भाग- 1
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर महाराष्ट्र का जाना-माना और नामचीन नाम। राजनीतिक विश्लेषक के रूप में उन्होंने कई किताबों की रचना की हैं। महाराष्ट्र ने उन्हें कई सम्मानों से नवाजा हैं। अगस्त 2018 में उनका निधन हुआ।
25 नवम्बर को उनका जन्मदिन। उनके करीबी दोस्त रहे डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने उनसे जुड़ी यादों के शब्दरूप देकर अभिवादन किया हैं। उनके इस दीर्घ संस्मरण को हम कुछ भागों में दे रहे हैं, पेश हैं, उसका पहला भाग।
जून 13, साल 1965 की वह तारीख मेरे दिमाग में हमेशा के लिए दर्ज है। लातूर के दयानंद शिक्षण संस्था द्वारा दयानंद कॉलेज की शुरुआत जून 1961 में हुई, तब लातूर जिला नहीं था। उसकी जनसंख्या केवल 3,000 थी, आज वह 5,00,000 है। उस्मानाबाद जिले में यह दूसरा कॉलेज खुल गया गया था।
सन 1961 में प्राचार्य से लेकर जितने भी विषय थे उन सबके प्राध्यापक की नियुक्तियां हो चुकी थी। परंतु प्राचार्य तथा कुछ विषयों में प्राध्यापकों के संबंध में कुछ गंभीर शिकायतें हो जाने के कारण उनमें से अधिकांश को निकाल बाहर किया गया था। उनकी जगह भरने के लिए विज्ञापन दिया गया था और इस मैं हिन्दी प्राध्यापक हेतु वहां पहुंचा था।
लातूर मेरे लिए नयी जगह थी। ये शहर उस्मानाबाद जिले से जुड़ा हुआ था। मैं गुलबर्गा का। यह दोनों जिले निज़ाम रियासत के हिस्से 1948 तक थे। इस कारण में केवल इस कस्बे का नाम जानता था। मेरी जिन्दगी का पहला इंटरव्यू था। कुछ ही दिनों पूर्व में इलाहाबाद से हिन्दी में एम. ए. कर चुका था, खैर।
घर की हालत बहुत खस्ता थी। दोस्तों ने गुलबर्गा-लातूर आने-जाने का बस किराया इकट्ठा कर दिया था। एक दोस्त की पँट और एक दोस्त का बुशर्ट पहनकर मैं लातूर के लिए निकला था। उन दिनों बस अड्डे के पास ही रेलवे स्टेशन था। वहाँ रात में एक बेंच पर सोया था।
सवेरे उठकर एक डिब्बे में जाकर नित्यकर्म कर कॉलेज की ओर निकला। कॉलेज काफी दूर था, पैदल ही जाना था। कॉलेज की छोटी सी इमारत के पास रेल की पटरीयों को लांघ कर कॉलेज पहुंचा जा सकता था। जैसे ही मैं पटरियां लांघ रहा था, वैसी ही मेरे से थोड़ा सा ठिंगना, सांवला, तेज आंखों वाला, बड़ा सा चेहरा ऐसा एक युवक ठीक उसी समय पटरियां लांघ रहा था।
पटिरियां लांघ वह भी निकला। मैं कॉलेज की दिशा में जा रहा हूं इसे भांपकर उस युवक ने मुझ जैसे पतले, दुबले युवक की भेंट कर मराठी में पूछा, “क्या आप भी इंटरव्यू के लिए जा रहे हैं?”
मैं उन दिनों पूरी तरह से कन्नड लहजे में मराठी बोलता था। संयोगवश मराठी में उत्तर न देते हुए मैंने हिन्दी में कहा, “हां!” उन्होंने पूछा, “विषय!” मैंने कहा, “हिन्दी!” उन्होंने हिन्दी लहजे में सुनकर कहा, “आप उत्तर भारतीय हो क्या?” मैंने कहा, “शुद्ध मराठी आदमी हूं!” खैर।
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दोनों का हुआ चयन
पहले उनके विषय में इंटरव्यू हुआ। उनकी स्पर्धक बहुत कम थे। जब इंटरव्यू देकर आए चेहरा प्रसन्न था। वहां इकट्ठे और 2 से कुछ पूछते हुए मैंने उनसे पूछा, “क्या बात है, खुश दिखाई दे रहे हैं आप!” उन्होंने कहा, “मेरा चुनाव हो गया है। सबके इंटरव्यू खत्म होने के बाद आर्डर देने वाले हैं।”
सबसे आखिर में मेरे विषय का इंटरव्यू हुआ। क्योंकि मेरे विषय में 25 से भी अधिक प्रत्याशी थे। मेरे विषय में 3 लोगों के लिए इंटरव्यू दोबारा हुआ। बाद में इन तीनों के लिए फिर एक इंटरव्यू हुआ। मुझे तीसरी बार इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। इंटरव्यू लेने के लिए कार्यकारिणी के 24 लोग बैठे थे। उनमें कुछ स्वतंत्रता सेनानी थे, कुछ डॉक्टर, कुछ वकील थे। बाद में जीवन में इनमें से अधिकांश मेरे मित्र हो गए। मेरा भी चुनाव हुआ। तनाव खत्म हुआ। जितने भी चुनाव हुए थे, वह सब ऑर्डर की प्रतीक्षा में बैठे थे। अब मैं सुकून से उस युवक से बातें करने लगा।
नाम फकरुद्दीन बेन्नूर। निवास सोलापूर। बचपन में पढ़ाई पंढरपुर में। डिग्री कॉलेज सोलापुर में। एम. ए. पॉलिटिक्स अंग्रेजी माध्यम से। बी.ए. के बाद पुणे में मिलिट्री शाखा में अकाउंटेंट सेवारत। क्लर्क पद पर नियुक्त। वहां कांशीराम भी थे। उनसे परिचय। मूल जन्म स्थान कर्नाटक हुबली जिले के बेन्नूर गांव में। मैं भी उन दिनों कर्नाटकी था। पिताजी ट्रांसफर के कारण सोलापूर (हुबली सोलापूर, पुराने बॉम्बे स्टेट का हिस्सा) घर की हालत सामान्य।
अंग्रेजी और मराठी पर असाधारण प्रभुत्व। कन्नड़ भी बोलते हैं। दकनी तो घर की भाषा, मातृभाषा। इस कारण हिन्दी के जानकार। पता नहीं क्यों हमारे मन के तार उस दिन जो जुड़ गए, वह उनकी आखरी सांस तक बने रहे।
संस्था ने 15 जून को सबको ड्यूटी पर आने के लिए कहा। सोलापूर नजदीक था वे तुरंत लौटने वाले थे। चुने हुए अधिकांश लोग दूर-दूर से आए हुए थे। वह लॉज में रुके थे। मेरे पास तो रात में खाने के लिए भी पैसे नहीं थे। केवल बस किराया था। बस दुसरे के दिन सवेरे थी। सीधे नहीं। लातूर से उमरगा, उमरगा से भालकी (महाराष्ट्र की सीमा) वहां से आलंद और आलंद से गुलबर्गा। पूरे 12 घंटे की यात्रा।
मजबूर था। कुछ मुरमुरे खरीदकर रात भर स्टेशन पर रुकना पड़ा। 15 जून को भी आना संभव नहीं था। महीने भर का खर्चा, जिनमें लॉज का किराया, कमरे का एडवांस, महीने भर का होटल किराया, खाना और खर्चा। घर ही थोड़ा बहुत संभव था। अब वैसे खस्ता हालत में लातूर में भी नहीं रुका जा सकता था।
उन दिनों प्राध्योपकों की समाज से बहुत प्रतिष्ठा थी। इस कारण दिखावे के लिए कुछ तो स्तर बनाना पड़ता था। इसलिए मैंने 20 जून को यह तारीख ली थी। बेन्नूर 15 जून को ही यहां आ गए। खोरी गल्ली में एक मध्यमवर्गीय परंतु अशरफी जैसे मुसलमान के घर में एक टिन का कमरा उन्हें महीना 15 रुपये किराए से मिला।
केवल नहाने और शौच के लिए उनके मकान के भीतर जाना पड़ता था। जाने के पहले दरवाजे की कुंडी हिलाकर उन्हें सूचना देनी पड़ती थी ताकि उनका जनाना भीतर चला जाए। मुझे यह इसलिए मालूम था कि बेन्नूर सर वहां से निकलने के बाद मैं मेरा एक दोस्त वहां रहता था। वहां किराया सबसे कम था। केवल सर के आग्रह के कारण उन्होंने एक हिन्दू युवक को कमरा किराए पर दिया था, खैर।
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लातूर छोड़ा
15 जून 1964 में गर्मियों की छुट्टियों के बाद हम सब लौटे। बाद में बेन्नूर सर ने पद का त्याग पत्र दे दिया। मुझे उन्होंने कॉलेज आते समय सारी बातें विस्तार से बताई थी। मैं लातूर में गंज गोलाई में एक कमरा लेकर सन 1965–66 में रहता था। वह रोज सवेरे कॉलेज निकलते समय मुड़कर बेन्नूर सर के कमरे पर जाता था। वह भी तैयार होकर बैठे रहते थे, फिर पैदल चलते जाते।
मैंने उन्हें बहुत समझाया कि वे त्यागपत्र न दें, यही स्थाई रूप से रहे। संस्था और छात्र छात्राएं उनकी पढ़ाई पर बेहद खुश थे। उन्होंने एक ही कहना था, मेरा प्रॉपर गांव मैं एक बहुत बड़ा प्रतिष्ठित कॉलेज में मेरा चुनाव हुआ है। संगमेश्वर कॉलेज, सोलापूर मैं जाऊंगा।
प्राचार्य नवाड़े जी ने उन्हें बड़ा समझाया पर वह मानने को तैयार नहीं थे। उसी दिन प्राचार्य ने उनका त्यागपत्र संस्था की ओर भेज दिया। उन दिनों संस्था के सेक्रेटरी श्री. भ. वा. देशमुख थे। लातूर में नामी वकील और स्वतंत्रता सेनानी। उस्मानिया से राज्यशास्त्र में हिन्दी में एम. ए. थे। उनका संदेश आज कि शाम वे उनसे मिले। इधर तो वे अपना बोरिया बिस्तर बांध कर तैयार।
वे मुझे अपने साथ ले गए। देशमुख जी ने उन्हें बड़ा समझाया कि उनका यहां रहना बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा, “संस्था में ले देकर एक ही मुस्लिम प्राध्यापक है। यह शहर हिंदू मुस्लिम भाईचारे का सुंदर उदाहरण है। 1948 के बाद यहां (आज तक करीब 70 सालों में) यहां इस कस्बे में कभी हिंदू मुस्लिम दंगा नहीं हुआ है। संभवत पूरे महाराष्ट्र में अपवाद मेरा शहर आदर्श कस्बा है।” पर बेन्नूर नहीं माने।
मैं बहुत भावुक हो उठा था। वह भी। बस में बैठने से पहले बस अड्डे पर हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोए। मैं अब इस कस्बे में खुद को बेहद अकेला महसूस कर रहा था। पर मैं कहीं लौट जाना भी नहीं चाहता था। इस एक साल में अनेक यादों ने मुझे घेरना शुरू किया था।
हम दोनों भयंकर पढ़ाकू थे। मेरे कारण उन्होंने हिन्दी की कई क्लासिकल किताबें पढ़ी थी। उस पर हमारी घंटो बहसे होती थी। उर्दू ग़ज़ल और आधुनिक मराठी कविताएं उन्हें बहुत भाती थी। मैंने उन्हें हिन्दी में राही मासूम रजा, शानी, प्रेमचंद, मंटो, कमलेश्वर, अज्ञेय आदि की रचनाएं दी। मंटो पढ़ते समय वे बेदह रोते थे। वहीं बात प्रेमचंद और राही मासूम रजा के लेकर होती थी। रजा का ‘टोपी शुक्ला’ हम दोनों का प्रिय उपन्यास था, खैर।
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चौंकानेवाली घटना
उनके लातूर में निवास के समय शहर में घटित एक घटना का जिक्र करते हुए मैं मेरे उनके बारे में निबंधों पर आऊंगा। हुआ ऐसा की 26 जनवरी 1966 में ध्वजारोहण कार्यक्रम में लातूर के तत्कालीन बीडीओ को निमंत्रित किया गया था। वह मुस्लिम ही थे, ऐसे जानकारी कुछ आवारागर्दी करने वाले छात्रों को शायद थी।
दुर्भाग्य से उस दिन चपरासी में गलती से ध्वज उल्टा टंग गया। कॉलेज में 200-250 छात्र-छात्राएं थी। पर उस दिन वहां कोई छात्रा नहीं थी। वह हुल्लड़बाजी करने वाले थे, वह चिल्लाए- “ये मुसलमान होते ही हैं हमारे राष्ट्रध्वज का अपमान करनेवाले।” पत्थरबाजी शुरू हुई। यह सब कुछ सेकदों में हुआ।
प्राचार्य और कुछ प्राध्यापकों ने मुख्य अतिथि को घेरे में डालकर ऑफिस की ओर निकले। मेरे दायीं ओर बेन्नूर खड़े थे। मैंने तुरंत उनका हाथ पकड़कर घसीटते हुए उन्हें स्टाफ रूम ले गया। बाहर आकर दरवाजा लगा दिया। बेन्नूर सर बड़ा घबराए हुए थे। मैंने भी उनसे एक वाक्य भी नहीं कहा और वहीं खड़ा रहा। काफी देर तक मैं वहां खड़ा था इसलिए की भीड में से कोई भी रूम की और आ नहीं सके।
काफी देर बाद एक चपरासी, शायद वह भी घर निकलने वाला था, आ पहुंचा। मुझे दटे रहते देखकर वह तुरंत चला गया। कुछ ही सेकंड में प्राचार्य को लेकर आ पहुंचा। मैंने उनसे सारी बात कही। दरवाजा खोलकर देखा तो बेन्नूर सर सिगरेट पीते हुए गमगीन बैठे थे। प्राचार्य ने उन्हें बुलाया। उन्होंने कहा, चलो मैं अपनी मोटर कार से आपको अपने कमरे तक छोड़ आऊं।
सर ने मेरी ओर देखा और कहां, “नहीं हम दोनों पैदल चले जाएंगे। मैं उनके साथ रहूंगा।” फिर प्राचार्य ने वहां जो हुआ उसको बयान किया। बीडियो भी पिछे से ऑफिस में आये। पुलिस को फोन किया। बीडीयो ने कहा मैं भी ऑफिस फोन करके गाड़ी मंगवाता हूं। प्राचार्य ने कहा, कतई नहीं। आप कॉलेज की गाड़ी में से घर जाएंगे। वे बंदर अभी ग्राउंड पर ही हैं। पुलिस आने के बाद ही तितर-बितर हो जाएगे।
उन्होंने कहा, एक और हादसा बाहर हुआ हैं। वहीं आवारागर्दी करनेवाला जत्था कॉलेज के सामने जो ईदगाह है उसकी ओर बड़ा बढ़ रहा था। रमजान की ईद की नमाज अदा करने के लिए वहां परंपरा से प्राप्त एक बड़ा सा मैदान है। वहां नमाज के लिए उंचा चौथरा बना हुआ था, शायद उसे तोड़ने फोड़ने को जत्था जाना चाह रहा था।
हमारे एक वाइस प्रिंसिपल थे, भालचंद्र नाईक। जो पूरे स्टाफ में सबसे वयस्क। 55 के ऊपर। पुराने क्रांतिकारी। नाना पाटील के क्रांतिकारी संघटना में सक्रिय। मूलत: कर्नाटकी। लातूर के निवासी। बाद में वह गांधीवादी बने। प्राचार्य हम दोनों को बता रहे थे कि उपप्राचार्य दौड़ते हुए ईदगाह की ओर गए। जत्था अभी वहां पहुंचने हीं वाला था कि सामने लेट गए और मराठी में जोर से बोले, “जिनको भी अंदर जाना है वह मेरी लाश से होकर जाएगा।”
उनके प्रति अधिकांश में विशेष आदर था। आवारा से आवारा लड़के में भी। यह सब शायद कुछ मिनटों में हो गया। इस बीच कॉलेज पहुंची। पुलिस को देखकर सब वहां से तितर-बितर हो हो गए।
जब तक यह तीनों वहां पहुंचे। स्टाफ में एक दो तीन लोग बारी-बारी अपने घर की ओर चले गए थे। नाईक सर और एक दो प्राध्यापक, पुलिस गाड़ी ऑफिस पहुंच गई। प्राचार्य ने बीडीयो को पुलिस के हवाले कर दिया। और वे भी मोटर साईकल से निकले।
मैं और बेन्नूर सर दोनों निकले। मैं सर के कमरे तक गया। रास्ते में हम एक दुसरे के साथ कुछ नहीं बोले। कमरे पर पहुंचने के बाद उन्होंने का, चलो दोस्त जाकर खाना खाएंगे। पर सारा शहर बंद था। शायद पुलिस विभाग ने 144 कलम लागू किया था। इस कस्बे में यह घटना अनोखी थी।
वहां एक गली में छोटू मियां कि होटल थी। वह शुरू थी। सर मुझे वहां ले गए दोनो ने वहां खाना खाया। खाना नॉन व्हेज था। खाने के मेज पर फिर बातचित शुरू हुई। वे अब काफी सामान्य हो चुके थे। खाना खाने के बाद मैं उन्हीं के साथ शाम तक रुका रहा। शाम तक सारी दुकाने, होटल खुल गए थे। इधर-उधर घुमने करे बाद हमारे मेस में हम दोनों ने खाना खाया। इस तरह वह बदसुरत दिन गुजर गया।
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लेखक हिंदी के जानेमाने लेखक और आलोचक हैं।