प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य पर यदि नज़र डालें तो, उनका साहित्य उत्तर भारत के गांव और संघर्षशील किसानों का दर्पण है। उनके कथा संसार में गांव इतनी जीवंतता और प्रमाणिकता के साथ उभर कर सामने आया है कि उन्हें ग्राम्य जीवन का चितेरा भी कहा जाता है। प्रेमचंद अकेले किसान की ही कहानी नहीं कहते हैं, बल्कि किसान की नज़र से पूरी दुनिया की कहानी भी कहते हैं।
बनारस जिले के छोटे से गांव लमही में जन्मे मुंशी प्रेमचंद का सारा जीवन किसानों के बीच बीता। वे किसानों के साथ रहे, उनके हर सुख-दुख में हिस्सेदारी की। ज़ाहिर है कि जिस परिवेश मे उनका जीवनयापन हुआ, उसमें गांव-किसान खुद-ब-खुद उनकी चेतना का अमिट हिस्सा बनते चलते गए।
‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘कर्मभूमि’ वगैरह उनके कई उपन्यासों की कहानी किसानों, खेतिहर मजदूरों की ज़िंदगानी और उनके संघर्षों के ही इर्द-गिर्द घूमती है।
इन उपन्यासों में वे औपनिवेशिक शासन व्यवस्था, सामंतशाही, महाजनी सभ्यता और तमाम तरह के परजीवी समुदाय पर जमकर निशाना साधते हैं। भारतीय गांवों का जो सजीव, मार्मिक चित्रण प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ मे किया है, हिन्दी साहित्य में वैसी कोई दूसरी मिसाल हमें ढ़ूंढ़े नहीं मिलती।
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शोषण को किया रेखांकित
प्रेमचंद ने अकेले उपन्यास में नहीं, बल्कि कहानियों और अपने लेखों में भी किसानों के सवाल उठाए। वे किसानों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के पक्षधर थे। ‘आहुति’, ‘कफ़न’, ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूं’ और ‘सद्गति’ आदि उनकी कहानियों में किसान और खेतिहर मजदूर ही उनके नायक हैं।
सामंतशाही और ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था किस तरह से किसानों का शोषण करती है, यह इन कहानियों का केन्द्रीय विचार है।
साल 1917 में रूस की अक्टूबर क्रांति से एक विचार, एक चेतना मिली जिसका असर सारी दुनिया पर पड़ा। प्रेमचंद भी रूसी क्रांति से बेहद प्रभावित थे। अपने दोस्त के नाम एक ख़त में उन्होंने इसका साफ जिक्र किया है, “मैं बोल्शेविकों के मतामत से कमोबेश प्रभावित हूं।”
वर्गविहीन समाज का सपना प्रेमचंद का सपना था। ऐसा समाज जहां वर्ण, वर्ग, लिंग, रंग, नस्ल, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर कोई भेद न हो। शुरुआत में महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन में अपार श्रद्धा रखने वाले प्रेमचंद का आदर्शवाद उनके आखि़री काल में लिखे हुए साहित्य में टूटता दिखता है।
साल 1933 में समाचार पत्र ‘जागरण’ के अपने एक सम्पादकीय में वे लिखते हैं, “सामाजिक अन्याय पर सत्याग्रह से फ़तेह की धारणा निःसन्देह झूठी साबित हुई है।”
यही नहीं आगे चलकर अपने उपन्यास के एक पात्र से जब वे यह वाक्य बुलवाते हैं, “शिकारी से लड़ने के लिए हथियार का सहारा लेना ज़रूरी है, शिकारी के चंगुल में आना सज्जनता नहीं कायरता है।”
तब हम यहां उपन्यास ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ के लेखक से इतर एक दूसरे ही प्रेमचंद को साकार होता देखते हैं। गोयाकि इसके बाद ही प्रेमचंद ‘गोदान’ जैसा एपिक उपन्यास, ‘कफ़न’ जैसी कालजयी कहानी और दिल को झिंझोड़ देने वाला अपना आलेख ‘महाजनी सभ्यता’ लिखते हैं।
उनकी इन रचनाओं से पाठक पहली बार भारतीय समाज की वास्तविक और कठोर सच्चाईयों से सीधे-सीधे रू-ब-रू होता है।
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वर्गविहीन समाज की वकालत
प्रेमचंद का युग हमारी गु़लामी का दौर था। जब हम अंग्रेजों के साथ-साथ स्थानीय जागीरदारों, सामंतों की दोहरी गुलामी भी झेल रहे थे। प्रेमचंद दोनों को ही अवाम का एक समान दुश्मन समझते थे।
किताब ‘प्रेमचंद घर में’ के एक अंश में वे अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं, “शोषक और शोषितों मे लड़ाई हुई, तो वे शोषित, ग़रीब किसानों का पक्ष लेंगे।”
प्रेमचंद की कहानी, उपन्यासों में यह पक्षधरता और प्रतिबद्धता हमें साफ दिखलाई देती है। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में वे जहां सामूहिक खेती और वर्गविहीन समाज की वकालत करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर विदेशी शासन और शोषणकारी जमींदारी गठबंधन का असली चेहरा बेनकाब करते हैं। उनकी निग़ाह में आज़ादी का मतलब दूसरा ही था, जो शोषणकारी दमनचक्र से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के बाद ही मुमकिन था।
उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ के माध्यम से प्रेमचंद एक ऐसे कानून की ज़रूरत बताते हैं, “जो जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले ले।”
साल 1933 में वे समाचार पत्र के अपने एक दीगर संपादकीय में लिखते हैं,
“अधिकांश भारतीय स्वराज इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी ही आवाज़, बहसें सुनी जाएं बल्कि स्वराज का अर्थ उनके प्राकृतिक उपज पर नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपयोग और अपनी पैदावर पर अपनी इच्छा अनुसार मूल्य लेने का स्वत्व। स्वराज का अर्थ केवल आर्थिक स्वराज है।”
यानी उनके मतानुसार किसानों को स्वराज की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। यही नहीं उनका यह भी मानना था, आर्थिक आजादी के बाद ही वास्तविक आजादी मुमकिन है। उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में पात्रों के बीच आपसी संवाद है,”रूस देश में कास्तकारों का ही राज है, वह जो चाहते हैं, करते हैं।”
और कादिर कौतुहल से कहता है, “चलो ठाकुर उसी देश में चलें।” कहा जा सकता है कि काल और अनुभव की व्यापकता से प्रेमचंद के विचारों में बदलाव आता गया, जो बाद में उनकी कहानी, उपन्यास, लेखों में साफ परिलक्षित होता है।
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आज भी हैं सवाल
हमें आज़ादी मिले सात दशक से ज़्यादा होने को आए, लेकिन इस दौरान देश के हालात जरा से भी नहीं बदले हैं, बल्कि कई मामलों में पहले से भी ज़्यादा भयावह और ख़तरनाक हो गए हैं।
देश के कई हिस्सों में कर्ज और भूख से किसानों एवं बच्चों की मौत हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। प्रेमचंद के ज़माने में औपनिवेशिक शासन व्यवस्था और सामंतशाही का गठबंधन किसानों का शोषण करता था, तो आज हमारी चुनी हुई सरकार ही किसानों के हक़ पर कुठाराघात कर रही है।
केन्द्र सरकार हाल ही में जो तीन कृषि कानून लेकर आई है, उनसे किसानों के प्राकृतिक उपज पर नियंत्रण और पैदावर पर अपनी इच्छा अनुसार मूल्य लेने का स्वत्व ख़त्म हो जाएगा।
जिनसे आगे चलकर उसे खेती करना और उपज का सही दाम मिलना भी दुश्वार हो जाएगा। वे किसान से कॉर्पोरेट के बंधुआ मज़दूर बनकर रह जाएंगे। यही वजह है कि किसान देश में बीते एक साल से आंदोलन कर रहे हैं। किसानों की जो मांगें हैं, वे नाजाइज़ नहीं।
लेकिन उनकी मांगों को लगातार नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण साहित्य में न सिर्फ किसानों के अधिकारों की पैरवी की, बल्कि अधिकारों के लिए उन्हें संघर्ष का एक नया रास्ता भी दिखलाया। किसानों के जो मौजूदा सवाल हैं, उनके बहुत से जवाब प्रेमचंद साहित्य में खोजे जा सकते हैं। बस जरूरत उसके एक बार फिर गंभीरता से पाठ की है।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।