भाग-4
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर महाराष्ट्र का जाना-माना और नामचीन नाम। राजनीतिक विश्लेषक के रूप में उन्होंने कई किताबों की रचना की हैं। महाराष्ट्र ने उन्हें कई सम्मानों से नवाजा हैं। अगस्त 2018 में उनका निधन हुआ।
25 नवम्बर को उनका जन्मदिन। उनके करीबी दोस्त रहे डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने उनसे जुड़ी यादों के शब्दरूप देकर अभिवादन किया हैं। उनके इस दीर्घ संस्मरण को हमने तीन भागों में दिया हैं। पेश हैं, उसका आखरी भाग।
प्रो. बेन्नूर और मैं हम दोनों खानदानी खवैये है। जहां जाएंगे बढ़िया से बढ़िया होटल में खाना पसंद करेंगे। नई-नई चीजें मंगाएंगे। वेज नॉन वेज दोनों में उतने ही पसंद। कराची में तो पांच सितारा होटल में इतनी अपनी अलग-अलग चीजों का ऐसा लुफ्त उठाया कि पुछीए मत।
मुख्य कार्यक्रम खत्म होने के बाद सबसे पहले खाना था, बुफे टाइप। बहुत बढ़िया चीजे मैं ले रहा था। मेरी बेगम की निगरानी मुझपर शायद थी। वहां एक हिंदू महिला शर्मा भी आई थी। वह वहां के हिन्दुओं की नुमाइंदा थी।
उसने शायद मेरी बेगम से कुछ कहां। वह प्लेट हाथ में लेकर दौड़ते हुए मेरे पास आई। बेन्नूर भी वह चीज उठा रहे थे। और मराठी में उसने जोर से कहां, उसे मत लीजीए। वह गौमांस हैं। सर ने झट से उसे वहीं रख दिया।
मेरे तो प्लेट में था। मैंने झल्लाते हुए बेगम से कहां, क्या हुआ? अभी तो मौका मिला हैं खालुगां। उसका चेहरा तमतमाया। सर भी मेरे पर गुस्सा हुए। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस मेरे प्लेट का वह तुकड़ा लेकर वापस वहीं रख दिया।
वे लगातार चारमीनार पीते। कभी कभार बूढ़े सन्यासी को पास में रख लेते। धीरे-धीरे सिगरेट छोड़ दिया और बूढ़े सन्यासी को भी। पर खाने के मामले में हम दोनों वैसे ही।
उनके आखिरी दिनों की यादें काफी तकलीफदेह हैं। वे काफी व्यस्त रहने लगे थे। लिखते और व्याख्यान देते और पढ़ते रहने में साल दर साल बितते गए। इस बीच एक बार वह किसी कार्यक्रम के बहाने शायद नांदेड गए थे, मात्र लौटते समय में लातूर में रुके। फ. म. शहाजिंदे ने हम दोनों को शानदार खाना खिलाया। उनके जाने बाद मेरा उनके यहां या उनका मेरे यहां आना करीब करीब बंद हो गया।
फोन पर बात भी नहीं होती। तभी यह उड़ती खबर मिली की इन दिनों वे बिमार चल रहे हैं। मैंने बात को गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा किसी न किसी बीमारी में होते ही थे। पर एक दिन उनका फोन बड़ी धिमी आवाज में आया। कहने लगे शायद दो-तीन दिन रह गए हैं, खानापिना नही, बातचित नही, मिलने आओ।
पिछले तीन भाग
जिन्दगी में पहली बार मुझे बुला रहे थे। अब तक तो इतना ही कहते थे की मैं आ रहा हूँ, इस तारीख को। उनकी आवाज से मैं परेशान, बेचैन। मेरे घर के अधिकांश उन्हें नजदीक से जानते जानते थे। बेगम ने कहा, “अगर उनकी ऐसी हालात हैं तो मैं भी साथ चलुंगी।” हम दोनों सवेरे निकल गए। शायद 8-9 बजे।
मैंने उनसे पिछली रात में कहा था कि अभी हम दोनों आ रहे हैं। सवेरे सवेरे फोन आया कि कब आ रहे हो? मैंने कहा, “गाड़ी में ही हूँ।” फिर 11 बजे फोन आया, “कहां तक पहुंचे।” मैंने कहा, “उजनी के पास।” तो कहने लगे, “जल्दी आओ।” मैं समझ गया, मामला संगीन हैं।
उजनी पर हम हमेशा चाय-नाश्ता लेते हैं, पर मैंने ड्राइवर से कहा, “नहीं समय नहीं है, सीधे सोलापूर चलो।” तुलजापूर पहुंचे की फिर फोन आया, “कहां है!” बोला, “45 किलोमीटर हैं।” मैं काफी गंभीर हो गया। खैर हम दोनों पहुंचे।
बेगम ने उन्हें देखा, वह परेशान हुई। मुझे उसने कहां, “आप दोनों निकट के दोस्त है, मैं बाहर कार में बैठी रहूंगी। आप दोनों खुलकर बात करे। वह अपने मन की बात करेंगे। मेरा यहां न बैठना ही ठीक है।” और वह चली गई। मैं बैठ गया। बहन ने दरवाजा लगा लिया था। मेरी बेगम से उनकी बातचीत हुई। वह दोनों वहां से चले जाने के बाद हमारी बातचीत शुरू हुई।
धीमी आवाज में वे सुनने लगे। कहने लगे, “जीते जी मेरी 2-4 पुस्तकों के अलावा और तो छपा नहीं। अब सरफराज अहमद और कलीम अजीम इसपर काम कर रहे हैं। मेरा संपर्क कलीम से निरंतर हैं।” मैंने कहा, “आपका गौरव ग्रंथ करीब करीब तैयार है। यह कलीम अजीम का बड़प्पन है कि उन्होंने मुझे इसका प्रधान संपादक बना दिया है। मैं तो वहां नाम के लिए हूं। कुछ सब कुछ तो कलीम ही कर रहे हैं।” इसपर वह मुस्कुरा उठे।
मैंने कहा, “अभी 10-15 दिनों में आपका बहुत बड़ा सम्मान यहां सोलापूर में करना है। हॉल भी बुक हुआ हैं। मैं तो आ ही रहा हूं।” कहने लगे, “मैं तो न वहां आने की हालत में हूं और ना बोलने की।” मैंने कहा, “आप को हम व्हीलचेयर पर ले जाएंगे। आप बोलना चाहे तो आपकी मर्जी, नहीं तो वहां सिर्फ बैठे रहो।” कहने लगे, “तब तक रहा तो ना!” मैं भीतर से परेशान।
कलीम और सरफराज के बारे में वह काफी आत्मीयता से बोल रहे थे। मुझे पर सब अच्छा लगा। क्योंकि उन्होंने जितनो को भी पास खड़ा किया था, वे धीरे-धीरे उनके खिलाफ हो गए। जिन संस्थाओ को उन्होंने खड़ा किया था, फिर मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद हो या मुस्लिम ओबीसी परिषद वहां से घुसपैठीयों ने उन्हें धीरे-धीरे निकाल बाहर किया। वह बेहद अकेले पड़ गए।
फिर उन्होंने कहना शुरू किया – विलास के बारे में, उस्मानाबाद के डॉक्टर के बारे में, शायद नदाफ के बारे में। पर अब तो उन्हें दो लोग मिल गए। जिनसे वे बेहद खुश थे। मैं कई बार सोचता कि उनके साथ ऐसा होता क्यों है? मैं उन्हें बाहर–भितर से जानता था। वे बड़े हट्टी, जिद्दी और अपनी ही बात पर अड़े रहते थे। किसी से किसी प्रकार का समझौता नहीं करते।
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मैं उन्हें याद दिलाता कि ‘कॉप्रमाईज का नाम ही जिन्दगी हैं।’ यार आदमी गुनाहों से बडे होते हैं, उन्हें माफ करना सिखो। नही तो, एक बार कुछ हुआ कि उनके प्रति मन में गांठ तैयार। ऐसी कई गांठे थी उनके मन में। हर बार किसी ना किसी की शिकायत करते। कहते, “अकेले तुम हो जो मुझसे जुड़े हो।” मैंने कहां, “आप मेरे कई गुनाहों को सुनकर भी अनसुना करते हो।” कहते, “ऐसा नही हैं।” खैर।
तो बातचीत चल रही थी। अभी केवल 10–15 मिनट ही हुए थे कि उन्होंने इशारा कर मुझे रोका और किसी से मोबाइल पर बात कि कहा, “आ जाओ।“ थोड़ी देर में सरफराज आए। हम दोनों बातचीत करने लगे। इन्होंने आंखें बंद कर ली। मुझे लगा कि नींद आ रही है। मैंने सरफराज से कहा, सर को नींद आ रही है मैं आंगन में बैठकर बातें करेंगे। उन्होंने आंखें खोली और कहा, “नहीं, यहीं बैठे रहो।”
अब हमारी बातचीत शुरू हुई। शायद पांच मिनट हो गए होंगे। एकदम आंखें खोल कर मुझपर बिफरे; कहने लगे, “जाओ.. जाओ… यहां से उठो। मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता जाओ।”
जिन्दगी में पहली बार उनसे कुछ ऐसा सुन रहा था। सर परेशान थे। मैं सोंच रहा था, जो आदमी यहां पहुँचने से पहले हर दो मिनट बाद फोन कर रहा था की जल्दी आओ, वह एकाएक मुझपर इतना नाराज क्यों हो गया? शायद बहन सुन रही थी। आगे आकर कहा, “भय्या अकसर यहीं कर रहे हैं। प्यार से मुझे बुलाऐगे और दो-चार मिनट बाद मुझे झिडकी देकर भगा देंगे।” बाहर आकर वह रोने लगी।
सरफराज वहां से निकल कर जाने लगे। मैंने बेगम से अनमने होकर कहा, आओ, हमे निकलना हैं। वह ताज्जुब से बोली, “इतने जल्दी!”
मैंने कहा, “हां!”
मेरा गमगीन चेहरा देखकर वह कुछ ना बोली। मैं एकदम खामोश। ड्राइवर से मैंने पहले ही कहा कि हम उजनी पर से जाएंगे। वहां खड़े होकर पूरी भाजी खाएंगे। फिर सर के यहां पहुंचेगे। परंतु सर के बार–बार फोन आने पर हम सिधे घर पहुंचे थे। अब मैंने ड्राइवर से कहा, “सीधे चलो, उजनी पर ही रुको।”
फिर मैं खामोश। बेगम परेशान। क्योंकि पहले तय था यहां से निकलकर पहले हैदराबाद के रोड पर ही धाबे पर जायेंगे। दोपहर का खाना मटन आचार और मटन मसाला खाएंगे। अंदाजा था कि वहां से निकलने दो-डेढ़ बजे जाएंगे। अब तो केवल 12 बज रहे थे। हम सर के यहां 11:30 बजे पहुंचे थे। भूख तीनों को लगी थी। पत्नी चिढ़ गई थी। मैं तो खामोश।
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हम दोनों समझ चुके थे कि सर के हमारे आखरी दीदार थे। मैं उन्हीं कि यादों मे खोया हुआ था। सोच रहा था कि आखिर आखिर में वे ऐसा क्यों मर रह हैं। बहन ने कहां था वे तो अब दवा भी नही लेते। मेरे एक जमाने शागिर्द और अब दोस्त डॉ. एहसानउल्लाह कादरी को मैंने सर के बिमारी के बारे में कहा था। वे सर से बात कर चुके थे।
कादरी विदर्भ मे किसी देहात के एक हकीम को जानते थे। उनकी दवा बड़ी असरदार होती थी। सर तो वहां तक आने-जाने की हालत में नहीं थे। हकीम साहब सोलापूर आने को तैयार नही थे। कादरी ने हकीम साहब का नंबर दिया था। वे आपसे में बोल चुके थे।
यह केवल हफ्तेभर पहले की बात हैं। कादरी ने अपने एक आदमी को हकीम साहब के यहां भेज दिया। दवा लेकर सीधे सोलापूर आ गया। सर को दवा दी। सारा खर्चा कादरी कर रहे थे। शुरुआत में सर ने दवा भी ली। कुछ अच्छा असर भी शुरु हुआ।
यह सब मुझे कादरी जी बता चुके थे। और इधर दो दिन में बाद वे दवा लेना बंद कर चुके थे। बाद मे मैंने इनसे पुछा की “क्या, आप कादरीजी द्वारा भेजी गई दवा ले रहो हो!” तो उन्होंने मुझसे कहा, “नहीं, मैं बंद कर चुका हूं।” मैंने कहा, “अब।” कहा, “कुछ नहीं।”
अब मैं क्या कर सकता था! जो शख्स खुद होकर मौत चाह रहा था, तो ऐसे में कोई कुछ भी क्या कर सकता हैं।
अकसर वे प्यासा फिल्म के पक्तियां गुनगुनाते थे।
हमने तो जब कलियाँ माँगी, काटो का हार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
खुशियों की मंज़िल ढूंढी तो, गम की गर्द मिली
चाहत के नगमे चाहे तो, आहें शर्द मिली
दिल के बोझ को दूना कर गया, जो गम सार मिला
अब तो वह आखरी दम तक ऐसे ही जियेगे।
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उजनी पर हम तीनों ने नाश्ता किया। धीरे-धीरे गमगीन माहौल से उभरने लगा। गाड़ी में बैठकर बेगम को वहां जो हुआ उसे विस्तार से बतलाया। वह भी बहुत आहत हुई। हमारे घर में सबसे साथ सर का आत्मीय संबंध था। हम रास्ता लांघ रहे थे। मैंने कहा, “घर पहुंचने से पहले किसी ढाबे पर खाना खाएंगे।” उसने डबडबाई से आँखो से कहा, “नहीं, अब नहीं, अब सीधे घर।”
इसके सातवें या आठवें दिन उनके जाने की खबर आई। कादरी, शहाजिंदे और जो लोग दफन के लिए जाने वाले थे। पहले कादरी का फोन आया, “तैयार होकर बैठ जाइए सोलापूर जाना है।” मैंने कहा, “नहीं, कादरी मैं नहीं जाऊंगा। मेरी हिम्मत ही नहीं है। पता नहीं वहां मेरे क्या हाल हो जाएगा। मेरा कुछ हुआ तो सब लोग परेशान हो जाएंगे। आप हो आईये।”
मेरी भरी हुई आवाज सुनकर वे खामोश हो गए। फिर शहाजिंदे का फोन आया। मैंने उन्हें भी यही कहा। बेगम परेशान। उसके दो दिन बाद मैंने बहन को लंबा खत लिखकर माफी मांगी।
सर चले गए, मुझे अकेला छोड़ कर। हम दोनों भीतर से बेहद अकेला महसूस कर रहे थे। अब हम एक दुसरे को भावनिक सहारा दे रहे थे। मेरे लिए वे एक ऐसी जगह थे, जहां में अपने मन की सारी बात करता था। और वे भी हर बात मुझे बताते। दोनों का मन हलका हो जाता।
हमारे रिश्तों में हमारा मजहब कभी नही आया। मेरे माँ-बाप नें मुझमें इन्सानियत वाले संस्कार डाले थे। मैं इसलिए खुशनसीब था की मेरी बेगम पर भी उसके माँ-बाप नें सिर्फ इन्सानियत का पाठ पढ़ाया था। मेरी लड़की और लड़के पर भी यही संस्कार हैं। और सर तो इन्सानियत के जीते-जागते मिसाल थे।
हम दोनों यह मानते थे की इस घर के हम भितर किसी मजहब, किसी जाति के होते हैं। जैसी घर के दहलीज के बाहर निकलते हैं हम सिर्फ इन्सान होते हैं और बाद में भारतीय। इसके अलावा हमारी बाहर कोई पहचान नही होती।
दाढ़ी रखकर, माथे पर टिका लगाकर बाहर निकलना अपने मजहब या जात का घिनोना प्रदर्शन करना होता हैं। हम बाहर निकले, या हमारे पास कोई आता या हम किसी के पास पहुंचे तो सिर्फ इन्सान के रूप में ही बर्ताव करे। अच्छा और बुरा इन्सान, औरत और मर्द, बस इतना ही फर्क होता हैं।
वे गए मुझे अकेला छोड़ कर। मेरे दिल का एक कोना हमेशा हमेशा के लिए खाली हो गया। मैं पहले जाता तो वह भी यहीं कहते। अब तो आखरी लफ्जों में रफी की आर्त आवाज में कहेंगे –
बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
इसको ही जीना कहते हैं, तो यूँही जी लेंगे
उफ़ ना करेंगे लब सी लेंगे, आँसू पी लेंगे
आमीन।
(समाप्त)
जाते जाते :
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- किसान और मजदूरों के मुक्तिदाता थें मख़दूम मोहिउद्दीन
लेखक हिंदी के जानेमाने लेखक और आलोचक हैं।