भाग- 3
सन 2007 में एक आश्चर्यकारक घटना मेरे जीवन में हुई। कराची की पीप्स ‘पाकिस्तान इन्स्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल सायन्स’ (PIPS Forum) नामक एक एनजीओ हैं। वह 14 अप्रैल 2007 में डॉ. अम्बेडकर की जयंती मनाना चाह रहे थे। यह संस्था पूर्णता सेक्युलर लोगों की है। इस संस्था के अध्यक्ष कराची पर करोड़पति सिंधी किशनचंद मोटवानी है। तो इसके सेक्रेटरी एक सेक्युलर विचारों के मुस्लिम और सहसचिव एक इंजीनियर युवक केवलराम है।
वे लोग इंटरनेट पर भारतीय व्याख्याता के नाम ढूंढ रहे थे। उनकी शर्त थी कि भारत के तीन व्यक्ति हो – एक मुसलमान, एक दलित एक और। यह तीन जहां तक हो सके महाराष्ट्र से हो। क्योंकि महाराष्ट्र बाबासाहेब का कर्मक्षेत्र रहा है। अंग्रेजी या हिन्दी में बोलने वाले हो। मेरे वरिष्ठ मित्र का बेटा जो पत्रकार भी है, उसने उन्हें मेरा नाम सुझाया, मेरा मोबाइल दिया और मेरी बेटी का ईमेल पता दिया।
मुझे इससे कोई जानकारी नहीं थी। संभवत अप्रैल के एक या दो तारीख को मुझे फोन आया और उन्होंने मुझे निमंत्रण देते हुए कहा, “आप जैसे दो और नाम हमे दे। और उन दोनो के मोबाईल नंबर भी।” मैं गड़बड़ा गया, मैं उन्हें विचार करने के लिए एक दिन का समय मांगा।
दूसरे दिन उनका फोन आया। सबसे पहले मेरे दिमाग में सर का ही नाम आया। एक तीसरे का नाम मैंने तय किया। दुसरे दिन सर का फोन आया। वह पहले तो तैयार नहीं हुए। मैंने उन्हें समझाया कि चलो इस बहाने हम लोग पाकिस्तान घूम आते हैं। हमारा जाने के हवाई टिकट के साथ पुरा खर्च संस्था ही करने वाली थी। सर के एक रिश्तेदार बेन्नूर गांव के आसपास से कराची चले गए थे। शायद 1950 में। उनसे मिलने की उनकी इच्छा थी। सो तैयार हुए।
हम दोनों के पास पासपोर्ट तो था नहीं। जब कराची में फोन आया तो उन्हें मैंने विनम्रता से निवेदन दिया कि हम तीनों तो आएंगे ही, परंतु मेरे साथ मेरी बेगम भी आना चाहती है। वह ग्रेजुएट है, उसका आने जाने का पूरा खर्च मैं करने वाला हूं। आप हम दोनों के लिए रहने-खाने की व्यवस्था करें। उन्हें बड़ी खुशी हुई क्योंकि हमारे बीच से औरत भी रहेंगी। युद्धस्तर पर जाकर पासपोर्ट का काम हम तीनों ने शुरू किया।
लातूर का कार्यालय सोलापूर से जुडा था तो सोलापूर का शायद मुंबई पुणे से। लातूर के एक एजंट ने एक सप्ताह में हम दोनों के पासपोर्ट तैयार कर दिए। बेन्नूर सर ने भी एक सप्ताह में पासपोर्ट तैयार करवा दिया। अब सवाल विजा का था। उसके लिए दिल्ली के पाकिस्तान एंबेसी जाना पड़ता था।
हमारे साथ जानेवाले तिसरे व्यक्ति नागपूर से थे। वे हवाई जहाज से दिल्ली में भारत के विदेश मंत्रालय गए। वहां दो दिन रहे। साथ में पीप्स का निमंत्रण पत्र भी ले गए। हम तीनों वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए वह भी डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जयंती के लिए पाकिस्तान जा रहे हैं, इस कारण विजा के मिलने में देरी नही हुई।
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कराची की उड़ान
दुसरे दिन निकलना था। संभवत 12 अप्रैल को हम चारों विजा और पासपोर्ट लेकर मुंबई हवाई अड्डे पर पहुँचे। हमसें कहा गया था कि हमारी व्यवस्था कराची में फाइव स्टार होटल जो एशिया का सबसे प्रतिष्ठित और महंगा होटल था ‘पर्ल इंटरनेशनल’ में किया जा रहा है।
कराची हवाई अड्डे पर हमारा जोरदार स्वागत हुआ। सर के रिश्तेदार भी वहां आए थे। वह उनसे मिलकर रोने लगे। कन्नड़ में ही बोलने लगे। मैं कन्नड़ समझ लेता हूं। उन्होंने कहा, पिछले सत्तर सालों से (1950) कन्नड बोलने के लिए जुबान छटपटा रही थी।
हमें जब वे ले गए तो कराची मैं किसी गली में नहीं भीतर घर छोटासा सामान्य सा लॉज था। हम सब परेशान! मुझे लगा की कहीं धोखा तो नहीं हुआ? मैंने उन्हें पूछा तो उन्होंने कहा कि, “आपका ऑफिशियल निवास तो फाइव स्टार होटल ही है। परंतु कराची के पुलिस ने हमें कहा है की अतिवादीयों का खतरा है। इसलिए किसी अज्ञात स्थान पर हमने आपकी व्यवस्था की हैं। आप लोगों को पता नहीं यहां विदेशी लोगों के लिए कितने खतरे हैं। विशेषत: इंडिया से आए लोगों के लिए।”
कार्यक्रम फाइव स्टार होटल में था। 14 की दोपहर और रात का खाना भी वहीं था। हमारा मुकाम तो पूरे एक हफ्ते तक का था। हमे कोई भी खतरा न हो इसके लिए यह सब उन्हें करना पड़ा था, खैर।
वापसी पर मैंने लोकमत में रविवार में कॉलम में इस यात्रा का दो किस्तों में मराठी में लेख लिखा। लोकमत ने सभी संस्करण में वे छापे। पुणे की साधना ट्रस्ट में हम दोनों का व्याख्यान हुआ। बाद में मैं और सर कई जगह पर इस अनुभव बताने-सुनाने के लिए घुमते रहे।
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जिन्ना से नफरत
वहां घटित एक वाकिये को कहना जरुरी हैं, जो सर से संबंधित है। कराची में पाकिस्तान के निर्माता मुहंमद अली जिन्ना की याद में बनाया गया एक बहुत बड़ा स्मारक है। शहर में सबसे ऊंची जगह का चुनाव कर एक खुबसुरत टिले पर यह स्मारक बनवाया गया हैं।
उपर जाने के लिए काफी सीढ़ियां है। 15 अप्रैल में हमारा पूरा कार्यक्रम सोचकर बनाया था। उसमें सबसे उपर इस स्मारक में भेट देना था। सवेरे शायद 9-10 बजे हम कार के लेकर वहां के लिए निकले। वहां पहुंचने पर सीढ़ियों से टिले पर जाना था।
आयोजकों ने कहा कि आप चारों ऊपर जाएं। यहां एक जगह मुझे जाना है, मैं फला जगह की करीब आधे-पौन घंटे के बाद पहुचुंगा। आप चाहे जितना वक्त ऊपर रहीए सीढ़ियों के पास ही आपको गाड़ी खड़ी मिलेंगी।
अभी वह निकले ही थे कि एक वाकिया हुआ। अचानक सर आखरी सीढ़ी पर बैठकर रोने लगे। मैं और मेरी बेगम परेशान हुए। मैं भी वहां बैठ गया। पूछा, “कोई तकलीफ, दवाखाने जाएगे क्या?” उन्होंने हाथ से इशारा किया, नहीं। फिर रोने लगे। मैं सहम गया की आखिर माजरा क्या है भई!
थोडी देर बाद रोना बंद हुआ और मराठी में मुझसे कहने लगे, “यह वहीं शख्स है, जिसके कारण भारत में रहना मुसलमानों के लिए मुश्किल हो गया है। हमेशा इसका नाम और पाकिस्तान को लेकर हमारा अपमान होता है। इसने भारत के मुसलमानों को जीना हराम कर दिया है।”
ऐसे-वैसे कई गालियां देते हुए कहने लगे, “इसकी मजार पर मैं क्यों जाऊं?” फिर थुकने लगे। अच्छा हुआ हम मराठी में बोल रहे थे। आस-पास के लोग चौकन्ना हुए। वे दौड़ते दौड़ते आए फिर सर को रोता हुआ देख, गुमसुम देख वह घबरा गए। कहने लगे दवाखाना चलते हैं। यहां से करीब है।
मैंने उनसे कहा, “नहीं, आप अपना काम करे। इन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई है। उन्हें कुछ याद आ गया, इसलिए वह रो रहे हैं। वह हमारे ऊपर जाएंगे। मैं और मेरी बेगम उन्हें संभालेगी।”
सब लोग तितर-बितर हो गए। मैंने उन्हें डांटना शुरू किया। “आपकी भावना मैं समझ रहा हूं। इंडिया में आप मुसलमानों का जो अपमान होता है, इसका जिम्मेदार यहीं आदमी हैं।” मैं मराठी में बोल रहा था। “यहां और तमाशा मत कीजिए! चुपचाप हमारे साथ ऊपर तक चलिए। हमें तो देखना है ना! अगर आप नहीं आएंगे तो हम दोनों भी ऊपर नहीं जाएंगे।” हमारे साथ वाले तिसरे व्यक्ति पहले ही उपर पहुँच चुके थे।
हम दोनों अगल-बगल में उनके पीठ पर हाथ रखकर धीरे-धीरे ऊपर गए। सर अनमने भाव से हमारे लिए ऊपर आए। चुपचाप देखते रहे। मैं भी लगातार बोल रहा था। अर्थात मराठी में। कहने का मतलब यह हैं की, बेन्नूर सर संवेदनशील मन के इन्सान थे। भारत के मुसलमानों के प्रति उनमें बेहद आत्मियता थी।
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गजब का संघठन कौशल
जब ओबीसी संघटना पूरी तरह से जम गई। जगह-जगह कार्यकर्ता तैयार हुए। उनका सपना पुरा हो रहा था कि वहां के लोगों ने उनसे किनारा करना शुरु किया। विलास सोनवणे के बारे में अब वह शिकायत करने लगे।
डॉ. अजीज नदाफ भी इस काम में सक्रिय थे, उनसें भी सर की अनबन शुरू हुई। यह सारा भितरी दर्द वे मुझे बताते। मैं सोंचता अजीब बात हैं, यह आदमी किसी के लिए जी जान से खड़ा रहता हैं, तो दुसरी और हर कोई खुद को पैसों में मिलाकर खड़ा रहता हैं। जैसी ही संघठन अपने पैरो के उपर खड़ी हो जाता हैं, यह लोग उन्हें निकाल बाहर करते हैं। कहां गड़बड़ हैं?
इस बीच उनका अध्यापन तो जोरों से चल रहा था। इस बीच उन्होंने भारतीय मुसलमानों की मानसिकता और सामाजिक संरचना शीर्षक से मराठी में एक लेख लिखा। शायद मराठी में वह कहीं प्रकाशित भी हुआ। वह लेख मुझे इतना महत्वपूर्ण और बुनियादी लगा कि मैंने उसका हिन्दी में तर्जुमा कर दिया। और उसे भारत के सबसे लोकप्रिय और उच्चस्तरीय साप्ताहिक धर्मयुग के विशेषांक में प्रकाशित करवाया।
पूरे देश में यह साप्ताहिक लाखों में बिकता था। टाइम्स ऑफ इंडिया इस में प्रकाशित करता था। इस लेख की चर्चा देश के बुद्धिजीवीयों के बीच शुरु हुई। लोग सर से फोन पर संपर्क करने लगे। वह बड़ा खुश हुए। इस बीच हिन्दी में एक और प्रतिष्ठित त्रैमासिक ‘पहल’ के संपादक, जो प्रतिष्ठित कहानीकार भी है, उनका फोन आया कि लेख को थोड़ा और बढ़ा कर मुझे भेज दीजिए, मैं उसकी पुस्तिका निकालना चाहता हूं।
सर का यह बड़ा सम्मान था। मेरे आग्रह पर उन्होंने इसे विस्तार दिया। मराठी में भी यह पुस्तिका छपी। हजारों प्रतियां बिकी। उधर हिन्दी में सन 1998 में छपी। केवल 15 रुपये कीमत थी। वहां भी हजारों प्रतियां बिकी। 2010 में सर ने इस एक स्वतंत्र पुस्तक के रुप में प्रकाशित किया, जिसके कई संस्करण हाथोहाथ खत्म हुए।
हिन्दी के पुस्तिका से ने भारतभर में मुस्लिम जीवन में महत्वपूर्ण विद्वान के रूप में वे पहचाने जाने लगे। इसका सारा श्रेय वे मुझे देते। यह उनका बड़प्पन है। पहल कि ओर से प्रतिवर्ष हिन्दी के युवा प्रतिभासंपन्न लेखक को पुरस्कार दिया जाता हैं। सर को इस पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में मुख्य अतिथी के रूप में निमंत्रित किया गया। नागपूर में यह कार्यक्रम हुआ। उनका बड़ा आग्रह था पर मेरी कई व्यस्तताओ कि वजह से मैं नही जा सका।
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दोनें मे अद्भुत समानता
हम दोनों के संबंध में बहुत ही आत्मीय और पारदर्शी थे। दोनों के जीवन में अद्भुत समानता भी थी। परंतु जहां तक दोनों के फितरत का या स्वभाव एकदम अलग अलग थे। एक बार जब वे उनके यहां गया तो हमेशा की तरह हमारी गपशप शुरू हुई।
मैंने कहा, “यार खय्याम के गाने तो लगाओ, या कोई ग़ज़ल, या बेगम अख्तर का गायन। उन्होंने मुझसे झिड़कारते हुए कहा, “आप गजल, गायन, संगीत के बारे में कुछ नहीं जानते। हर ग़ज़ल और क्लासिकल सुनने का अपना एक निश्चित समय होता है, उसी समय पर सुनना चाहिए। तभी तो मूड बनता है। रात का अंधेरा हो, गहरा सन्नाटा हो तो फिर आपको गाना सुनना चाहीए।”
मैंने कहा, “गम भरे गाने रात के अंधेरे में और वह भी तन्हाई में! क्यों, क्या हुआ?”
“और गहरा अंधेरा छा जाएगा ना! जिन्दगी के प्रति और भी उदासिनता हो जाएंगी ना! गम का अंधेरा गहराता जाएगा। गम का अंधेरा तो जहर हैं जहर..!”
तो उन्होंने कहा, “इस जिन्दगी में जहर और अंधेरा नही क्या है? ऐसे जिन्दगी से तो वह बेहतर है।” और तपाक से बोले, “तुम्हारी जिन्दगी में भी रोशनी कहां है? वहां भी तो अंधेरा ही अंधेरा है ना!”
मैंमे कहा, “फिर भी मैं उस अंधेरे में उजाले की चिंगारी ढूंढता रहता हूं। जहर का घुंट भी अमृत की तरह पी लेता हूं। तभी तो हंसते हुए जी जीता हूँ।”
वह बोले, “तुम बनो शिवजी, मुझसे यह नहीं बनेगा।”
फिर हम दोनों बेहद खामोश! यह अच्छी बात है कि थोड़ी देर में ऊपर से ज़नाने की आवाज आती है, या दरवाजे पर कोई आता हैं, तो स्थिती सामान्य हो जाती है।
महीने दो महीने बाद जब उनकी याद सताने लगती तो, मैं फोन पर बातचीत शुरू करता हूं। कैसे हो आप! क्या दौड़-धुप चल रही हैं! फिर यह उदास स्वर में कहेंगे, “जी रहा हूं क्योंकि, मर नहीं रहा हूं।”
और इधर मैं खामोश! रविवार को मैं पहले बस से लातूर से ‘कुदरत’ (घर) पहुंच जाता हूं। बातचीत का सिलसिला बहुत नहीं चलता। मैं जानता हूं कि अभी गम के मुड़ से साहब बाहर नहीं आए हैं। मैं टेबल पर आहिस्ता से ‘बुढ़े सन्यासी’ को रख देता हूं। हमे जोड़नेवाला होता है या बूढ़ा सन्यासी। ओल्ड मोंक एक प्रकार।
मैं इसे उनके साथ ही लेता हूँ। वह भी सोलापुर में। वह एक पेग से ज्यादा नहीं लेते। अपने हाथ में भुने हुए मूंगफली के दाने या ऐसा भी कुछ लेता हूं। वह मेरी और निगाह डालते। थोड़ी देर बाद वह उठकर दो गिलास निकाल लाते हैं। वे धीरे-धीरे लेते जाते हैं और मैं एकदम से। इसपर डांटते हैं मुझे। फिर गपशप।
एक-देढ़ बजे वह तैयार हो जाते हैं। अब तक वे खुले नहीं है। यह से चुपचाप चल रहा है। तैयार हो जाने के बाद मुझसे कहते चलो। मुझे पता होता है कि अब हमें कहां जाना है।
हम सिधे हैदराबाद रोड पर स्थित एक ढाबेनुमा होटल में जाते हैं। ढाबे वाला इन्हें पहले से जानता है और उनकी फरमाइश भी। मटन का अचार, मटन मसाला, रोटी आ जाती है। फिर धीरे-धीरे चुप्पी टूटती है। दोनों दो ढाई घंटा गपशप होती है।
अब वे पूर्णत: स्वस्थ सामान्य हो जाते हैं। दोनों हंसते हैं। सिधी बातचीत होती है। गंभीर विषय पर नहीं, कॉलेज स्टाफ, उनके लफड़े, पढ़ने वाले लड़के-लड़कियां की स्पर्धा।
उनके शादी के किस्से कहानियां, हिन्दू मुस्लिम खूबसूरत लड़कीया और इन्हें मैं कैसे-कैसे ताड़ता, इनकी फिरनी (यह उनका प्रिय शब्द)। वैसे आदि आदि। फिर यहां से मुझे सीधे बस स्टैंड पर ले जाते। लातूर के बस में बिठा देते। वह ना मिली तो फिर तुलजापुर की बस में वहां से लातूर। ऐसा साल या दो साल में अकसर होता।
जाते जाते :
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- इंकलाबी खातून रशीद जहाँ का तफ़्सीली ख़ाका
- मर्दाने समाज में स्त्रीत्व की पहचान परवीन शाकिर!
लेखक हिंदी के जानेमाने लेखक और आलोचक हैं।