी फारसी अदबीयात से परिचित है, अजीब और दिलचस्प हैं। कहा जाता है की, वह तमाम किताबें गाडीयों में भरकर औरंगजेब ले गया।

जो कुछ बाकी बच गया था, यह उसका एक अंश भी नहीं है। लेकीन इतिहास के अभ्यासकों के लिए यह काफी है की, उस इल्मी दौर का इनको अंदाजा आ सके। शाही किताबों के खंडर असरी महल बिजापूर में देखे जा सकते हैं।

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