भारत-चीन तनातनी को लेकर ‘गलवान घाटी’ का नाम बीते कुछ दिनों से चर्चा में हैं। इतिहास में यह जगह एक ऐसे व्यक्ति के नाम दर्ज है, जिसने गलवान नदी के मूल स्त्रोत का पता लगाया था।
इसी शख्स के नाम उस नदी का नाम पडा हैं। तभी से इस परिसर को ‘गलवान घाटी’ के नाम से जाना जाता हैं।
गलवान नदी के खोजकर्ता इस शख्स का पूरा नाम ‘गुलाम रसूल गलवान’ था। जो मूल रूप से कश्मीर घाटी का रहनेवाला था।
‘सर्वेंट ऑफ साहिब्स’ नामक एक दुर्लभ किताब से गुलाम रसूल कि पूरी कहानी मिलती है। यह किताब इन्होंने 100 साल पहले अपनी टुटी-फुटी अंग्रेजी में लिखी थी।
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क्या है कहानी?
गुलाम रसूल का जन्म साल 1878 में हुआ। कम उम्र में ही उन्हें नई-नई जगह घुमने का शौक था। कहते हैं, वे जब 14 साल के थे तभी से नई जगहों के तलाश में घर से निकल पड़े।
उन्हें सिर्फ घुमने का शौक नही था बल्कि वे अच्छी भौगोलिक जानकारी भी रखते थे। आगे चलकर अपने इस शौक के चलते वे टूरिस्ट गाइड के रूप मे पहचाने जाने लगे।
अपनी प्रवास यात्रा पर लिखी किताब, ‘सर्वेंट ऑफ साहिब्स’ में गुलाम रसूल लिखते हैं, “उनके पिता का नाम कर्रा गलवान था। कर्रा का मतलब होता है काला और गलवान का अर्थ है डाकू। कर्रा अपने कबीले का रखवाला था। वह सिर्फ अमीरों के घरों को लूटता था और पैसा गरीबों में बांट देता था।”
कहते हे, कुछ समय बाद उस डाकू को डोगरा राजा के सिपाहियों ने पकड़ लिया और मौत की सजा दी। इसके बाद गलवान कबीले के लोग लेह और बाल्टिस्तान चले गए। कई गलवान चीन के शिंजियांग प्रांत के यारकन्द में जाकर बस गए। उनके वंशज अब भी वहां रहते हैं।
गलवान की किताब के परिचय में सर फ्रांसिस यंगहसबैंड लिखते है, “वह बहुत गरीब थे। उन्होंने एक साधारण गांव के बालक के रूप में शुरुआत की। लेकिन हर परिस्थिति में वे एक सज्जन की तरह व्यवहार करते रहे।”
प्रसिद्ध ब्रिटिश खोजकर्ता डॉ. टॉम लॉन्गस्टाफ ने लिखा है, “गलवान रसूल, हमारे कारवां के नेता और एक महान व्यक्ति थे। उन्होंने लिट्टलडेल (Littledale) के साथ तिब्बत से यात्रा की थी, और रॉबर्ट बैरेट, फेल्प्स और चर्च के साथ और उन्होंने बहुत अधिक काम किया था।
वह अरगान नामक एक यारकन्दी नस्ल के पिता और एक लद्दाखी माँ द्वारा जन्मे थे। वह बिल्कुल ईमानदार थे; उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली।”
वहीं गलवान की चौथी पीढ़ी के मुहंमद अमीन बताते है, “मेरे दादा के दो बच्चे थे- मेरे पिताजी और मेरे चाचा। 30 मार्च 1925 को दादा की मौत हो गई। तब मेरे वालिद बहुत छोटे थे।
अब्बा ने ही सबसे पहले दादा की कहानी सुनाई थी। वे बताते थे कि मेरे दादा कैसे ही कहीं भी चले जाते थे। दादा बड़े तेज और फुर्तीले थे। वे 10 दिन में पैदल लद्दाख से जोजिला दर्रा पार कर कश्मीर चले जाते थे।”
अपने इस शौक और जानकारी के चलते कम समय में वह चर्चित हुये। टूरिस्ट गाईड के तौर पर काम करते हुए उन्होंने अंग्रेजी, चिनी भाषा के अलावा नये टुरिस्टो कि यूरोपीयन जुबान भी सिख गये।
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गलवान नदी कि खोज
ऐतिहासिक संदर्भ बताते है कि गुलाम रसूल ने 1899 में लेह से ट्रैकिंग शुरू की और लद्दाख के आसपास कई नए इलाकों तक पहुंचे।
यहीं से मध्य एशिया और तिब्बत की कठिन पैदल यात्रा के बाद 1885 में लेह पहुंचे थे। इस बीच वे एक नदी के सहारे वे उसके मूल तक पहुँचे। कश्मीर के उत्तर-पूर्वी हिस्से में बहती इस नदी के स्त्रोत का पता लगाने वाले वे पहले इन्सान थे।
पोते अमीन के मुताबिक, “उनके दादा लद्दाख के पहले आदमी थे, जो अंग्रेजी ट्रैकरों के गाइड बने। उन्होंने अंग्रेजों से कहा कि वे उनके साथ जाना चाहते हैं। अंग्रेजों ने उन्हें बोला कि तुम इतने छोटे हो, कैसे जा पाओगे? पर रसूल गलवान नहीं डरे। जब वे लोग वहां पहुंचे तो रास्ता नजर नहीं आ रहा था और सामने मौत थी। रसूल ने उन्हें मंजिले मकसूद तक पहुंचाया और इस पर अंग्रेज बहुत खुश भी हो गए।”
इस सफर को उन्हें पूरे 15 महीनों का समय लगा। उनकी यह खोज चर्चा का विषय रही। इस यात्रा पर उनका गौरव किया गया। 80 किलोमीटर वाले इस नदी और उससे सटी घाटी का नामकरण उनके नाम ‘गलवान’ पर किया गया।
यह नदी काराकोरम रेंज के पूर्वी छोर में समांगलिंग से निकलती है, फिर पश्चिम में जाकर श्योक नदी में मिल जाती है। इस घाटी का पूरा इलाका लद्दाख में आता है।
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किताब में लिखा अनुभव
उन्होंने अपने इस सफर कि पूरी कहानी और अनुभव को एक किताब के शक्ल में ढाल दिया। यह किताब श्रीमती केआरई बैरेट (KRE Barret) और उनके पति रॉबर्ट (Robert) के आग्रह पर लिखी गई थी, जो 1902-1905 से मध्य एशिया और लद्दाख में अपने महत्वपूर्ण शोधों की सफलता के लिए गलवान पर निर्भर थे। किताब के हस्तलिखितों को 1913 को डाक द्वारा अमेरिका भेजा गया था।
अमेरिका में रहने वाली श्रीमती बैरेट द्वारा संपादित करने के बाद, पुस्तक को डब्ल्यू हेफर्स अँड सन्स ऑफ कैंब्रिज, द्वारा 1924 में प्रकाशित किया गया था। इस किताब की मूल पांडुलिपि वाशिंगटन डीसी स्थित स्मिथसनिनन संग्रहालय (Smithsoninan Museum) मे रखी गई हैं।
उन दिनों इस किताब की काफी चर्चा हुई, क्योंकि गुलाम रसूल ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। ये बेहतरीन किताब बहुत दिनों तक चर्चा में बनी रही।
उनके अंग्रेज दोस्त ब्रिटिश एडवेंचर ट्रेवलर कहे जाने वाले फ्रांसिस यंगहसबैंड के सहयोग से उन्होंने यह किताब लिखी थी। जिनके साथ वे लंबे समय तक थे।
इस खोज के बाद उन्हें सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने अपने ट्रैवल कम्पनी में शामिल किया। उन्होंने तिब्बत के पठार, सेंट्रल एशिया के पामेर पर्वत और रेगिस्तान की खोज की थी।
आगे गलवान ने सर फ्रांसिस यंगहसबैंड के साथ उपमहाद्वीप के हर पहाड़ी कोने का दौरा किया। बाद में वे फ्रान्स, इटली और कई ब्रिटिशी अभियानों में भाग लिया था।
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पूर्वजो को हैं अभिमान
लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड पर गुलाम रसूल के पूर्वजों का घर है। उनके नाम पर यहां गलवान गेस्ट हॉउस भी है। अभी यहां उनकी चौथी पीढ़ी के कुछ सदस्य रहते हैं।
दैनिक भास्कर ने अनुसार इससे पहले लेह में गुलाम रसूल के चर्चे नही होते थे, पर अब सारे लोग यही स्टोरी बता रहे हैं।
अखबार को एक परिजन ने बताया कि “एक दफा अंग्रेजों के साथ दादा ट्रैकिंग कर रहे थे, वे लोग एक खड़ी पहाड़ी के पास फंस गए। आगे जाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था। तभी मेरे दादा गुलाम रसूल गलवान ने रास्ता खोजा और अंग्रेजों को पार करवाया। तभी अंग्रेजों ने खुश होकर उस जगह का नाम ही मेरे दादा के नाम पर रख दिया।”
अखबार कहता हैं, परिजनों को गुलाम रसूल गलवान की कहानी अभी पता चली है। दादा की याद के तौर पर बस दादा कि एक किताब चौथी पिढ़ी के मुहंमद अमीन के पास हैं। जिसे उन्होंने 1995 में रीप्रिंट करवाया था। अमीन कहते हैं कि वे इसे लंदन के म्यूजियम से लाए थे। इसी किताब में गुलाम रसूल की एकमात्र फोटो है।
लेह में जहां गलवान रहते थे उस जमीन पर अब एक म्यूजिअम बना है। अखबार बताता हैं, “उनके घर के आसपास की सड़क कि ये पूरी जमीन अंग्रेजों ने दादा को दी थी।”
गलवान गाटी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख़ तक फैली है। खबरों के मुताबिक चीन ने कूटनीतिक तरीके से कुछ क्षेत्र पर कब्ज़ा कर रखा है।
इसके आसपास विवाद क्षेत्रों में चीन की सेना के द्वारा भारतीय सेनिकों को उकसाने के लिए टेंट लगाये जाते हैं। जिसका विरोध भारतीय सेनिकों के द्वारा किया जाता रहा है।
अमीन के मुताबिक “जब गलवान नाले का नाम उनके दादा के नाम पर है और वे हिंदुस्तानी थे तो फिर वो जमीन चीन की कैसे हुई? हमारा परिवार एक बार गलवान नाला देखने जाना चाहता है। आज तक कोई वहां गया ही नहीं है।”
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