भाग- 2
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर हमेशा के लिए लातूर छोड़ कर सोलापूर बस गए। पूर्व मंगलवार पेठ में उनका घर था। इच्छा होते हुए भी मैं सोलापूर जा नहीं पाता था। मेरी आर्थिक स्थिती काफी परेशानी वाली थी। परंतु वे महीने-दो महीने के अंतराल के बाद शनिवार शाम को पहुँचते। रविवार की शाम वापस जाते। खूब गपशप होती। छोटू मियां के यहां खाना खाते।
हमारी पूरी बहसे हिन्दी मराठी की नयी पुस्तकों पर होती। बाद में संभवत 1968 या 1969 में मेरी छोटी बहन की शादी हो गई। उसकी ससुराल सोलापूर में था। उससे मिलने मैं उनके यहां कोई कार्यक्रम होता तो जाता। फिर क्या अधिकतर समय बेन्नूर सरजी के साथ ही बीतता।
मेरी उनसे दोस्ती से मेरे पिताजी काफी प्रभावित थे। वह भी उनके यहां जाते। गपशप होती। मेरी प्रति बेन्नूर की आत्मीयता से भांपकर वह मेरे संबंध में एक प्यारभरी शिकायते सर के पास करते। उनसे कहते थे कि दोस्त जरा समझाओ, 30 की आयु पार कर गया हैं, अभी शादी के लिए तैयार नहीं है।
बेन्नूर सर मुझे इस संबंध में लंबी लंबी चिट्ठियां लिखते। मेरे पिताजी से कहते मैंने वहां शादी की है? वह भी कर लेता मेरी तरह। पिताजी को मालूम नहीं था कि वह शादीशुदा नहीं है। फिर भी उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं उससे कहूंगा। कहने का मतलब वे मेरे ही आत्मिय नही बल्कि पिताजी, माँ से, सोलापूर में बहनोई से भी आत्मिय हो गए थे।
मेरे बहनोई जब भी किसी परेशानी में रहते तो वे सीधे पूर्व मंगलवार पेठ पहुंचते। घर के आदमी की तरह उनसे सलाह मांगते। एक बार तो बड़ी झंझट से सर ने ही उन्हें बाहर निकाला था। इसका कोई जिक्र मेरे सामने नहीं करते। मेरे बहनोई मुझसे मिलने पर कहते बड़े उपकार है उनके मुझपर।
सोलापूर में जब भी कोई विशेष संगीत या नाटक, या फिर किसी प्रख्यात के व्याख्यान होते तो वह मुझे पूर्व सूचना देते। मैं वहां पहुंचता। दोनों एक साथ जाकर आनंद लेते। एक प्रसंग तो भूल ही नहीं सकता।
किसी रविवार को कन्नड़ में प्रख्यात कवि द. रा. बेंद्रे का मराठी में प्रवचन था, शाम को पी.एल. देशपांडे व्याख्यान और रात में भीमसेन जोशी का गायन। संयोजक थे बेन्नूर सर के सहयोगी तथा संगीत के जानकार श्री राम पुजारी। उस दिन तो हम दोनों ने वीआईपी के स्थान पर बैठे थे, खैर।
पढ़े : मंटो पढ़ते समय प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर होते भावविभोर
पढ़े : शांति और सदभाव के पैरोकार थें असगर अली इंजीनियर
पढ़े : तीस साल बाद कहां खडा हैं मुस्लिम मराठी साहित्य आंदोलन?
बदलते चर्चा के विषय
धीरे-धीरे हमारी चर्चा के विषय बदलने लगे। महाराष्ट्र में तब हमीद दलवाई नामक एक आदमी मंच पर आया। मुस्लिमों के सुधार आंदोलन के लिए उन्होंने मुस्लिम सत्यशोधक मंडल की स्थापना की। बेन्नूर सर ने सोलापूर में उनके व्याख्यान आयोजित किए। लातूर में समाजवादी मित्रों ने उनके तीन व्याख्यान आयोजित किए।
सर ने सोलापूर में मंडल का काम शुरू किया। इससे पूर्व हम दोनों में इस पर काफी बहसे होती रही। उन दिनों मैं देश विभाजन और हिन्दी साहित्य इस पर पीएचडी के लिए शोध कार्य कर रहा था। इस बहाने हिंदू-मुस्लिम संबंधों का इतिहास में ढूंढ रहा था। मित्र डॉ. मोईन शाकिर और बेन्नूर मेरे के साथ इस विषय पर घंटों बहस करते। बेन्नूर सर ने भी इन्हीं दिनों मुस्लिम जनजीवन का अध्ययन शुरू किया था।
संभवत: एक साल में ही मुस्लिम सत्यशोधक मंडल में उनका मोहभंग हुआ। दलवाई के अतिवादी विचारों लेकर मुसलमानों के बीच काम करना संभव ही नहीं था। शाकिर और मुझसे इस विषय पर घंटों बातें होती। फिर उन्होंने मंडल से हमेशा के लिए विदाई ली।
फिर हम दिनों युवक क्रांति दल से जुड़े। उसके संस्थापक डॉ. कुमार सप्तर्षी के नेतृत्व में काम करना शुरू किया। बेन्नूर कुमार के लिए सोलापूर में एक प्रामाणिक कार्यकर्ता थे। लातूर में तो वह काम समाजवादी युवकों में शुरू किया। मैं उनका मात्र एक सैनिक था।
संभवत मैंने ही पहली बार उनका परिचय मेरे विभाग में, औराद शहाजानी के फ. म. शहाजिंदे से करवा दिया था। हिन्दी में लिखने वाले मुसलमानों की एक लंबी परंपरा है। उनमें से अधिकांश का साहित्य मैंने बेन्नूर सर को पढ़ने के लिए दिया था। मैंने तभी कहा था कि मैं मराठी में लिखने वाली मुसलमानों की संख्या बहुत कम है। हिन्दी में तो बाजप्ता सूफी मान्य परंपरा है।
मलिक मुहंमद जायसी से लेकर अब तक। फिर उन्होंने युवक क्रांति दल का काम बंद किया, मोहभंग के कारण नहीं बल्कि अब वे अपना अधिकांश समय मुस्लिम प्रश्न के अध्ययन के लिए देने वाले थे। उन्होंने शुरुआत मराठी में संत काव्य से किया। वहां उन्हें करीब 10 मुस्लिम मराठी संत मिले।
पढ़ें : उर्दू और हिन्दी तरक्की पसंद साहित्य का अहम दस्तावेज़
पढ़े : खुदा बक्श लाइब्रेरी बचाने के लिए जन आंदोलन की जरुरत !
पढ़े : बशर नवाज़ : साहित्य को जिन्दगी से जोड़नेवाले शायर
मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद
उन दिनों मुसलमानों में 2–4 लोग मराठी लिखने वाले थे, जिनमें फ. म. शहाजिंदे भी एक थे, जिनकी कोई दखल नही ले रहा था, अपवाद नरहर कुरुंदकर का था। उन्होंने शहाजिंदे के काव्यसंग्रह की गंभीर प्रस्तावना लिखी थी।
सर ने मुझसे कहा कि मुस्लिमों की जो युवा पीढ़ी है, क्योंकि वे प्राध्यापक थे, उनमें अनेक छात्र मुस्लिम थे, उनकी मानसिकता को वह समझ रहे हैं। उन्होंने कहा उनमें अजीब सी छटपटाहट है। असुरक्षितता की भावना है। उनकी दिक्कत यह है कि वह लिखें तो भी इसे छापेंगा कौन? वह मुस्लिम है ना! और वह भी महाराष्ट्र में।
उन्हें एक्सपोजर (अभिव्यक्ति के लिए मंच) ही नहीं है। और यही से उन्हें ‘मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद’ की स्थापना का विचार आया। सोलापूर में अपने मित्र श्री नदाफ, श्री. मीर इसहाख और अन्य लोगों के साथ मिलकर उन्होंने ‘मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद’ की स्थापना कर डाली।
उससे पूर्व मुझसे तथा विलास सोनवणे से उन्होंने लगातार चर्चा की। इन्हीं दिनों में विलास सोनवणे के संपर्क में आए। दोनों में बड़ी दोस्ती हुई। अब दोनों काम में जुट गए। मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की स्थापना पहला अधिवेशन सोलापुर में तय हुआ।
सोलापुर में लिखने वाले मुस्लिम लेखकों में उन्होंने इकट्ठे किया। बेन्नूर, नदाफ विलास की दौड़-धूप चल रही थी। संभवत फ. म. शहाजिंदे को इस अधिवेशन के संमेलनाध्यक्ष के रूप में निमंत्रित किया गया। इन्हीं दिनों मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ी। पिता जी गुजर गए। घर में पत्नी, दो छोटे बच्चे और माँ थे। घर उन दिनों कॉलेज से काफी दूर था। मुझे इस संमेलन में और बाद में संमेलनों में जाना संभव नहीं हो सका। बड़ी मुश्किल से मैं कोल्हापुर के अधिवेशन में उपस्थित रहा।
सर इस मामले में मुझे काफी नाराज भी रहे। एक के बाद एक कर संमेलन लगातार हो रहे थे। सर ने मुझसे कहा कि वे औरंगाबाद के अधिवेशन में ही भांप गए कि अब वे लोग मुझे टाल रहे हैं। वह बेहद संवेदनशील थे। धीरे-धीरे मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद में कुछ नामचीन महत्वाकांक्षा रखने वाले लोग घुस गए और उन्हें अलग-थलग कर दिया।
ये सारा किस्सा व्यथित होकर मुझे सुनाते। एक बार नहीं कई बार। इस घटना से उन्हें भीतर से बहुत चोट लगी। जिन्दगीभर में इस संबंध में अपनी व्यथा-कथा मुझे सुनाते रहे।
उसके बाद उन्होंने मुस्लिम ओबीसी संगठन बांधने का निर्णय लिया। इसके मूल में व्यक्तिगत अनुभव था। पता नहीं यह बात औरों को मालूम है क्या नहीं, हुआ ऐसा कि उनकी छोटी और लाडली बहन को उन्होंने पढ़ाया। वह राज्यशास्त्र में एम.ए. हुई। शायद एम.फील भी हुई। उसकी शादी के लिए वे चक्कर लगाते रहे।
इस सिलसिले में वे कई दफा लातूर भी आए। बागवान बिरादरी में इतनी पढ़ी लिखी कोई लड़की नहीं थी। जहां लड़के थे वह मैट्रिक से आगे पढ़ते नहीं थे, वहां लड़कियों की बात भी न करें तो अच्छा है। जाहिर है कि बागवान समाज में यह पर इतना पढ़ा-लिखा लड़का उन्हें मिल नहीं रहा था।
अशरफ मुसलमानों में काफी पढ़े-लिखे युवक थे। परंतु उनमें से किसी ने भी मां-बाप बागवान की लड़की को बहु बनाने के लिए तैयार नहीं थे। मुझे पता है कि इस मामले में उन्होंने पुरा महाराष्ट्र घुमा। निराश होकर वह मुझसे सारे वाकियात सुनाते।
अधिकांश प्रगतिशील-पुरोगामी अशरफो के प्रति उनमें अब चीढ़ निर्माण हो गई थी। निराश होकर उन्होंने इस प्यारी बहन की शादी उनके गांव में के पास के उनके एक रिश्तेदार बागवान से करवा दी।
वह कम पढ़ा लिखा पर बुद्धिमान युवक था। इस बहन की वैवाहिक जीवन काफी सफल हुआ। अब उनका बड़ा बेटा 20–21 साल का है। बेन्नूर सर के आखरी दिनों में इसी बहन ने उनकी देखभाल की। सर ने उन्हें सोलापूर बुलाकर अपने यहां रख लिया। उनका पती सोलापूर में ही फल विक्रेता है। खैर।
उनके मन में एक चिंगारी फूटी जिसकी नींव ओबीसी मुसलमानों के संघठन बनी। क्योंकि पीढ़ियों से अशरफ मुसलमान भारत के मुसलमानों की नुमाइंदगी कर रहे थे। मोईन शाकिर भी ओबीसी थे। ओबीसी मुसलमानों की भी हालात देखकर वे काफी व्यथित हो रहे थे। बस फिर क्या था … उसके पीछे पड़े रहे।
इस मिशन कि शुरुआत उन्होंने महान फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार को निमंत्रण देकर की। क्योंकि वह भी बागवान घर से आए थे। उन्होंने कहा, आगे बढ़ो। सर ने इस संघठन को लेकर पुरा देश छान मारा। दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, अलीगढ़ और पता नहीं कहां-कहां! महाराष्ट्र में सभी जिले। मुझे पत्र द्वारा यह सब सूचित करते।
पढ़े : इलाही जमादार को कहा जाता था मराठी का ‘कोहिनूर-ए-ग़ज़ल’
पढ़े : नौजवां दिलों के समाज़ी शायर थे शम्स ज़ालनवी
पढ़े : सफदर हाशमी को भूक खिलाफ जंग मे मिली थी शहादत
बड़ो दिग्गजों से रहा संबंध
संभवत इसी बीच में खुद का मकान भी बना चुके थे। अब उनके यहां लैंडलाइन आया। मेरे पास भी आया। अब पत्र लिखना करीब करीब बंद हो गया। फोन पर हम कम से कम दिन में एक-दो बार बातचीत करते।
इस बीच उनका अध्यापन जोरों से चल रहा था। अंग्रेजी की कई किताबे पढ़ते या मंगवाते। सभी इस्लाम विषयों पर, कुरआन विषयों पर। दीर्घ और विस्तार से लिखते, परंतु छपवाने नहीं भेजते। देश में उन सभी बुद्धिजीवी मुसलमानों में उनका संपर्क था। जिसमें इम्तियाज अहमद, असगर अली इंजीनियर से विशेष राम बापट उनमें प्रिय लोगों में से थे। विषय एक ही था हिंदू मुस्लिम संबंध।
मैं अपना पीएचडी का प्रबंध प्रस्तुत किया था। मुझे डिग्री भी मिली। मैंने कई दफा उन्हें पीएचडी करने के लिए कहा पर वह दौरे और अध्यापन में मशगूल थे। मोईन शाकिर ने भी उनसे कहा कि इस्लाम, हिन्दू मुस्लिम, सूफी तथा जितना भी अपना साहित्य हैं, उसकी फाइलें मुझे दो, मैं खुद पढ़कर क्रम से लगाउंगा और थीम तैयार कर लुंगा।
परंतु पट्ठे ने कभी भी अपनी फाईलें उन्हें नहीं दी। जो भी पढ़ते उसपर लिखकर मोईन शाकिर, असगर अली और मुझे भेजते। उनकी तुलना में तो कुछ भी नहीं था। परंतु उनका सबसे नजदिकी दोस्त था। मैं उनके साथ हिंदू-मुस्लिम संबंधों की बात करता। मेरी बातों को वह गंभीरता से सुनते। जहां मतभेद होता कह देते। इससे मेरा जहन और साफ हो जाता।
एक दिन मुझे सातारा के अंबेडकर अकादमी से पत्र आया। वह मेरे मित्रगण किशोर बेडकिहबाड का था। जिसमें मुझे अकादमी की ओर से हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर बोलने के लिए निमंत्रित किया गया था। इस विषय पर मैंने अब तक कोई मालूमात नहीं थी। जो थोड़ा बहुत लिखा था वह मेरी थी थिसिस में था।
मैंने शाम को बेन्नूर सर से कहा कि ऐसा निमंत्रण आया है। उन्होंने कहा, “अच्छा, तो किशोर ने मेरी बात मान ली। मैं भी आ रहा हूं।” कार्यक्रम रविवार को रखा गया था। मैं गया, वे भी आए। मैंने देखा कि न कोई सभागृह, न कोई कार्यक्रम की तैयारी। बस एक छोटासा हॉल, जहां 30–40 लोग जमीन पर बैठ सकते थे।
बहरहाल कार्यक्रम शुरू हुआ। सर ने प्रत्येक से मेरा परिचय देना शुरू किया। मैं तो काफी घबराया। क्योंकि वहां सभी महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित विद्वान थे। मुझे तो पसीना छूट गया। असगर अली इंजीनियर, राम बापट, विनायक कुलकर्णी, महाराष्ट्र के टाइम्स के संपादक, लोकसत्ता के संपादक शायद कुमार केतकर और इसी प्रकार के दिग्गज जिनके नाम में अब भूल रहा हूं।
परिचय से निपटने के बाद मैं सर को अंदर के कमरे में ले गया और उनसे गिड़गिड़ाते हुए कहा, आज आप इस विषय पर बोले। इस विद्वतजनों के सामने बोलने की मेरी तो हिम्मत नहीं है। पर उन्होंने मुझे धीरज देते हुए कहा कि देखो यह मेरी इज्जत का सवाल है। मुझे विश्वास है कि तुम्हारा विवेचन उन्हें पसंद आ जाएगा। आप बोलना तो शुरू करो। जब चाहे रुक जाओ। पर बोलना तुम्हें ही पड़ेगा। और वे खिसकने लगे।
आखिर में मैंने हिम्मत की और उनसे कहा, मेरे लिए इतना करे बीच-बीच में मुझसे सवाल न करे। मेरी पूरी प्रस्तुति के बाद चाहे तो प्रश्न पूछे। वे राजी हो गए।
पूरे 3 घंटे तक मैं बोला। उसके बाद सबसे पहले राम बापट बोले की आपका अभिनंदन! आपका पूरा विवेचन किताबी नहीं बल्कि निरीक्षण और अनुभव के आधार पर था। आपने जो कुछ भी कहा है वह वास्तविकता है, सच्चाई है। कुछ प्रश्न असगरअली जी के थे। कुल मिलाकर सब लोग खुश थे। सर प्रसन्न थे। इस पर विस्तार से फिर कभी।
जाते जाते :
- इमरजेंसी से पहले क्या थे इंदिरा गांधी के कानूनी दांव-पेंच?
- पेंशन सम्मान लेने से मना करने वाले मधु लिमये
- नेताजी पर कब्जा ज़माने की कोशिश क्यों हो रही हैं?
लेखक हिंदी के जानेमाने लेखक और आलोचक हैं।