पिछले तीन दशकों ने यह साबित किया है कि देश को विभाजित करने के सांप्रदायिक ताकतों के प्रयास, समाज में शांति के स्थापना और देश के विकास में बाधक हैं।
यद्यपि भारत में सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत सन् 1961 (जबलपुर) से ही हो गई थी। तथापि सन् 1980 के दशक के बाद से सांप्रदायिक ताकतों को विभिन्न समुदायों के बीच बैरभाव बढ़ाने में अप्रत्याशित व अभूतपूर्व सफलता मिली है।
खेद से बताना पड़ता है कि बहुत कम सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों ने दंगो के इस समस्या को गंभीरता से लिया।
डॉ. असगर अली इंजीनियर उनमें से एक थें। उन्होंने उस विचारधारा और उन साजिशों के विरुद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष किया जो कि सांप्रदायिक हिंसा का कारण बनती हैं। उन्होंने अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के खिलाफ भी अनवरत आवाज़ बुलंद की।
एक मित्र व सहयोगी के रुप में उनके कार्यकलापों को निकट से देखने-समझने का अवसर मुझे मिला है। उनके व्यापक योगदान को मैंने नजदीक से देखा है। मैं उनसे प्रभावित हूँ और उनका प्रशंसक हूँ। कई मसलों पर मैं उनसे इत्तेफाक नहीं भी रखता हूँ परंतु यह निर्विवाद है कि मेरे अपने कार्य को दिशा देने में, मुझे उनसे जो प्रेरणा और ज्ञान मिला, वह अमूल्य है।
जबलपुर दंगों के समय इंजीनियर, पढ़ाई कर रहे थे। इन दंगों ने उनके दिमाग पर गहरा असर डाला। इस त्रासदी ने उन्हें इस हद तक प्रभावित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन सांप्रदायिक हिंसा और सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध संघर्ष के लिये होम कर दिया।
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उनके भाषणों और उनके लेखन में जबलपुर दंगों के राष्ट्र और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पर पड़े प्रभाव की विस्तृत चर्चा रहती थी। सांप्रदायिक हिंसा, सांप्रदायिक विचारधारा और समाज के सांप्रदायिकीकरण पर इंजीनियर ने भरपूर लिखा है इतना कि 50 से अधिक मोटे-मोटे ग्रंथ में भी न समा पाये।
उनके लेखन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा कि प्रकृति को समझने के गंभीर प्रयास किये। उन्होंने सांप्रदायिक दंगों, उनके बाद के घटनाक्रम और समाज व राजनीति पर उनके प्रभाव के अध्ययन में काफी परिश्रम किया।
इस क्षेत्र में काम करने वाले शायद वे एकमात्र जाने-माने अध्येता व कार्यकर्ता थे। उन्होंने भारत में सांप्रदायिक हिंसा के अध्ययन और विश्लेषण करने में बहुत ऊर्जा और समय खर्च किया।
इस अर्थ में भी वे अद्वितीय थे कि उन्होंने ना केवल सांप्रदायिकता से जुड़े मुद्दों पर सारगर्भित टिप्पणियाँ कीं बल्कि, ढेर सारे खतरों का सामना करते हुये भी इन मुद्दों पर अपने विचारों को खुलकर सामने रखा। धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा और राजनीति का विरोध करने के कारण उन्हें दोनों समुदायों के सांप्रदायिक तत्वों का कोपभाजन बनना पड़ा।
भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों दोनों के समक्ष सांप्रदायिक हिंसा को समझना, उसे परिभाषित करना और दंगों के दौरान व उनके बाद, सार्थक हस्तक्षेप करना, एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। भारतीय समाज में सांप्रदायिकता के परिघटना को हम कैसे देखें-समझें? यह समस्या भारत का पीछा क्यों नहीं छोड़ रही है? जब इंजीनियर ने भारतीय इतिहास और समकालीन मुद्दों का अध्ययन-विश्लेषण शुरू किया होगा, तब ये सभी प्रश्न उनके दिमाग को मथ रहे होंगे।
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इंजीनियर, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम नेतृत्व और सांप्रदायिक ताकतों की भूमिका के उलझे हुये मुद्दे पर भी विस्तृत प्रकाश डालते हैं। हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों की सांप्रदायिक ताकतों ने, स्वतंत्रता-पूर्व के भारत में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे भारत के विभाजन के मुद्दे पर अत्यन्त सारगर्भित व संतुलित विचार प्रस्तुत करते हैं।
उनका स्पष्ट मत है कि विभाजन के लिये मुख्यतः अंग्रेज जिम्मेदार थे परंतु तत्कालीन काँग्रेस नेतृत्व व बॅ. जिना के जिद्दी स्वभाव की भी इसमें भूमिका थी। वे मौलाना अबुल कलाम आजाद की इस मान्यता से सहमत है कि अगर क्रिप्स मिशन की सिफारिशों को स्वीकार करने की मौलाना की सलाह को मान लिया गया होता तो विभाजन को टाला जा सकता था।
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सम्बंध में मिथकों के निवारण के लिये उन्होंने ‘‘स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका’’ पर काफी कुछ लिखा। डॉ. इंजीनियर, विभिन्न समुदायों के बीच एकता स्थापित करने और अहिंसा व शांति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण महात्मा गाँधी से अत्यन्त प्रभावित थे।
उन्होंने ‘‘गाँधी व सांप्रदायिक सद्भाव’’ पर एक ग्रंथ लिखा है। उनकी यह मान्यता थी कि सांप्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं को गांधीवादी रास्ते पर चलकर सुलझाया जा सकता है और यह मान्यता उनके लेखन में स्पष्ट झलकती है।
इंजिनियर लैंगिक न्याय के जबरदस्त पैरोकार थें और उन्होंने यह साबित किया है कि इस्लाम, महिलाओं को बराबरी का दर्जा देता है। उनका यह भी कहना था कि सांप्रदायिक हिंसा से महिलायें सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों की सूची से ही यह साफ हो जाता है कि उनका सांप्रदायिकता व उससे जुड़े मुद्दों की व्याख्या और अध्ययन में कितना महत्वपूर्ण योगदान है।
उनके पाक्षिक प्रकाशन ‘सेक्युलर पर्सपेक्टिव’ की खासी प्रसार संख्या है और पूरी दुनिया में कई वेबसाईटों और अखबारों में इसका पुनर्प्रकाशन होता है। यह तय करना मुश्किल है कि इंजीनियर के काम का कौन सा पक्ष, दूसरे पक्षों से अधिक महत्वपूर्ण है। उनके काम के विभिन्न पक्षों में गहरा अन्तर्सम्बंध है।
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मुंबई में सन् 1960 के दशक में, समान विचार वाले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने ‘आवाज-ए-बिरादरान’ नामक संस्था स्थापन की। यह संस्था सांप्रदायिकता से जुड़ी समस्याओं को उठाती थी और स्कूलों और कालेजों के जरिए सांप्रदायिक सदभाव की ज्योत जलाती थी।
चूंकि इंजीनियर की उर्दू साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी थी इसलिए वे कई जानेमाने उर्दू लेखकों के सम्पर्क में आये और उन्होंने भी सांप्रदायिक सदभाव के क्षेत्र में डॉ. इंजीनियर के काम में हाथ बँटाना शुरू किया।
मुझे सन् मुख्यतः1992-93 के बाद ही उनसे सीधे सम्पर्क में आने का मौका मिला। मुंबई दंगों के दौरान उन्होंने हिंसाग्रस्त इलाकों में शांति मार्च निकाले। मेरे दिमाग में उनकी छवि एक निष्ठावान, ईमानदार और प्रतिबद्ध अध्येता व कार्यकर्ता की है। मुंबई हिंसा के दौरान उनका कार्यालय धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं का मिलनस्थल बन गया।
वहाँ होने वाली बैठकों में कभी-कभी तो सौ से भी अधिक कार्यकर्ता पहुँच जाते थे। उनके छोटे से ऑफिस का हर कोना भर जाता था। यहाँ तक कि बालकनी तक में पैर रखने की भी जगह नहीं बचती थी। इस भीड़ के बीच, वे फर्श पर बैठ जाते, बैठक का संचालन करते और आगे के काम की योजना बनाते। अधिकाँशतः, शांति मार्चों और पीड़ित समुदाय के बीच काम करने की योजनायें बनायीं जाती थीं।
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मुझ पर छोड़ी गहरी छाप
जब हम किसी अत्यन्त महत्वपूर्ण व उच्च दर्जे के व्यक्ति के सामाजिक योगदान की चर्चा करते हैं तो उनसे सम्बंधित व्यक्तिगत प्रसंगों का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। हमारे काम के दौरान मैंने उनके साथ अनेक कार्यक्रमों में भाग लिया है और कई यात्रायें की हैं। इन कार्यक्रमों और यात्राओं के दौरान मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार मुझसे बाँटे।
मैं यहाँ एक प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। एक दिन सुबह हम लोग मुंबई विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित एक मीटिंग हाल के सामने खड़े थे।
सेमिनार शुरू होने में 10-15 मिनट का समय था। तभी सेमिनार के एक अन्य वक्ता टैक्सी से वहाँ पहुँचे। हमने उनका स्वागत किया। हम लोग बातें ही कर रहे थे कि टैक्सी का ड्रायवर गाड़ी से उतरकर आया और डॉ. इंजीनियर को अत्यन्त सम्मानपूर्वक नमस्ते कर बोला ‘‘सर, अपना काम जारी रखिये। आपके काम से देश में अमन की वापसी होगी’’। मैं बिना किसी सन्देह के कह सकता हूं कि डॉ. इंजीनियर के इस तरह के प्रशंसक पूरी दुनिया में होंगे।
जाते जाते..
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लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।