सफदर हाशमी को भूक खिलाफ जंग मे मिली थी शहादत

क्रांतिकारी लेखक, क वि और अभिनेता तथा कालविद् सफ़दर हाश्मी को हमसे बिछडे तीन दशक हो गये हैं। सफ़दर सामंतशाही और संघवादी ताकतों के विरोध मे लड़ने वाले पहले शहीद थे। नुक्कड नाटिकाओ के जरीए वे जनता में चेतना भरने का काम करते थे।

ऐसा भी कहा जाता है कि देश में नुक्कड़ नाटक को आगे बढ़ाने में सफ़दर हाशमी का अहम योगदान रहा है। जिस तरह इप्टा ने रंगमंच को थिएटर से निकाल कर गलीयों में, खेतो में, रास्तों पर ले आया और हबीब तनवीर ने उसे आम इन्सानों से जोड़ा, उसी तरह सफ़दर हाशमी ने नाटकों को नुक्कड तक ले आया।

नये साल का पहला दिन याने 1 जनवरी 1989, गरीबों पर लादी गयी भूख और उनके ‌भय के खिलाफ जंग लड रहे सफ़दर हाशमी के लिए शहादत का पैगाम लेकर आया था।

गाजियाबाद के साहिबाबाद में नुक्कड नाटक ’हल्लाबोल’ के संचलन के समय कुछ लोगों ने सफ़दर और उनके टीम पर हमला किया। घटना के दिन उन्हें दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया। अगले दिन 2 जनवरी को सफ़दर जिंदगी से जंग हार गये।

सफ़दर हाशमी की याद आज हररोज ताजा होती है। भारत को उसके हुक्मरान मनमानी ढंग से गरीबों की मुफलिसी का मजाक बनाने में लगे हैं, सफ़दर का होना जरुरी हो जाता हैं।

सफ़दर न सिर्फ गरीबों का साथी था, बल्की उसने जो ख्वाब देखा था, उसमें गरीबों को सम्मान तो था, मगर उनकी गरीबी को खत्म करने वाली व्यवस्था भी थी। सफ़दर अपने नुक्कड नाटकों के जरीए आम अवाम की आवाज बन चुके थे।

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जन नाट्य मंच के संस्थापक

सफदर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्य थे। सफ़दर को जब मारा गया, उस समय भारत में कमण्डलवादी विचारधारा अपने पैर जमाने में लगी हुई थी।

आज सफ़दर को जाकर तीन दशक हुए है। सफ़दर जिस विचारधारा की जंग लड रहे थे उनकी वह विचारधारा आज आखरी सांसे गिन रही है। और जिस विचारधारा के खिलाफ वह लड रहे थे वह संघवाद आज चरम पर पहुंचा है।

सफ़दर विद्यार्थी आंदोलन से जुडे एक अहम नेता और एसएफआई के संस्थापक सदस्य थें। भारत की नाट्यसंस्कृती का इतिहास सफ़दर को कभी भुला नहीं सकता रंगभूमि की अभिव्यक्ति के लिए इस कलाकार अपने प्राण तक समर्पित कर दिए। 

सफदर हाशमी एक संपन्न परिवार से थे। 12 अप्रैल 1954 को हनीफ और कौमर आजाद हाशमी के घर पैदा हुए सफ़दर दिल्ली के स्टिफन कॉलेज के स्नातक थे। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य से एमए कर रखा था।

पढ़ाई के दौरान ही उनका जुड़ाव फेडरेशन ऑफ इंडिया की सांस्कृतिक यूनिट और इप्टा हुआ। जिसके बाद हाशमी जन नाट्य मंच के संस्थापक सदस्य बने। यह संगठन 1973 में इप्टा से अलग होकर बना, सीटू जैसे मजदूर संगठनों के साथ जनम का अभिन्न जुड़ाव रहा।

नीतू का था पिल्ला एक,

बदन पे उसके रुएँ अनेक।

छोटी टाँगें लंबी पूँछ

भूरी दाढ़ी काली मूँछ।

मक्खी से वह लड़ता था,

खड़े-खड़े गिर पड़ता था!

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रचनात्मक व्यक्तित्व

सफ़दर हाशमी के घर का माहौल हमेशा से मार्क्सवादी विचारों की प्रेरणाभूमी रही। 1979 में सफ़दर अपनी सह नाट्यकर्मी मलयश्री से शादी की। सफ़दर ’पीटीआय’ और ’इकोनोमिक्स टाइम्स’ के लिए पत्रकारिता भी की, कुछ दिन बंगाल सरकार के ’प्रेस इंफोरमेशन ऑफिसर’ के तौर पर भी उन्होंने काम किया।

आंदोलन की बढती जिम्मेदारीयों का खयाल करते हुए सफ़दर हाशमी ने 1984 में अपनी नौकरी से इस्तिफा दिया। और पुरी तरह राजनैतिक सक्रियता को समर्पित कर दिया। 

मॅक्झिम गोर्की के नाटक पर आधारित ’दुश्मन’ और मुन्शी प्रेमचंद के नाटक पर आधारीत ’मोटेराम के सत्याग्रह’ पर दोन नाटक भी हबीब तनवीर के साथ बनाए।

प्रसिद्ध नाट्यकार हबीब तनवीर सफ़दर के बारे में कहते हैं, “मुझे सफ़दर के साथ काम करने में जो आनंद आया है, शायद ही किसी और कलाकार के साथ काम करने में आया होगा। नेताओ में वह इन्सानियत कम देखी होगी जो सफ़दर में थी, वह इन्सानियत जो उसकी लीडरशिप की बुनियाद थी।

जिसके आधार पर जननाट्य मंच के सारे कलाकार है, जो समाज के विभिन्न वर्गों से संबंध रखते हैं और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के समर्थक हैं। राजनीतिक गतिविधियों का प्रभावशाली शिक्षक सफ़दर से बेहतर मेरी नज़र में दूसरा नहीं आता।”

बात की बात

खुराफत की खुराफात,

बेरिया का पत्ता

सवा सत्रह हाथ,

उसपे ठहरी बारात!

मच्छर ने मारी एड़

तो टूट गया पेड़,

पत्ता गया मुड़

बारात गई उड़।

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एक प्रेरणा पुरुष

सफ़दर के बारे में इप्टा के महासचिव, प्रसिद्ध नाट्यकर्मी और साहित्यिक भीष्म साहनी ने कहा था, “सांप्रदायिक तनाव को दूर कर पाने के लिए, घर-घर जाकर, विशाल पैमाने पर नागरिकों के प्रदर्शन का आयोजन करते हुए, कार्यक्रम और सेमिनारों का आयोजन करते हुए, और साथ-ही-साथ बस्ती-बस्ती, गाँव-गाँव जाकर नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत करते हुए नौजवान ने अपनी सामर्थ्य से अधिक काम किया।”

सफ़दर की यादों को ताजा करते हुए उनकी बहन शबनम हाशमी ने एक जगह कहा था, ‘‘हमारे घर पर खाने को नहीं होता था लेकीन हजारों किताबें रखी रहती थी। मेरे वालिद स्वतंत्रता सेनानी थें और वालिदा भी काफी पढी लिखी थी। मेरे वालिद को फैज और साहिर के लगभग सारी नज्में याद थी। वो गुनगुनाते रहते थे। घर के अंदर बराबरी का माहौल था।

सफ़दर जब कॉलेज में गए तो शुरु में ही उनका झुकाव एसएफआई की तरफ रहा। सफ़दर कभी पार्टी से बंधकर नहीं रहे। सफ़दर बहोत रचनात्मक थे। घर मे कभी किसी ना किसी का तो अभिनय किया करते थे। आज जो देश में माहौल है ऐसे में सफ़दर हाशमी होते तो जरुर लडते।’’

सफ़दर हमेशा अपने नाटक के जरीए खेती मजदूर, किसान और सांप्रदायिकता के खिलाफ बात करते रहे। उन दिनो अयोध्या विवाद चरम पर था तो सफ़दर ने ’हत्यारे और भाईचारे का अपहरण’ जैसे नाटक को जन्म दिया।

सफ़दर कुछ टीव्ही सिरियल के लिए भी अपना योगदान दे रहे थे। भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब देश में आपातकाल की घोषणा की तो जयप्रकाश नायारण ने उनके खिलाफ छात्रों को आंदोलन के लिए प्रेरित किया था।

आपातकाल लागू होने के बाद सफ़दर खुलकर सरकार के नीतियों के खिलाफ उतरे। जन नाट्य मंच ने छात्रों, महिलाओं और किसानों के आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।

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लोकधर्मी विचार

सफ़दर ने मुफलिस, किसान, शोषित वर्ग, महिला तथा समान न्याय के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अपने नाटक का मंचन किया। उनके प्रमुख नाटकों में ‘गांव से शहर तक’, ‘हत्यारे’ और ‘अपहरण भाईचारे का’, ‘तीन करोड़’, ‘औरत’ और ‘डीटीसी की धांधली’ आदि शामिल हैं। उनके नाटकों मे दो दो लाख मजदूर इकट्ठा होते थे।

सफ़दर हाशमी कहते थे, “‘मुद्दा यह नहीं है कि नाटक कहां आयोजित किया जाए (नुक्कड़ नाटक, कला को जनता तक पंहुचाने का श्रेष्ठ माध्यम है), बल्कि मुख्य मुद्दा तो उस अवश्यभावी और न सुलझने वाले विरोधाभास का है, जो कला के प्रति ‘व्यक्तिवादी बुर्जुवा दृष्टिकोण’ और ‘सामूहिक जनवादी दृष्टिकोण’के बीच होता है।”

सफ़दर को तो घर से ही स्वतंत्रता और समता की सोच विरासत में मिली थी। सफ़दर भी इस आंदोलन का हिस्सा बन गए।

सत्ता के मस्तिष्क में जब अपने बल का अंहकार चढ जाएगा, तो उसके खिलाफ लडनेवालों के लिए सफ़दर हमेशा एक प्रेरणा बनकर सामने आते रहेंगे। सफ़दर की शहादत के बाद शुरु की गई ’सहमत’ आज भी सफ़दर के पथ पर कार्यरत है।

इस हत्या पर भीष्म साहनी ने कहा था, “सफ़दर की हत्या हम सबके लिए एक चेतावनी बनकर आई है। जो कुछ देश में हो रहा है-विसर्जनवादी तत्वों की आक्रामकता, सांप्रदायिकता का नंगा नाच, संकीर्ण राजनैतिक दांव-पेंच और हथकंडे, हर दिन जो निर्दोष लोग गोली का निशाना बनाए जा रहे हैं, इन सभी घटनाओं से हम भलीभाँति परिचित हैं।

हम इनके मूक दर्शक बनते जा रहे हैं। पर सफ़दर तो इन्हीं शक्तियों के साथ जूझ रहा था। वह तो हमारी कृतज्ञता का पात्र था। ऐसे व्यक्ति की हत्या दिन-दहाड़े की जाए और फिर कहा जाए कि सफदर के मित्र उसकी हत्या को अपना स्वार्थ साधने के लिए राजनैतिक रंग दे रहे हैं!

क्या इस तरह की सोच शर्मनाक नहीं है? …ऐसे निश्छल, निष्ठावान समाजसेवी की हत्या हमारी बर्तमान सामाजिक स्थिति की भयावह वास्तविकता को हमारे सामने ले आती है।”

किताबें करती हैं बातें

बीते ज़मानों की

दुनिया की, इंसानों की

आज की, कल की

एक-एक पल की

ख़ुशियों की, ग़मों की

फूलों की, बमों की

जीत की, हार की

प्यार की, मार की

क्या तुम नहीं सुनोगे

इन किताबों की बातें?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं।

तुम्हारे पास रहना चाहती हैं॥

किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं

किताबों में खेतियां लहलहाती हैं

किताबों में झरने गुनगुनाते हैं

परियों के किस्से सुनाते हैं

किताबों में राकेट का राज़ है

किताबों में साइंस की आवाज़ है

किताबों में कितना बड़ा संसार है

किताबों में ज्ञान की भरमार है

क्या तुम इस संसार में

नहीं जाना चाहोगे?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं।

तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

सफ़दर के अंतिम विधी में दिल्ली के सडकों पर 15 हजार से ज्यादा लोगो कि भीड उमड आई। मौत के 14 साल बाद उनके हत्यारों को सजा मिली। 

हत्यारो को शिक्षा दिलाने के लिए सफ़दर के परिवार और उनके दोस्तों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। आरोपी काँग्रेसी नेता मुकेश शर्मा और उसके नौ साथियों को सफ़दर हाशमी और मजदूर राम बहादुर की हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास और 25-25 हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।

इसपर सफ़दर हाशमी की बहन शबनम हाशमी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था “सफ़दर के साथियों के प्रत्यक्षदर्शी होने के बावजूद इस फ़ैसले में इतनी देर लगी। सफ़दर की शहादत बेकार नहीं जाएगी और सफ़दर के काम को उसके साथियों ने आगे बढ़ाया है।”

सफ़दर हममें से चले गए मगर उनका पैगाम, उनकी विचारधारा हमसे कहती रहेगी। हर साल उनकी याद में देशभर में समारोह का आयोजन होता हैं। पहली जनवरी को झंडापुर के उसी शहादत स्थल पर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करता है।

उनकी मौत के एक महीने बाद उनके दोस्त, सहकर्मी तथा बुद्धिजीवियों ने मिलकर ‘सफदर हाशमी मैमोरियल ट्रस्ट’(सहमत) का निर्माण किया। ये संस्था सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए काम करती हैं। आज शोषित, पीडितों के लिए काम करती हैं।उसी तरह बुद्धिजीव विचारों पर पुस्तके भी प्रकाशित करती है।

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