आपने बादशाहों की बर्बरता, अतार्किकता और प्रेम की अजीबोगरीब कहानियां सुनी होंगी, लेकिन औरंगज़ेब के पौत्र मुग़ल सम्राट जहांदार शाह (Jahandar Shah) की करतूतों के बारे में नहीं पता होगा। अपने भाइयों का कत्ल कर जहाँदार शाह 29 मार्च 1712 को राज गद्दी पर बैठा था।
वह एक अयोग्य और विलासी शासक था, जिसने सत्ता में रहककर लोगों पर तमाम अत्याचार किए। उसकी मुलाकात लालकुँवर (Lal Kunwar) नाम की एक तवायफ से हुई, तो बादशाह को उसकी खूबसुरती और आवाज इतनी पसंद आई कि उसने लालकुँवर से निकाह कर लिया।
लालकुँवर पर मुग़ल बादशाह जहाँदारशाह का दिल आ गया था। सो, उसने भी मौके का फायदा उठाकर अपने सारे करीबी संबंधियों को अच्छे पदों पर समायोजित करा लिया। उसके भाई खुशहाल खान को पांच हजार जात और तीन हजार सवारों की मनसबदारी देकर आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया था।
बादशाह के बख्शी उल-मुल्क जुल्फिकार अली खां ने इसकी तैनाती की कार्यवाही में देरी कर दी। न फरमान तैयार थे और न ही अन्य जरूरी कागजात। तब लालकुँवर को उनकी शिकायत का बहाना मिल गया। उसने बादशाह से कहा कि जुल्फिकार अली को शायद उससे भी नजराना चाहिए, इसलिए आपके आदेश के बावजूद भी काम नहीं हो पा रहा है।
बादशाह ने जुल्फिकार अली को तलब किया और पूछा,
“खुशहाल खान की सूबेदारी के कागजों में देरी क्यों हो रही है जुल्फिकार अली?”
जुल्फिकार अली अपने किस्म का मनमौजी और बादशाह का मुंहलगा था। उसने बेपरवाह होकर साफ़ शब्दों में कहा,
“हम दरबारियों में रिश्वत लेने की बुरी आदत है। जब तक रुपया न मिले हम कोई काम कहाँ करते हैं हुजूर!”
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तब बादशाह को हँसी आई। वह उसका मज़ाक समझ गए थे, फिर भी मुस्कुराते हुए बोले,
“अब लालकुँवर से भी रिश्वत चाहिए? बताओ क्या दे वो?”
जुल्फिकार अली ने कहा,
“बस ज्यादा नहीं हुजूर, एक हजार सितार बजाने वाले और नक्काशी के उस्ताद हमें चाहीए, काम चल जाएगा।”
बादशाह विस्मित हुआ। उसने पूछा,
“इन लोगों का होगा क्या?”
तब इस मुग़ल बादशाह जहाँदार शाह का सबसे बड़ा दरबारी हल्के से बोला,
“हुजूर अब बड़ी-बड़ी नौकरियां ऐसे ही लोगों को तो मिलती हैं। इसलिए दरबारियों के लिए ये जरूरी हो गया है कि इनकी कला अच्छे से सीख ली जाए।”
जहाँदार शाह निहितार्थ समझ कर मुस्कुराकर रह गया। बात वहीँ खत्म हो गई।
बादशाह जहाँदार शाह जब अच्छे मूड में होता तो अपनी प्रेयसी लालकुँवर से कहा करता,
“अल्लाह ने तुमको हूर-सा रूप दिया है, और कोयल-सी मीठी आवाज!’ और वह इतरा जाती।
अभी तो उसे और भी लोगों को समायोजित कराना था, सो यूँ ही एक-एक कर अपने भाइयों और निकट तथा दूर तक के रिश्तेदारों को शाही नौकरियों पर तैनात करा दिया। उन्हें कम से कम चार या पांच हजारी मनसब, हीरे-जवाहरात, नौकर-चाकरों की दुरुस्त व्यवस्था करा लेती।
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एक और बेवकूफी भरा किस्सा
सभी शहंशाह, राजा और जमींदार लोग आम रास्तों पर सड़क के किनारे खूबसूरत पेड़ लगवाया करते हैं ताकि माहौल हरा-भरा बना रहे, लोगों को छाया मिले, फल-फूल मिलें, खुशबू फैले और अपनी मनपसंद जगहों पर चिड़ियाएँ आकर मधुर वाणी में गीत गाएँ।
इसके विपरीत क्या कभी आपने सुना है कि कोई बादशाह सड़क के किनारे के वृक्षों को पूरी तरह से कटवाने का आदेश जारी कर दे। पर बादशाह जहाँदार शाह ने लालकुँवर के कहने पर ऐसा ही किया था। एक बार लालकुँवर ने कहा,
“जब हम शिकार के लिए निकलते हैं तो यह सड़क के किनारे लगे हुए पेड़-पौधे-झाड़ियां हमारा रास्ता रोक लेती हैं। हमें समझ में नहीं आता कि आगे क्या आने वाला है…”
“तो बोलिए बेगम, क्या हुक्म है?”
गुलाम बने बादशाह ने अपनी बेगम से तामीली के इरादे पूछा। वह बेफिक्र होकर बोली,
“बस इतना कीजिए कि हमारे शिकार जाने के रास्ते की नदी के आसपास की सडक पर हमें कोई पेड़ नहीं दिखना चाहिए। हमें सिर्फ सड़क देखनी है, कोई रुकावट नहीं!”
“जो हुक्म बेगम!”
और अगले दिन से वहाँ के पेड़ों का सफाया शुरू होने लगा। देखते ही देखते वह खूबसूरत हरियाली भरा रास्ता नग्न हो चला।
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रात भर बैलगाडी में
इसी संदर्भ की एक दूसरी कहानी पूरे मुल्क में लगातार चर्चा में रही थी। हालाँकि कहानी दिल्ली की थी, पर इसकी चर्चा देश के हर हिस्से में सुनी जा सकती थी। किस्सा यूँ था-
“बादशाह जहाँदार शाह अकसर अपनी मनपसंद कनिजों और कुछ साथियों के साथ बैलगाड़ी में बैठकर बाजारों और शराब की दुकानों पर जाया करता था, ताकि उसे कोई पहचान न पाए।
एक दिन रात को वह अपनी प्रेमिका लालकुँवर के साथ इसी प्रकार वहाँ पहुंचा। उन लोगों ने इतनी शराब पी की उन्हें होश ही न रहा। शाही गाड़ी के चालक ने किसी तरह उन्हें लाद-फांद कर वापस महल के दरवाजे पर पहुंचाया।
लाल कुँवर तो अपने शयन कक्ष तक पहुँच कर बेखबर गहरी नींद में सो गई, पर बादशाह की इतनी भी अच्छी हालत न थी कि वह अपने पैरों से चलकर वहाँ तक चले जाते। इस प्रकार बेखबर बादशाह पूरी रात उस बैलगाड़ी में ही सोते रह गए।
गाडीवान भी इस बात से अनभिज्ञ ही रह गया था। देर रात का मामला था। उसने गाड़ी अपने अहाते में खड़ी कर खुद अपने घर पर सोने की तैयारी कर ली।
भोर के समय जब दिनचर्या शुरू हुई तो पता चला कि बादशाह लालकुँवर के पास नहीं हैं। एक हंगामा खड़ा हो गया। तब तक लाल कुँवर भी जाग गई थी। वह यह सुन और देख कर फूट-फूट कर रोने लगी।
उसे चेतना आ चुकी थी। थोड़ी याददाश्त पर जोर डाला, तो उसे सारा वाकया याद आ गया। जल्दी से लोग दौड़ाए गए और गाड़ीवाले की गाड़ी में मौजूद उनींदे बादशाह को आदरपूर्वक लाया गया।
तब सबकी जान में जान आई।
बादशाह ने लालकुँवर को बेगम इम्तियाज महल का भी नाम दिया हुआ था।
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सब्जी बेचने वाली को बड़ी तैनाती
लालकुँवर ने अपनी अदाओं, बातचीत और गायकी से जहाँदार शाह का दिल चुरा लिया था। एक दिन अचानक अंतरंग क्षणों में बोली,
“हुजूर हम जोहरा को देखे बिना बिना कैसे जी पाएंगे?”
बादशाह हुजूर अचकचा गए कि अब भला यह कौन नई मुसीबत गले आन पड़ी। उन्होंने संशय के साथ पूछा,
“कौन जोहरा?”
“अरे वही जो हमारे मुहल्ले के नुक्कड़ पर सब्जी की दुकान लगाया करती है। वह रोज हमारी राह तकती है।”
बादशाह जहाँदार शाह को थोड़ी राहत मिली। उन्होंने कहा,
“कल से उसे काम पर लगा दिया जाएगा। वह तुम्हारे आस-पास ही रहेगी।”
और वाकई अगले दिन जोहरा लाल किले में आ पहुंची। उसे मुग़ल हरम की प्रधान सेविका के महत्त्वपूर्ण पद पर तैनाती दे दी गई थी।
शाही दरबार, हरम और अन्य जगहों तैनात जोहरा जैसी ढूंढ-ढूंढ कर लाई गई तमाम औरतों और पुरुषों के बेवकूफियों के किस्से उन दिनों आम होने लगे थे। चिन कुलीच खान जो बाद में हैदराबाद के पहले निजाम बने, उस समय मुग़ल दरबार में बहुत प्रतिष्ठित दरबारी थे।
उनके पिता ने मुग़ल साम्राज्य की सेना में बहुत सम्मान पूर्वक समय बिताया था। उनकी आंखों की रोशनी आखिरी दिनों में चली गई थी। एक बार कुलीच खान जब एक मोहल्ले की थोड़ा संकरी गली में छोटी पालकी में बैठकर गुजर रहे थे, हाथी पर सवार जोहरा भी नौकरों के भारी-भरकम लश्कर के साथ वहां से गुजर रही थी। ऐसे में खान साहब के छोटे काफिले को जोहरा बीवी के काफिले को रास्ता देने के लिए किनारे हटा दिया गया। जैसे ही उन दोनों ने एक दूसरे का रास्ता पार किया वह निजाम को देखते ही चिल्लाई,
“अरे! यह तो उसी अंधे इन्सान का बेटा है!”
निजाम उसकी बेवकूफी और अपमानजनक बात को सहन नहीं कर सका। उसके इशारे पर निजाम के आदमियों ने जोहरा को हाथी से खींच लिया। किसी तरह से बात संभाली गई। जोहरा ने लालकुँवर के माध्यम से बादशाह सलामत से इस मामले की शिकायत की।
बिना विवरण में जाए जहाँदार शाह ने आदेश दिया कि कुलीच खान को सजा दी जाए, परंतु कुछ दरबारियों ने बीच-बचाव कराकर समझाया कि इससे जो असंतोष फैलेगा उसकी भरपाई करना आसान नहीं होगा। तब जाकर उसने अपने आदेश को वापस लिया।
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अय्याश शख्स के रूप में चर्चित
जहाँदार शाह इतिहास में अजीबोगरीब मिजाज, और अय्याश शख्स के रूप में चर्चित हुआ था। वह अपना राज-काज दरबारियों के भरोसे छोड़ लालकुँवर के साथ मग्न रहता था। शासन की वास्तविक कुंजी मूर्ख लालकुँवर के हाथों में थी, उसके सारे रिश्तेदार दरबार और मुल्क में में ऊँचे-ऊँचे पदों पर तैनात हो गए थे। शाह के इस रवैये के कारण राज्य में हर दिन असंतोष बढ़ने लगा।
जहाँदार शाह लालकुंवर की हाथों की कठपुतली बन चुका था, वह वही करता था जो लालकुंवर कहती। यहाँ तक कि उसे अपने बेटों से भी मोह नहीं रहा।
लालकुँवर को जहाँदार शाह के दोनों बेटों से नफरत थी, इसलिए उसके कहने पर जहाँदार शाह ने अपने दोनों बेटों की आंखें फोड़कर उन्हें कैदखाने में डलवा दिया था।
दोनों बेटे चीखते और चिलाते रहे। वे अपना कुसूर पूछते रहे, पर हुक्म तो हुक्म था। वह पूरा हो कर रहा।
कहते हैं कि लालकुँवर की धृष्टता का यह आलम था कि उसको भ्रम हो गया था कि वह नूर जहाँ जितने उच्च स्तर पर पहुँच गई है। उसके आसपास रहने वाले कुछ लोग उसकी वाहवाही में ऐसा कहा भी करते थे, पर इतिहास में कहीं लालकुँवर के किसी ऐसे काम का जिक्र नहीं है जिससे आम जनता के दिलों में उसके लिए कोई बेहतर जगह बन सकती हो।
उसने जो किया अपने नजदीकी लोगों, परिजनों के लिए किया या अपनी अय्याशी के लिए किया। उसका न समाज के लिए और न ही संस्कृति या किसी और रूप में कोई योगदान रहा। यहाँ तक कि वह शायद अपने व्यवसाय, संगीत और गायिकी के लिए भी कुछ कर पाई हो, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। उसकी तुलना किसी भी रूप में नूर जहाँ से करना बेमानी था।
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लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।