इंकलाबी खातून रशीद जहाँ का तफ़्सीली ख़ाका

किताबीयत : हमारी आज़ादी तथा अन्य लेख

डॉ. रशीद जहाँ अपनी सैंतालिस साल की छोटी सी ज़िंदगानी में एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय रहीं। उनकी कई पहचान थीं मसलन अफसाना निगार, ड्रामा निगार, जर्नलिस्ट, एडीटर, डॉक्टर, सियासी-समाजी एक्टिविस्ट और इन सबमें भी सबसे बढ़कर, मुल्क में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में उनका अविस्मरणीय योगदान है।

वे प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की संस्थापक सदस्य थीं। इन दोनों संगठनों के विस्तार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी और उर्दू ज़बान के अदीबों, संस्कृतिकर्मियों को इन संगठनों से जोड़ा। अफ़सोस, ऐसी बेमिसाल शख़्सियत और उनकी तहरीरों के बारे में हमारी नई पीढ़ी की जानकारी बेहद महदूद है।

नई पीढ़ी डॉ. रशीद जहाँ और उनके काम को जानें, इस एक अदद मक़सद की ख़ातिर उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने बुकलेट हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखप्रकाशित की है। जिसमें न सिर्फ डॉ. रशीद जहाँ की जुझारू शख्सियत पर रौशनी डालते कुछ मानीखे़ज मजा़मीन हैं, बल्कि उनके कुछ चर्चित लेख भी शामिल हैं।

इस बुकलेट का संपादन और अनुवाद शकील सिद्दीकी ने किया है। उर्दू से हिन्दी तर्जुमे के मैदान में शकील सिद्दीकी जाना-पहचाना नाम है। उन्होंने उर्दू से कई अहमतरीन किताबों उमरावजान अदा’, ‘गु़जिश्ता लखनऊ’, ‘परीखाना’, ‘अंगारे’, ‘दस्तबूवगैरह का हिंदी में अनुवाद किया है।

इन किताबों के अलावा डॉ. रशीद जहाँ के अफसाने, ड्रामें और मज़ामीन को हिन्दी में लाने का सेहरा भी उन्हीं के सिर है। इसी सिलसिले की अगली कड़ी बुकलेट हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखहै।

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शख्सियत का खा़का

बुकलेट दो हिस्सों में है। पहले हिस्से में मुंशी प्रेमचंद और तरक़्क़ी पसंद अदीबों की पहली कांफ्रेंस’, ‘हमारी आज़ादी’, ‘जनता एवं साहित्य’, ‘उर्दू अदब में इंक़िलाब की ज़रूरत’, ‘औरत घर से बाहरऔर चंद्र सिंह गढ़वालीजैसे रशीद जहाँ के खास लेख संकलित हैं।

दूसरे हिस्से में उनके कुछ समकालीन अदीबों ने अपने लेखों में इस बात को रेखांकित किया है कि मुल्क की आज़ादी, तरक़्क़ीपसंद तहरीक और अदब में डॉ. रशीद जहाँ की क्या अहमियत, हैसियत है और उन्हें क्यों याद किया जाना चाहिए।

शकील सिद्दीकी ने बुकलेट की प्रस्तावना के अलावा अपने एक दीगर लेख में रशीद जहाँ की ज़िन्दगी और अदब पर तफ़्सील से लिखा है। रशीद जहाँ के जानिब आज़ादी का क्या तसव्वुर था, वे आज़ाद हिन्दोस्ताँ में किस तरह की हुकूमत चाहती थीं?, उनके हमारी आज़ादीलेख से जाना जा सकता है,

हमारे मुल्क में ऐसी आज़ादी चाहिए कि हमारे हिन्दोस्ताँ में कोई भूखा और बेरोजगार न रह जाए। हमारे यहां के हर बच्चे और बूढ़े, औरत-मर्द को हाई स्कूल तक की तालीम मुफ्त और जरूर मिले। शिफ़ाख़ाने (अस्पताल) मुफ़्त हों और इतने हों कि कोई बीमार घर में पड़ा न सड़े या सड़क के किनारे दम न तोड़ दे।

हमारे मुल्क में अवाम की जम्हूरी हुकूमत हो और वह अपने फायदे के लिए मुल्क की सारी पैदावार ख़्वाह वह जमीन से हो, ख़्वाह फैक्ट्रियों से हों, उन पर जनता का पूरा-पूरा अख्तियार हो।” (पेज-23)

मुंशी प्रेमचंद और तरक़्क़ी पसंद अदीबों की पहली कांफ्रेंसऔर चंद्र सिंह गढ़वाली’, रशीद जहाँ के इन लेखों में  दो अलग-अलग क्षेत्र की बेजोड़ शख्सियत के बारे में कई दिलचस्प मालूमात मिलती हैं, जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं।

उर्दू-हिन्दी के महान कथाकार प्रेमचंद और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्र सिंह गढ़वाली दोनों को ही उन्होंने बड़ी शिद्दत से याद किया है। प्रगतिशील लेखक संघ का पहला संमेलन जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी, इस सम्मेलन के बहाने रशीद जहाँ ने उनका एक मुख़्तसर सा खा़का खींच दिया है।

इस खा़के से मालूम चलता है कि प्रेमचंद एक बेहतरीन अदीब के अलावा कितने सहज और सरल इन्सान थे। प्रगतिशील लेखक संघ के बारे में वे क्या सोचते थे और इससे उनकी क्या उम्मीदें थीं। चंद्र सिंह गढ़वाली पहले भारतीय सिपाही थे, जिन्होंने 1857 क्रांति के बाद भारतीय फौज को अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुजरने का सबक सिखाया।

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जन पक्षधरता और इंकलाबी सोच

23 अप्रेल 1930 को पेशावर के किस्साख़्वानी बाज़ार में अंग्रेज अफसर की हुक्म की उदूली कर न सिर्फ अपना बल्कि अपनी पलटन 18/2 रॉयल गढ़वाली रायफल का नाम हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में सुनहरे अल्फ़ाजों में लिखवा लिया।

चंद्र सिंह गढ़वालीलेख में रशीद जहाँ ने उनकी हंगामखे़ज जिन्दगी और मुल्क की आज़ादी में उनके यादगार योगदान के बारे में विस्तार से लिखा है। लेख से मालूम चलता है कि अंग्रेजी फौज में रहकर वे किस तरह से भारतीय फौजियों में आज़ादी का जज़्बा जगा रहे थे। इस बहादुर सिपाही ने अंग्रेज हुकूमत के लाख जु़ल्म सहे, पर उनके आगे झुका नहीं।

रशीद जहाँ एक इंकलाबी खातून थीं। उनके अदब में ये इंकलाबी रुझान जगह-जगह दिखलाई देता है। जनता एवं साहित्य’, ‘उर्दू अदब में इंकिलाब की जरूरतऔर औरत घर से बाहरआदि लेख में उनके जनवादी और बगावती तेवर साफ नज़र आते हैं।

दीगर लेखों के बनिस्बत ये लेख छोटे-छोटे हैं, मगर इन लेखों में उनकी जन पक्षधरता और इंकलाबी सोच का दीदार होता है। जनता एवं साहित्यलेख में उनका नजरिया है, फासिज्म के खिलाफ लड़ाई में लेखक हो या फिर कलाकार, वे इस लड़ाई में गैर-जानिबदार बनकर नहीं रह सकते। उन्हें अपना पक्ष चुनना ही होगा।

उर्दू अदब में इंकिलाब की जरूरत’, लेख दरअसल शायर-ए-इंकिलाब जोश मलीहाबादी के इसी टाइटल से शाया हुए चर्चित लेख का तफ्सिरा है। जिसमें रसीद जहाँ बड़े तार्किक अंदाज में इस लेख का विश्लेषण करते हुए इस नतीजे पर पहुंचती हैं, हमारे अदीब, जो सोसाईटी की तब्दीलियों को जो हो रही हैं और जिनकी आइंदा ज़रूरत है, अगर बर-वक्त ख़याल में न रखेंगे, तो हमारा अदब परस्ती, लाचारी और बेचारगी से निकल नहीं पायेगा।

रशीद जहाँ का यह ख़याल आज के हालात पर पर भी बिल्कुल दुरुस्त बैठता है। अपने समय से निरपेक्ष रहकर, कभी अच्छा साहित्य नहीं रचा जा सकता।

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साहित्य में स्त्री यथार्थ की शुरुआत

उर्दू अदब में आज हमें जो स्त्री यथार्थ दिखलाई देता है, उसमें रशीद जहाँ का बड़ा योगदान और कुर्बानियां शामिल हैं। डॉ. मुल्कराज आनंद से लेकर डॉ. कमर रईस तक इसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे।

प्रोफेसर नूरुल हसन ने रशीद जहाँ को पहली ऐसी मुस्लिम लेखिका कहा है, जिन्होंने पहली बार औरत और मजहब के सवाल पर बिना किसी झिझक के अपने ख़याल बयां किए।

सच बात तो यह है कि रशीद जहाँ ने अपने अफसानों और लेखों में सिर्फ औरत के हालात का ही तजकिरा नहीं किया, बल्कि वह सामंती और मजहबी बेड़ियों से कैसे आजाद हो?, उसकी पुरजोर पैरवी की। रूढ़ियों, धार्मिक कर्मकांडों पर जमकर प्रहार किए।

औरतों के लिए समाज में लैंगिक न्याय और समानता की वकालत की। उसके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। रशीद जहाँ ने कहानी, एकांकी और नाटक लिखने के अलावा पत्रकारिता भी की।

प्रगतिशील लेखक संघ के अंग्रेजी मुख्य पत्र द इंडियन लिट्रेचरऔर सियासी मासिक मैगजीन चिंगारीके संपादन में उन्होंने न सिर्फ सहयोग किया, बल्कि इसमें रचनात्मक अवदान भी दिया।

उन्होंने अपने ज्यादातर लेख चिंगारीके लिए ही लिखे। बुकलेट में शामिल औरत घर से बाहरलेख में उनका नज़रिया है, औरत घर के बाहर निकलेगी, तभी आर्थिक तौर पर आज़ाद होगी।

हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखके दूसरे हिस्से की सबसे बड़ी उपलब्धि उर्दू के बड़े तनकीद निगार डॉ. कमर रईस का लेख रशीद जहाँ-क्रांतिकारी चिंतन की लेखिकाहै। जिसमें उन्होंने रशीद जहाँ और उनके अदब पर विस्तार से लिखा है। उन्हें अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए यह एक मुकम्मल आलेख है।

उर्दू अफसाना निगारी में रशीद जहाँ के योगदान का जिक्र करते हुए डॉ. कमर रईस यहां तक लिखते हैं, “तरक्कीपसंद अदीबों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहाँ तन्हा थीं, जिन्होंने उर्दू अफसानों में समाजी और इंकलाबी हकीकत निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक के बानी सज्जाद ज़हीर ने अपनी किताब रौशनाईमें डॉ. रशीद जहाँ और उनके खाविंद महमूद जफ़र के बारे में तफ्सील से लिखा है। मुश्किलों में हंसते हुए जीनालेख में संपादक शकील सिद्दीकी ने सज्जाद ज़हीर की उन टिप्पणियों को शामिल किया है, जो रशीद जहाँ से संबंधित थीं। इस लेख को पढ़कर, उनकी शख्सियत के कई अनछुए पहलू सामने आते हैं।

कुछ भी कर सकती थीं वह इप्टा के लिए’ (राजेन्द्र रघुवंशी) और अवाम के लिए अवामी थियेटर’ (सिद्दीका बेगम) लेख रसीद जहाँ के रंगकर्म और इप्टा के प्रति उनके समर्पण को प्रदर्शित करते हैं। सिद्दीका बेगम ने अपने लेख में इस बात को रेखांकित किया है, रशीद जहाँ अवाम के लिए उसी की ज़बान में थियेटर करने की हामी थीं।

उनकी बेजोड़ शख्सियत’ (राधे दुबे) लेख बुकलेट में क्यों शामिल किया गया?, समझ से परे है। क्योंकि दीगर लोगों के साथ रशीद जहाँ का इसमें मुख्तसर सा तआरुफ भर है।

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दुख़्तरे एशिया

बुकलेट के आखिर में रशीद जहाँ की जिन्दगी का पूरा लेखा-जोखा दिया गया है। बुकलेट का इख़्तिताम शायर सलाम मछलीशहरी की नज़्म से किया गया है। इस नज़्म में वे रशीद जहाँ को दुख़्तरे एशिया (एशिया की बेटी) का खि़ताब देते हुए लिखते हैं, ऐ रशीद जहाँ-ऐ दुख़्तरे एशिया, इससे पहले कि मैं ख़्वाब से चौंकता/शम-ऐ-गुल की ताबिंदगी खो गई, इससे पहले कि मैं रौशनी मांगता।

जैसा कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया कि बुकलेट हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखउत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने प्रकाशित की है। जाहिर है कि बुकलेट का प्रकाशन एक मक़सद के तहत है, इस लिहाज से देखें, तो पेपरबैक में छपी इस बुकलेट का 70 रुपए दाम, कुछ ज्यादा ही है। यहीं नहीं बुकलेट की छपाई भी और बेहतर हो सकती थी।

उम्मीद है कि अगले संस्करण में बुकलेट की यह कमियां दुरुस्त कर ली जाएंगी। बुकलेट का टाइटल हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखबुकलेट के मसौदे के मुताबिक मुनासिब नहीं लगता। क्योंकि, जिस में डॉ. रशीद जहाँ पर मब्नी लेख भी शामिल हैं।

जहाँ तक इस बुकलेट के अनुवाद का सवाल है, शकील सिद्दीकी ने तर्जुमा करते वक्त आसान हिन्दोस्ताँनी ज़बान की बजाय संस्कृतनिष्ट हिन्दी को तरजीह दी है। लिहाजा उर्दू जबान में जो रवानगी है, वह हमें कहीं बुकलेट में नज़र नहीं आती।

बावजूद इसके हमारी आज़ादी तथा अन्य लेखडॉ. रशीद जहाँ, उनके अदब और समाजी-सियासी सरोकारों को जानने-समझने के लिए एक बेहतर बुकलेट है। प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हर शख्स को यह बुकलेट जरूर पढ़नी चाहिए।

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किताब का नाम : हमारी आज़ादी तथा अन्य लेख

संपादन एवं अनुवाद : शकील सिद्दीकी

भाषा : हिन्दी

पन्ने : 100

कीमत : 70 (पेपरबैक संस्करण)

प्रकाशक- प्रगतिशील लेखक संघ, लखनऊ

संपर्क : 9839123525

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