दकन में जिस व्यक्ती ने मुस्लिम सत्ता की बुनियाद रखी वह हसन गंगू बहामनी था। हसन बहामनी का ना किसी राजवंश से संबंधित था और ना वह किसी राजनैतिक परिवार का हिस्सा था।
मगर उसकी इमानदारी और मेहनत ने उसे दकन का सुलतान बना दिया। हसन गंगू द्वारा स्थापित बहामनी सत्ता ने दकन में 150 सौ साल से ज्यादा हुकुमत की। इसी बहामनी राजसत्ता के विघटन के बाद दकन में निजामशाही, आदिलशाही, कुतुबशाही जैसी कई हुकुमतों कि स्थापना हुई।
आमतौर पर मुसलमान बादशाहों के संबंध में यह बताया जाता है की, वे आक्रमक थें और एक हाथ तलवार तथा दुसरे हाथ में कुरआन लेकर भारत आयें। कई ऐतिहासिक तथ्य इस मनगढत कथन को गलत साबीत करते हैं। हसन गंगू बहामनी, यूसुफ आदिलशाह, मलिक अंबर और हैदरअली तक दकन में कई सुलतान ऐसे थें जो कभी गुलाम या नौकर थें।
इनमें कुछ ने तो अपना पुराना धर्म त्याग कर इस्लाम का स्वीकार किया था। हसन गंगू बहामनी (Hasan Gangu Bahmani)ऐसा ही भाग्यवान व्यक्ती है जो कभी एक ब्राम्हण ज्योतिषी का नौकर था और बादमें सुलतान बन गया। इसी हसन गंगू बहामनी कि वजह से दकन में स्वतंत्र मुस्लिम सत्ता वजूद में आयी।
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कौन था हसन बहामनी?
हसन तुर्क वंश का एक आम मुसलमान था। दिल्ली में मुहंमद तुघलक के दौर में वह बहोत ही कष्टप्रद हालत में जिन्दगी बसर कर रहा था। गंगू ब्राम्हण ने उसे अपने खेत में नौकरी पर रख लिया। गंगू दिल्ली का एक इज्जतदार ब्राम्हण था और मुहंमद तुघलक से उसकी करिबी दोस्ती थीं।
मुहंमद कासीम हिन्दुशाह फरिश्ता (Firishta) दकन के मुस्लिम सत्ताओं का विश्वसनीय इतिहासकार है, उसने ‘गुलशन ए इब्राहिमी’ में लिखा है, “एक दिन मजदूर जमीन में हल चला रहे थें कि हल की नोक जमीन के अन्दर फंस गई। वहां खोदने पर एक बडा सा हण्डा निकला जिसमें सोने के सिक्के और अशरफियां भरी थीं। हसन कि नैतिकता ने इसे स्वयं लेने कि आज्ञा नहीं दी क्योंकि उसके अनुसार जिसकी जमीन से यह वस्तु प्राप्त हुई, वह उसी को मिलनी चाहिए।”
फरिश्ता आगे लिखता हैं, “अतः सारी दौलत और हंडे को एक चादर बांधकर वह गंगू ब्राम्हण के घरपर पहुंचा और उसे सारा वृत्तान्त बताया। गंगू उसकी इमानदारी से बहुत ही प्रभावित हुआ। प्रातः होते ही गंगू ने यह बात मुहंमद तुघलक (Muhammad bin Tughluq) के सामने बयान की।
युवराज मुहंमद तुघलक को हसन कि इमानदारी पर आश्चर्य हुआ और उसे दरबार में बुलवाया। युवराज को भी हसन गंगू का आचार विचार अत्यन्त प्रिय लगा। उसने अपने पिता सुल्तान गयासुद्दीन तुघलक को सारा हाल बताया।
बादशाह गयासुद्दीन तुघलक भी हसन के अच्छे चरित्र से बहुत प्रभावित हुआ और उसको शाही पुरस्कारों से सम्मानित किया और अपने अमीरों के वर्ग में उसे शामील कर लिया।” इस तरह हसन का राजनीति में प्रवेश हुआ।
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गंगू ब्राम्हण के प्रति कृतज्ञता
एक अन्य कथन के मुताबिक गंगू ब्राम्हण को हसन ने अपना भविष्य देखने कि विनती कि थी। उस वक्त गंगू ब्राम्हण ने हसन को बताया था कि वह भविष्य में राजा बननेवाला है।
उसी वक्त गंगू ब्राम्हण ने हसन से वचन लिया कि, जब भी वह बादशाह बनेगा तो अपना नाम उसके साथ जोडेंगा। यही कारण था की, बहमनी सल्तनत कि स्थापना के बाद हसनने ‘गंगू ब्राम्हण’ का नाम अपने साथ जोडकर अपने आप को ‘हसन गंगू बहामन कहलवाया’ था।
मगर कुछ इतिहासकार इस तथ्य को मानने से इन्कार करते हैं। उनका कहना है की, हसन ईरान के बहामन (Bahaman) शहर का निवासी था, तथा मातृभूमी कि याद में उसने अपने नाम के साथ ‘बहामनी’ शब्द जोड दिया था, जैसे उस वक्त प्रचलित था।
बहामन शब्द को लेकर भले ही विवाद हो सकता है, मगर इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता की हसन ने ‘गंगू’ शब्द गंगू ब्राम्हण के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अपने नाम के साथ जोड दिया था। हसन और गंगू ब्राम्हण का यह इतिहास भारत कि गंगा जमनी संस्कृती कि विरासत है।
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निजामुद्दीन औलिया कि भविष्यवाणी
भारत के सुफी आंदोलन के चिश्ती नेता हजरत निजामुद्दीन औलिया (Nizamuddin Auliya) मुहंमद तुघलक के समकालीन थें। तुघलक से कई बार उनका मतभेद भी हुआ था। जिसकी वजह से मुहंमद तुघलक ने उन्हें दिल्ली छोडकर चले जाने का आदेश दिया था। मगर तुघलक के मृत्यु कि वजह से निजामुद्दीन औलिया पर दिल्ली छोडने कि नौबत नहीं आई।
यह वाकिया गयासुद्दीन तुघलक के दौर का है, जब मुहंमद तुघलक और निजामुद्दीन औलिया में टकराव का आरंभ नहीं हुआ था। निजामुद्दीन औलिया ने अपनी खानकाह में आमभोज का आयोजन किया था, जिसमें शहजादा मुहंमद तुघलक और उसके दोस्त भी शामील हुए थें।
जिसके बारे में फरिश्ता लिखता है, “जब मुहंमद तुघलक और अन्य अतिथी भोजन करके चले गये और दस्तरख्वान समेट दिया गया, तब हसन गंगू हजरत शेख निजामुद्दीन की ड्योढी पर पहुंचा जिससे हजरत कि मुलाकात का अवसर मिल सके।
किन्तु इससे पहले ही हजरत को अपने आत्मज्ञान से उसके आने की सूचना मिल चुकी थीं। अतः उन्होंने अपने सेवक से कहा, एक व्यक्ती जो अत्यन्त सहृदय और देखने सुनने में बहुत ही सज्जन प्रतित होता है, बाहर खडा है उसको बुला लाओ।”
फरिश्ता लिखता है, “सेवक हसन गंगू लेने के लिए बाहर गया मगर उसे फटे पुराने कपडे में देखकर विश्वास न आया कि यह वही व्यक्ती है जिसे हजरत ने बुलाने को कहा है। उसने वापस जाकर हजरत से अर्ज किया ‘दरवाजे पर कोई व्यक्ती नहीं है। मगर एक अत्यन्त दरिद्र और परेशान व्यक्ती खडा हुआ है।’
उसपर हजरत ने कहा ‘हाँ यह वही व्यक्ती है जो देखने में फकीर मालूम पडता है लेकिन यथार्थ में वह दक्षिण का शासक होगा।’ फलतः हसन गंगू हजरत शेख कि सेवा में आया और दर्शन लाभ किया। हजरत ने हसन पर बहुत ही कृपा की और उससे कुशलता पुछी।
खाना समाप्त हो चुका था, हजरत शेख ने इफ्तार के लिए (रोजा खोलना) जो रोटी रखी थी, उसी में से थोडी रोटी अपने उंगलीयों के सिरे पर रखकर हसन को दी और कहा कि यह दक्षिण के शासन का ताज है जो बहुत ही संघर्ष और कष्ट के बाद तेरे सिर पर रखा जायेगा।”
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दकन में सल्तनत कि नींव
ईसवी 1329 में मुहंमद तुघलक ने तुर्क और मंगोलो के आक्रमण से बचने के लिए अपनी राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद में तब्दील कर दिया था। दकन के विद्रोह को कुचलने और साम्राज्य विस्तार के लिए भी तुघलक का यह निर्णय महत्वपूर्ण रहा। मगर दिल्ली कि आबो हवा में पला बडा मुहंमद तुघलक दकन की सरजमीं में सुकून से नहीं रह पाया।
उत्तर कि कथित पवित्रता के सामने तुघलक दकन को हमेशा तुच्छ समझता रहा। दकन से उसकी नफरत दिन ब दिन बढती गई। दौलताबाद के आखरी दिनों में उसने दकन का पानी पिना तक बंद कर दिया था, अपने लिए वह गंगा का पवित्र जल मंगवाता था।
दकन के प्रति उसकी इसी नफरत ने कई सरदारों कि दकनी अस्मिता को ललकारा, मुहंमद तुघलक के वापस जाते ही इन सरदारों ने हसन गंगू बहामनी को अपना नेता बनाकर गुलबर्गा (Gulbarga) में नई सत्ता कि बुनियाद रखी। जिन सरदारों ने हसन बहामनी को अपना नेता चुना था उनमें बडी संख्या में तेलुगु और कानडी सरदारों की थी।
हसन गंगू बहामनी द्वारा स्थापित बहामनी सल्तनत (Bahmani Sultanate) ने दकन में इसवी सन 1518 तक राज किया। इस राजवंश में तकरीबन 18 सुलतान हुए।
इस सल्तनत के शिया प्रधानमंत्री महमूद गवान (Mahmood Gawan) कि सुलतान मुहंमद शाह द्वारा हत्या किए जाने के पश्चात बहामनी सत्ता कमजोर होती गई, और अन्त में कलीमउल्लाह बहमनी के दौर में इसका अन्त हो गया।
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