रवीन्द्रनाथ टैगोर एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं हैं। ‘जन गण मन’ भारत का राष्ट्र-गान तो ‘आमार सोनार बांग्ला’ बांगला देश का। महाकवि टैगोर 1861 को वह पैदा हुए। वे प्रसिद्ध बंगाली लेखक, संगीतकार, चित्रकार तथा विचारक थे।
आज भी उनकी कई रचनाएं पढी औप पढाई जाती हैं। तत्कालीन समाज में वह पहले ऐसे ग़ैर-यूरोपीय थे जिनको साहित्य के लिए नोबल सम्मान मिला था। आज जन्मदिन के अवसर पर उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘मुसलमानी की कहानी’ हम आपके लिए दे रहे हैं..
उन दिनों अराजकता के दूतों ने देश के शासन को काँटों से भर दिया था। अप्रत्याशित अत्याचारों से दिन-रात काँप रहे थे। दुःस्वप्नों के जाल ने जीवन के समस्त कार्यकलाप को जकड़ रखा था। गृहस्थ लोग सिर्फ देवताओं के मुँह की तरफ ताकते रहते थे। मनुष्य का मन दुष्टों के डर से काँपता रहता था।
मनुष्य हो या देवता, किसी पर भी विश्वास करना कठिन था, केवल आँसुओं की दुहाई देते रहते थे। अच्छे काम और बुरे काम के परिणाम में अंतर की सीमारेखा बहुत दुर्बल हो गई थी। चलते-चलते आदमी ठोकर खाकर बुरी स्थिति में पड़ जाता था।
ऐसे में घर में सुन्दर कन्या का आना भाग्यविधाता के अभिशाप के समान था। उसके आने से परिवार के सभी लोग यही कहते थे, ‘मुँहजली टले तो जान बचे।’ तीन महल के ताल्लुकेदार वंशीवदन के घर ऐसी ही एक परेशानी आ गई।
कमला सुन्दर थी। माँ-बाप मर गए थे; उन्हीं के साथ वह भी मर जाती तो बाकी परिवार निश्चिन्त हो जाता। पर वैसा नहीं हुआ। तब से उसके चाचा वंशी बड़े स्नेह और सावधानी से उसे पाल रहे थे।
किन्तु उसकी चाची प्राय: पड़ोसिनों से कहती रहती थी, ‘देखो तो, माँ-बाप हमारा सर्वनाश करने के लिए उसे हमारे सिर पर छोड़ गए। कब क्या हो, कहा नहीं जा सकता। मेरा बाल-बच्चों वाला घर है, उन सबके बीच यह लड़की जैसे सर्वनाश की मशाल जलाए बैठी है। चारों तरफ से दुष्ट लोगों की नज़र उस पर रहती है। मुझे तो इस डर से नींद भी नहीं आती, कि किसी दिन इसी की वजह से हम डूबेंगे।’
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पर किसी तरह दिन बीत रहे थे। फिर विवाह के लिए एक रिश्ता आया।
उसके चाचा कहते थे, ‘मैं ऐसे घर का लड़का ढूँढ़ रहा हूँ जो लड़की की रक्षा कर सके।’ यह लड़का मोचाखाली के सेठ परमानन्द का मँझला लड़का था। बहुत-से रुपयों का मालिक था, पर यह तय था कि पिता के मरते ही रुपयों का निशान भी नहीं बचने वाला था। लड़का बेहद शौकीन था। बाज उड़ाना, जुआ खेलना, बुलबुल लड़ाना वगैरह में छाती ठोककर पैसे लुटाता था।
उसे अपने धन का बड़ा गर्व था। उसके पास पैसा था भी बहुत। उसने मोटे-मोटे भोजपुरी पहलवान रखे हुए थे। सब प्रसिद्ध लठैत थे। वह सब जगह यह कहता हुआ घूमता था कि “पूरे इलाके में कौन माई का लाल है जो मेरे शरीर को हाथ भी लगा सके।” वह लड़कियों का बहुत शौकीन था।
उसकी पत्नी थी, पर अब एक नई कच्ची उम्र की लड़की की खोज में था। उसके कानों में कमला के सौन्दर्य की बात पड़ी। उसका वंश बहुत धनवान ही नहीं, शक्तिशाली भी था। उसने प्रण किया कि इस लड़की को अपने घर ले जाएगा।
कमला ने रोकर कहा, ‘चाचाजी, मुझे कहाँ डुबो रहे हो?’
वे बोले, “माँ, तुम तो जानती हो कि अगर मुझमें तुम्हारी रक्षा करने की सामर्थ्य होती तो सदा छाती से लगाकर रखता।”
शादी के वक्त लड़का छाती फुलाकर आया। बाजे-गाजों का अन्त नहीं था। चाचा ने हाथ जोड़कर कहा, “दामाद जी, समय बहुत ख़राब चल रहा है, इतनी धूमधाम करनी ठीक नहीं है।”
सुनते ही उसने फिर चुनौती के स्वर में कहा, ‘देखते हैं कौन पास आने का साहस करेगा।’
चाचा बोले, “शादी पूरी होने तक लड़की का दायित्व हमारा है, उसके बाद वह तुम्हारी हो जाएगी – उसे सुरक्षित घर ले जाने का जिम्मा तुम्हारा है। हम वह दायित्व नहीं ले सकते, हम कमजोर हैं।”
उसने छाती चौड़ी कर कहा, “डरने की कोई बात नहीं है।” भोजपुरी पहलवान भी मूँछों पर ताव देते हुए लाठियाँ लिये खड़े रहे।
शादी के बाद वर कन्या को लेकर प्रसिद्ध तालतड़ी के मैदान से निकल रहा था। रात के दूसरे पहर में मधु मल्हार नामक डाकुओं का सरदार मशालें लिए दल-बल के साथ ललकारता हुआ आ गया। भोजपुरी लठैतों में से एक नहीं रुका, क्योंकि वे जानते थे कि मधु मल्हार जैसे विख्यात डाकू के हाथों में पड़ने पर कोई नहीं बच सकता था।
कमला पालकी से उतरकर झाड़ियों में छिपने जा रही थी, तभी बूढ़ा हबीब खाँ पीछे आकर खड़ा हो गया। लोग उसकी पैगम्बर की तरह पूजा (पैगम्बर कि पूजा नही होती, यह सांकेतिक शब्दावली हो सकती हैं – संपादक) करते थे। उसने सीधे खड़े होकर कहा, “मैं हबीब खाँ हूँ, तुम सब यहाँ से जाओ।”
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डकैत बोले, ‘खाँ साहब, आपके सामने तो कुछ कह नहीं सकते, पर हमारा काम आपने मिट्टी में क्यों मिला दिया?’
पर जो भी हो, उन्हें जाना ही पड़ा।
हबीब ने आकर कमला से कहा, “तुम मेरी बेटी हो। तुम डरो नहीं, अब इस आपद की जगह से घर चलो।”
कमला बहुत संकुचित हो उठी। हबीब ने कहा, ‘समझ गया, तुम हिन्दू ब्राह्मण की लड़को हो, मुसलमान के घर जाने में झिझक रही हो। पर एक बात याद रखना, सच्चा मुसलमान धर्मनिष्ठ हिन्दू ब्राह्मण का भी सम्मान करता है। मेरे घर में तुम हिन्दू घर की लड़की की तरह ही रहोगी। मेरा नाम हबीब खाँ है। मेरा घर पास ही है, तुम चलो, मैं तुम्हें ठीक से रखूँगा।’
पर कमला संकोच के कारण किसी तरह जाना नहीं चाहती थी। यह देखकर हबीब ने कहा, ‘देखो, मेरे जीते जी इस गाँव में, कोई तुम्हारा धर्मभ्रष्ट नहीं कर सकता। तुम मेरे साथ चलो, डरो नहीं।’
हबीब खाँ कमला को अपने घर ले गया। आश्चर्य की बात यह थी, उस आठ मंज़िले मुसलमान के घर की एक मंज़िल पर शिवमन्दिर था और हिन्दू स्त्री के रहने की पूरी व्यवस्था थी।
एक वृद्ध ब्राह्मण आया और बोला, “माँ, यह घर हिन्दू घर जैसा ही समझो। यहाँ तुम्हारी जाति सुरक्षित रहेगी।”
कमला रोकर कहने लगी, “कृपा करके चाचाजी को ख़बर भिजवा दें, वे आकर ले जायेंगे।”
हबीब बोला, “माँ, गलती कर रही हो। तुम्हारे घर से कोई तुम्हें वापिस नहीं ले जाएगा, वे तुम्हें बीच सड़क पर छोड़ देंगे। चाहो तो एक बार परीक्षा ले सकती हो।”
*
हबीब खाँ कमला को उसके चाचा के घर के दरवाज़े तक ले जाकर बोला, ‘मैं बाहर तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।’
घर में अन्दर जाकर कमला चाचा से लिपट गई और बोली, ‘चाचाजी, मुझे कभी मत छोड़ना।’
चाचा की दोनों आँखों से आँसू बहने लगे।
तभी चाची ने आकर देखा और बोलने लगी, ‘दूर कर दो, इस कुलच्छनी को दूर कर दो। सर्वनाशिनी, दूसरी जाति के घर में रहकर लौटने में शरम नहीं आई!’
चाचा बोले, “बेटी, कोई उपाय नहीं है। समाज में कोई तुम्हें लौटने नहीं देगा, बल्कि हमारी भी जाति जाएगी।”
कुछ देर कमला सिर झुकाए खड़ी रही, फिर धीमे कदमों से दरवाज़े से निकलकर हबीब के साथ लौट गई। उसके चाचा के घर के द्वार उसके लिए सदा को बन्द हो गए थे।
हबीब खाँ के घर पर उसके लिए धर्मपालन की सुविधा व्यवस्थित की गई। हबीब खाँ ने कहा, ‘तुम्हारे घर मेरे घर से कोई नहीं आएगा। इस बूढ़े ब्राह्मण के साथ तुम अपनी पूजा-सेवा, आचार-विचार का पालन कर सकोगी।’
इस घर का एक पुराना इतिहास था। इसे लोग राजपूतनी का महल कहते थे। बहुत पहले एक नवाब राजपूत कन्या को उठा लाए थे, पर उसकी जाति बचाने के लिए उसे अलग रखा था। वह शिवपूजा करती थी, बीच-बीच में तीर्थयात्रा के लिए भी जाती थी।
उन दिनों उच्च वंश के मुसलमान धर्मनिष्ठ हिन्दुओं की बहुत इज्जत करते थे। वह राजपूतनी इस महल की दूसरी हिन्दू बेगमों को आश्रय देती थी, उनका धर्म भी सुरक्षित रखती थी। सुना जाता है कि यह हबीब खाँ उसी राजपूतनी का बेटा है। उसने माँ का धर्म तो ग्रहण नहीं किया था, पर मन में माँ की पूजा करता था।
वह माँ तो अब नहीं रहीं, किन्तु उनकी स्मृति की रक्षा के लिए उसने समाज से ठुकराई गई पीड़ित हिन्दू लड़कियों को विशेष रूप से आश्रय देने का प्रण उठाया हुआ है।
कमला को उससे वह मिला जो अपने घर में भी नहीं मिला था। वहाँ चाची हर समय उसे कुलक्षणी, सर्वनाशी, अभागी आदि कहती थी। वह कहती थी कि उसके मरने पर ही वंश का उद्धार होगा।
कभी-कभी उसके चाचा उसे छिपा-चुराकर कुछ कपड़े वगैरह देते भी थे तो वह उन्हें चाची के डर से छिपाती रहती थी। राजपूतनी के महल में आकर उसे रानी का पद मिला। यहाँ उसकी इज्जत का कोई अन्त नहीं था। उसके चारों तरफ हिन्दू दास-दासी मौजूद रहते थे।
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धीरे-धीरे वह बालिका से युवती हुई। घर के एक लड़के ने छिपकर उसके यहाँ आना शुरू कर दिया। मन-ही-मन वह उससे बंध गई। तब उसने हबीब खाँ से कहा, “बाबा, मेरा कोई धर्म नहीं है, मेरा प्रेम ही मेरा धर्म है। जिस धर्म ने सदा मुझे जीवन के प्रेम से वंचित रखा, मुझे अवज्ञा से फेंक दिया, उस धर्म में मुझे कभी भगवान को खुशी नहीं दिखी।
वहाँ के देवताओं ने मुझे रोज अपमानित किया, मैं आज भी यह भूल नहीं पाती हूँ। बाबा, मुझे तुम्हारे घर पहले-पहल प्यार मिला। मैंने जाना कि मुझ हतभागिनी लड़की के जीवन का भी कोई मूल्य है। जिस देवता ने मुझे आश्रय दिया, मैं प्रेम के पूरे सम्मान के साथ उन्हीं की पूजा करती हूँ; वही मेरे देवता हैं, वे न हिन्दू हैं ना मुसलमान। मैंने तुम्हारे मँझले बेटे को मन-ही-मन ग्रहण किया है। मेरा धर्म-कर्म उसी के साथ बँध गया है। तुम मुझे मुसलमान बना लो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। मेरे दो धर्म हो जायेंगे।”
उनकी जीवन-यात्रा बढ़ती गई। अपने पहले परिवार वालों से उसके मिलने-जुलने की कोई सम्भावना नहीं थी। इधर हबीब खाँ ने यह भुलाने की चेष्टा की कि कमला उनके परिवार की कोई नहीं है और उसका नाम ‘मेहरजान’ रखा।
इधर उसके चाचा की दूसरी बेटी के विवाह का समय आया। सारे प्रबन्ध पहले की तरह ही हुए, पर फिर वही परेशानी सामने आई। डकैतों ने पहले की तरह बारात पर हमला बोला। एक बार उनका शिकार छिन चुका था, उन्हें उसका दुःख था, वह इस बार बदला भी लेना चाहते थे।
किन्तु फिर एक बार पीछे से हुंकार आई, ‘खबरदार!’
‘लो, हबीब खाँ के चेलों ने आकर फिर सब गड़बड़ कर दिया।’
कन्यापक्ष के लोग कन्या को पालकी में ही छोड़कर जिसे जिधर जगह दिखी उधर भागना चाहते थे, पर तभी उनके बीच में हबीब खाँ की अर्द्धचन्द्राकार पताका लगा बरछा लिये एक निर्भीक युवती आकर खड़ी हो गई।
वह सरला से बोली, ‘बहन, डरो नहीं। मैं तेरे लिए उनका सहारा लेकर आई हूँ जो सबको आश्रय देते हैं, जो किसी की जाति के बारे में नहीं सोचते। चाचाजी, आपको मेरा प्रणाम, डरना नहीं, मैं आपके पैरों का स्पर्श नहीं करूँगी। अब इसे अपने घर ले जाओ, इसे किसी ने भ्रष्ट नहीं किया है।
चाची से कहना, बहुत दिन तक उनकी अनिच्छा के बावजूद उनका अन्न-वस्त्र लेकर बड़ी हुई हूँ। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वह ऋण आज इस तरह उतारूँगी। उनके लिए एक रंगीन चादर और यह कमख्वाब का आसन लाई हूं। उन्हे दे दीजिएगा। मेरी बहन, अगर कभी दुःख आए तो याद रखना तेरी रक्षा के लिए तेरी एक मुसलमान दीदी है।’
जाते जाते :
* आरएसएस के स्वाधीनता संग्राम के हिस्सेदारी की पड़ताल
* बारा साल की उम्र में ही सरोजिनी नायडू को निज़ाम ने दिया था वजीफा
* रवींद्रनाथ टैगोर के घोर विरोधी उन्हें क्यों अपनाना चाहते हैं?
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