विश्व में एक औऱ जहां युद्ध और नफरत का वातावरण हैं। जहां-तहां फासिवादी ताकते उभर रही हैं, चारों और विनाश, आपदा और हिंसा कि स्थिती निर्माण कि जा रही हैं। मध्य आशियाई देशों में धर्म के नाम पर तबाही मचाई जा रही हैं।
ऐसे स्थिती में दुनिया में गांधी विचारों कि पुन:समिक्षा कि जा रही हैं। मानवतावादी शांती कि बात कर रहे हैं। गांधी नें दुनिया को अहिंसा के मार्ग पर चलने नीति दी हैं, आज फिर एक गांधीजी के विचार ही इस तबाही को बचा सकते है।
इस बात कि चर्चा करता विचारक तथा न्यायविद् चंद्रशेखर धर्माधिकारी का यह लेख हम आपके लिए प्रस्तृत कर रहे हैं। जो अक्तूबर-दिसंबर 2007 के हिन्दुस्तानी जुबान पत्रिका से लिया गया हैं। लिखते हैं,
महात्मा गाँधी के बारे में जितनी ग़लतफ़हमियाँ फैलायी गई, उतनी शायद किसी भी महामानव के बारे में नहीं फैलाई गई होंगी। अंग्रेज़ी में एक प्रसिद्ध कथन है, ‘टू बी ग्रेट इज़ टू बी मिसअंडरस्टुड’ इसके बावजूद गाँधी और उनके विचार के सिवा अन्य कोई पर्याय नहीं है, यह सारा जगत मानने लगा है।
अमेरिका में जब ’वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ तबाह किया गया, तब अमेरिका के राष्ट्रपति बुश को भी गांधीजी की ही याद आयी। इतना ही नहीं, अमेरिका के सुरक्षा-विभाग के प्रमुख वुल्फो विट्ज़ ने फ़लस्तीन की जनता को सलाह दी कि उन्हें बड़े बुनियादी परिवर्तन करने के लिए हिंसाचार के बदले गांधीजी के शांतिवादी आंदोलन की राह अपनानी चाहिए।
अमरीकी ट्रेड सेंटर नष्ट होने के बाद जो युवक-संगठन प्रस्थापित हुए, उनका नारा है, ‘हमें युद्ध नहीं शांति चाहिए।’ मतलब ‘युद्ध नहीं बुद्ध’ चाहिए, गांधी चाहिए।
न्यूयॉर्क में ‘मदर्स डे’ पर जो महिलाएँ इकट्ठा हुई थीं, उन्होंने भी कहा कि वे भोले-भाले बच्चों को जन्म देती हैं और सरकार उन्हें क़त्ल करना सिखाती है। इसीलिए शस्त्रों का बनाया जाना बंद हो, हथियारों का व्यापार बंद हो। यह नहीं होगा तो महिलाएँ शस्त्र बनानेवालों को, उनका व्यापार करनेवालों को वोट नहीं देंगी।
2007 में जर्मनी की संसद में गांधीजी की अर्धप्रतिमा की प्रस्थापना हुई और न्यू जर्सी के विधान-मंडल ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके फलस्वरूप महात्मा के अहिंसा के सिद्धान्त को स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया है।
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अमरीकी स्कूलों में छात्रों के बीच हिंसा आम बात है। मार-पीट, दंगा-फ़साद और गोलीबारी के वातावरण में परिवर्तन लाने के लिए गाँधी के अहिंसा-विचार के सिवा रास्ता नहीं है, अमेरिका आज यह समझ रहा है। मैं सिंगापुर, मलेशिया तथा जापान में था।
इन तीनों देशों में गांधी की प्रतिमाओं का अनावरण मैंने किया। अब गांधी के सिवा अन्य पर्याय उन्हें नहीं दिख रहा है।
भारत में शुरू में दो प्रवृत्तियाँ थीं। आधुनिकता का जो आक्रमण भारत पर अंग्रेजों के काल में हुआ था, उससे देश का संरक्षण कर प्राचीन संस्कृति को फिर से पुनरुज्जीवित किया जाये, यह एक पक्ष की प्रवृत्ति थी।
दूसरी प्रवृत्ति यह थी कि अंग्रेज़ों की सत्ता से पहले जो सत्ताएँ थीं, वे फिर से आ जायें, केवल अंग्रेज़ों की सत्ता इस देश से समाप्त हो जाये, इतनी ही आशा थी, इसीलिए यह स्वाभाविक था कि उस समय लोगों का यह विश्वास था कि बगैर हथियार के अंग्रेज़ नहीं जायेंगे।
इन दोनों पक्षों में से कोई भी यह सोच नहीं सकता था कि बिना शस्त्र के सत्ता परिवर्तन हो सकता है। इसीलिए जिसे हम शुरूआती ‘राष्ट्रीय आदोलन’ कहते है, वह सशस्त्र क्रांति की ही चेष्टा का आंदोलन था।
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सशस्त्र क्रांति लोगों के लिए हो सकती है, परंतु आम लोगों के पराक्रम से नहीं हो सकती, यह सोच उस समय नहीं था। सशस्त्र क्रांति के बदले लोकात्मक और संविधानात्मक आदोलन गांधीजी के उदय के बाद साकार हुआ।
राजनीति और अर्थनीति में अहिंसा का जन्म भी उसी के कारण हुआ। क्योंकि हिंसा से कोई सवाल हल नहीं हो सकता। उससे तो प्रतिहिंसा का जन्म होता है।
एक शस्त्र से बड़े अस्त्र-शस्त्र का जन्म होता है और यह होड़ समाप्त हो ही नहीं सकती। इससे युद्ध जनम लेता है। फिर भी आज कुछ लोग ऐसा माननेवाले हैं कि हिंसा के बिना सवाल हल नहीं हो सकते और सारे सवालों का जवाब ‘हिंसा’ ही है।
जब आत्मघाती दस्ते बनते हैं और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर उद्ध्वस्त होते हैं, तो अमेरिका की सारी शस्त्र-शक्ति बेकार हो जाती है।
फिर भी लोग सवाल पूछते हैं कि गोडसे से आपको शिकायत क्यों है? यह सवाल मुझे सूरत में एक प्रबुद्ध व्यक्ति ने पूछा था। तब मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि ’गोडसे’ व्यक्ति नहीं है, वह प्रवृत्ति है, जिसकी यह धारणा है कि व्यक्ति की हत्या करने से सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, उसका विचार भी समाप्त हो जाता है।
इसी भावना के कारण विश्व के सारे महामानवों का अंत बलिदान या हत्या ही हुआ। जैसे कि सुकरात, येशू, अब्राहम लिंकन, जॉन दी आर्क, मार्टिन लूथर किंग और गांधी।
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महात्मा गांधी की उत्तर क्रिया तो आज भी चल रही है। गांधी के बारे में द्वेष फैलाया जा रहा है। उनकी ‘हत्या’ के बदले ‘गांधीवध’ शब्द का इस्तेमाल होता है। ‘वध’ तो राक्षस का होता है और वह करनेवाला ‘धर्मपुरुष’ माना जाता है।
इसी भावना से नाटक लिखे जाते हैं। और दुर्भाग्य से गांधी की हत्या के प्रसंग को देखकर गुजरात में भी तालियाँ बजायी जाती हैं।
गांधीजी को समझना आसान नहीं है। ’गोलमेज़ परिषद’ के समय पहनावे के सारे नियम गांधीजी के लिए शिथिल कर दिये गये थे। गांधीजी वही आधी धोती और फटी, पर हाथ से सी हुई शाल ओढ़कर राजप्रासाद में गये थे।
सवाल पूछा गया कि इस भुक्खड़ आदमी के पास तो शस्त्र, संपत्ति या सत्ता में से कुछ भी नहीं है। फिर यह समझौता क्यों किया गया? जवाब में एक तत्ववेत्ता ने कहा, ‘यह ऐसा व्यक्ति है, जिसे बंदूक से डराया नहीं जा सकता, जिसे पैसों से ख़रीदा नहीं जा सकता और जिसकी तपश्चर्या मेनका भेजकर भंग और भ्रष्ट नहीं की जा सकती।
ऐसे चरित्रवान व्यक्ति के सामने अंग्रेज साम्राज्य की सारी शस्त्र संपदा, संपत्ति आदि व्यर्थ है, बेकार है। गांधी ने अहिंसक सत्याग्रह की बात इसलिए नहीं की थी कि हमारे पास शस्त्र नहीं थे।’
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गांधीजी ने कहा था, वे अहिंसा की बात इसलिए करते हैं कि उन्होंने शस्त्र की निरर्थकता को जान लिया है और सारे शस्त्रों का भय भी त्याग दिया है।
सिर्फ हिंसा न करना गांधी का नकारात्मक और सशक्त सिद्धान्त था। पहले छोटी मछली को खाकर बड़ी मछली जीती थी। बाद में सभ्यता की प्रगति के साथ ‘खुद जियो और दूसरों को जीने दो’ का सिद्धान्त आया। यह भी गांधीजी की हिंसा-वृत्ति है।
खुद जियो और दूसरों को जीने मे मदद करो, यह गाँधी की स्नेह और परस्पर प्रेम पर आधारित अहिंसा है; जो आज सारा ज़माना समझ रहा है, सिर्फ भारत को छोड़कर!
जाते जाते :
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