परवीन शाकिर उर्दू शायरी का एक जाना माना नाम है। वर्जनाओं से भरे समाज में उन्होंने भावनाओं से भरी कलम को चुना और इसकी स्याही का रंग स्त्रीत्व के गुलाल से रंगा था। कमोबेश, अपनी हर रचना में उन्होंने स्त्री मन के कोमल पक्ष को बेहद नफासत और खूबसूरती से सामने रखा।
जज्बात चाहे एक मां के हो, या एक साधारण लड़की के या फिर विरह में तड़पती एक प्रेमिका के हो, या घर बार के पवित्र बंधन में बंधी एक पत्नी के, बात एक कामकाजी स्त्री की हो या फिर इस से इतर कोई किरदार, उन्होंने इन सब को अपनी कलम के लिए चुना।
परवीन शाकिर ने अपनी बात जिस बेबाकी से रखी वही उन की खासियत बनी। गौरतलब है, कि जिस समाज में स्त्री के शब्द या उस की मानसिक अथवा शारीरिक जरूरतें, केवल पुरुषों के कलम में लगी आंखों की मोहताज रही हो, वहां इस तरह बेबाक कलम चलाना गजब का साहस है।
कम निगाही भी रवां थी शायद
आंख पाबंद-ए-हया थी शायद
सर से आंचल तो न ढलका था कभी
हां, बहुत तेज हवा थी शायद
एक बस्ती के थे राही दोनों
राह में दीवार-ए-अना थी शायद
हमसफर थे तो वो बिछड़े क्यों थे
अपनी मंजिल भी जुदा थी शायद
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स्त्रीत्व की पहचान
जिस समाज में एक स्त्री का अपनी मानसिक अथवा शारीरिक जरूरतों का चित्रण बेहद ‘अश्लील’ माना जाता रहा है। उसकी कलम को उसके निजी व्यक्तित्व का मापदण्ड समझ कर, समाज के हाथभर ‘जिम्मेदार’ व्यक्तित्व महिलाओं के निजी जीवन के चीथड़े उड़ाने में पल भर की भी देरी नहीं करते।
सही हो या गलत पर मुद्दा यह है, कि यह आकलन कभी उस स्त्री की निजी तरजीह को नहीं दिखाता। इस बात को पाकिस्तान की ही एक और शायरा, परवीन फना सैयद कुछ ऐसे कहती हैं –
परवीन शाकिर की शायरी की खासियत यही थी कि इस ‘दीवार-ए-अना’ को तोड़ कर उन के जज्बातों की बाढ़, पढ़ने वाले पुरुष समाज को डुबोती नहीं, बल्कि अपनी गहराई में सराबोर कर देती है और वह कह उठती है-
नए सफर पे चलते हुए ये ध्यान रहे
रस्ते में दीवार से पहले दर भी है
24 नवम्बर, 1952 को कराची में जन्मी परवीन शाकिर की यह कोमलता, उनकी लिखावट में रचे-बसे स्त्रीत्व की पहचान है। इस कोमलता में आरज़ू की कमजोरी नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति है, स्त्रीत्व की आरज़ू की ताकत है।
वह मुहब्बत की खुशबू से लबरेज अपनी रचनाओं से समाज की सड़ी गली परम्पराओं को नकारती है। सामाजिक मान्यता में शादी एक बंधन है, परवीन उसी समाज में उसे एक रुहानी रिश्ते में तबदील कर देती है, अपने ‘जीवन-साथी’ से कुछ यूं पूछ कर-
धूप में बारिश होते देख कर हैरत करने वाले,
शायद तूने मेरी हंसी को छू कर कभी नहीं देखा
बचपन से जवानी की दहलीज पर कदम रखा हुआ एक स्त्री मन, अपनी अल्हड़ बेबाकी रखता है और परवीन लिखती है-
वो रूत भी आई कि मैं फूल की सहेली हुई
महक में चम्पाकली, रूप में चमेली हुई
जो हर्फ-ए-सादा की सूरत हमेशा लिखी गई
वो लड़की किस तरह तेरे लिए पहेली हुई
अल्हड़ सादगी, सिर्फ नजर का धोखा है। परवीन का ‘चमेली’ रूप एक परिपक्व स्त्रीत्व का मालिक है। इश्क की बारीकियों को समझने वाला उनका मन, लगभग हर स्त्री मन की पूरी या अधूरी आरजू का हर्फ बन कर उभरता है –
खुली आंखों में सपना झांकता है
वो सोया है, कि कुछ-कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन के नाचता है
मुझे हर कैफियत में क्यों न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उसकी दस्तरस में हूं
मगर वो मुझे मेरी रिज़ा से मांगता है
इस नज्म ‘खुली आंखों में सपना झांकता है’ का शीर्षक जब आखिरी की दो पंक्तियों से जुड़ता है तो स्त्री मन के चमकते आईने में इश्क का असली अक्स साफ-साफ झलकता है।
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त्याग में प्रेम का पाठ
शाकिर किस खूबसूरती से यह भी जता देती है कि असल जिन्दगी में यह अक्स कमोबेश उतना ही छिछला है, जितना कि किसी स्त्री मन पर पड़ी कृष्ण के अमर प्रेम की अमिट छाप।
यही वह आरजू थी, जो कमला दास की कविता ‘वृंदावन’ में झलकी, जब दास ने कहा-
वृन्दावन जीवंत है
हर स्त्री के मन का मान
उसी बंसी की मधुर तान …..
ले जाती है मुझे जाने कहां
दूर वहीं से, वहां जहां
बसा है मेरा घर-बार
रहता है मेरा भरतार
और रूहानी इश्क कि यही मृगतृष्णा, परवीन शाकिर अपनी नज्म ‘सलमा कृष्ण’ में बयां करती है-
तू है राधा अपने कृष्ण की
तिरा कोई भी होता नाम
मुरली तिरे भीतर बजती
किस वन करती विश्राम
जहां कमला दास, रुहानी इश्क की तलाश में घर-बार से दूर जाती नजर आती है, वहीं परवीन शाकिर वृंदावन को हर स्त्री की आरजू का हिस्सा बताते हुए बुनियादी रिश्तों को रूहानी इश्क का ठहराव देती दिखाई देती है।
उनकी कलम, एक दुल्हन को राधा और उसके जीवनसाथी को कृष्ण बनाती है। त्याग में प्रेम का पाठ पढ़ाती परवीन शाकिर स्त्री के बेमोल बिक जाने को उसका जोग बना बैठती है। उनकी लिखावट में ‘अना’ का तिरस्कार नहीं, दर्प के उस दर्द का अंगीकरण है।
यही खूबी इनके व्यक्तित्व के विस्तार की जिम्मेदार है। भावनाओं की इस गहराई में गोते खाती परवीन की शायरी मन को उतनी ही गहन तत्परता से छूती है। वह रिश्तों को नकारती नहीं, बल्कि ठोस कोमलता से स्वीकारती है। उनकी आरजू की ताकत इसी स्वीकृति में है।
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स्त्री मन के एहसासों
वे बेशर्म नहीं है। बल्कि स्त्री मन के एहसासों को खालिस इंसानी मन के नजरिये में ढालने वाली एक पुख्ता मिसाल है। झूठी सामाजिक मर्यादाओं का चोला पहनने वाला स्त्री मन, जब स्वयं अपनी समझ से अपनी मर्यादाए बनाता है तो समाज केवल ठगा से देखता रहता है।
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
उनके लेखन की खूबसरती यही थी कि इन नई मर्यादाओं में स्त्री वर्जनाओं को सृजित करने वाले पुरूष निकाले नहीं गए थे।
वह परवीन की कलम और उनकी भावनात्मक शैली की स्वीकृति की हद में थे। प्रेम उनके लिए कोई बीमारी नहीं थी जिसका वह इलाज करवाती बल्कि यह तो वह रास था, जिसका रंग हर इंसान महसूस करना चाहता है। अपनी नज्म ‘वर्किंग वूमन’ में वह स्त्री आरजू के इस पहलू को बहुत खूब कहती है-
सब कहते है
कैसे गुरूर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरी अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफे पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर कर्ज नहीं है
मैं जब चाहे खिल सकती हूँ
मेरा सारा रूप मिरी अपनी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊंचा कर के मिल सकती हूँ
एक तनावर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी जरखेज नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी जब तेज हवा हो
किसी बहुत मजबूत शजर के तन से लिपटना चाहती है
इस नज्म में शाकिर कि वैचारिक परिपक्वता साफ झलकती है। एक कामकाजी स्त्री एक कामकाजी पुरुष की ही तरह स्वयंभू होती है ‘कभी-कभी जब हवा तेज हो’ तो बेल की कोमलता पेड़ को बांधती है और पेड़ की मजबूती बेल को संभालती है। इस नज्म में एक बार फिर, परवीन शाकिर के एहसासों की गहराई उनकी कलम से छलकी है।
अपनी कई नज्मों में स्त्री-पुरुष के बीच खड़ी ‘दीवार-ए-अना’ को पाटने वाली, परवीन शाकिर स्त्री के अपने स्वयंभू ज़मीर से अनजान नहीं। वह लिखती है-
फूलों और किताबों से आरास्ता घर है
तन की हर आसाइश देने वाला साथी
आंखों को ठंडक पहुँचाने वाला बच्चा
लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंग महल
में जहां कहीं जाती हूँ
बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई
एक आवाज बराबर गिरा करती है
मुझे निकालो, मुझे निकालो
इस नज्म का नाम है ‘एक दफनाई हुई आवाज’ और साफ है कि शाकिर जितनी बेबाकी से आरजू की गहराई को समझती हैं उतना ही स्त्री मन की रवायतों में घुटन को भी समझती हैं।
परवीन शाकिर की कलम में जिन्दगी आशना है, चाहे घर की बुनियादों में हो चाहें छत के चांद में। वह बस एक ही बात का तकाजा चाहती दिखती है- वफा और सच का। उनकी लिखावट में मन की उड़ान को तरजीह दी गई है। इस में कोई शक नहीं कि उनकी नज्में परम्पराओं को तोड़ती है।
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
एक औरत की आवाज मर्दों के दिलों दिमाग को खासा झकझोरती है, क्योंकि परवीन शाकिर एक एहसास है… स्त्री व्यक्तित्व का, स्त्री मन का, स्त्री प्रताड़नाओं का, स्त्री मर्यादाओं का और उससे थी बढ़कर इश्क और आरज़ू का।
अपनी नज्म ‘हमारे दरमियां’ में वह एहसास के अनछूये पहलुओं से दिल को गहरा छूती है-
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी…
हमारे दरमियां ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे जिम्मे कोई आंगन नहीं था
कोई वादा तेरी जंजीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इकरार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिंद
तू आजाद था
रास्ते तेरी मर्जी के थे
मुझे भी अपनी तन्हाई थी
देखा जाए तो पूरा तसर्रूफ था
मगर जब आज तूने रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफाई की
परवीन शाकिर सन् 1996 में महज 42 साल कि उम्र में दुनिया को अलविदा कह गई। पर उन की कलम आरजू बन कर हर पढ़ी लिखी स्त्री मन पर एक बार दस्तक जरूर देगी और हो सकता है पुरुष मन की कुछ बंद दीवारों को भी यह अल्फाज दरों में तब्दील करते नजर आये।
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।