मलिक अम्बर कैसे बना हब्शी गुलाम से सर्वोच्च सेनापति?

ध्यकालीन इतिहास का सबसे कीर्तिमान सेनापति, मुत्सद्दी, न्यायप्रिय, लोकप्रिय और बेहतरीन प्रशासक जिसका नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है और जिसकी गवाही खुद इतिहास देता है, वह है आदिवासी मुस्लिम सुपुत्र मलिक अम्बर।

एक बाजार में बेचें गए गुलाम से लेकर सर्वोच्च सेनापति पद तक कीर्तिमान इस योद्धा की जीवनी भी बड़ी रोमांचकारी है। उसका जीवन किसी महासंग्राम की कथा ही है।

यूनानी इतिहास के प्राचीनतम स्त्रोतों में गुलामी के अस्तित्व का वर्णन प्राप्त होता है। यूनान के आदिकवि होमर (ईसा पूर्व 900 के करीब) के महाकाव्यों – ओडिसी तथा इलियड – में दासता के अस्तित्व तथा उससे उत्पन्न नैतिक पतन का उल्लेख है। ईसा पूर्व 800 के बाद यूनानी उपनिवेशों की स्थापना तथा उद्योगों के विकास के कारण दासों की माँग तथा पूर्ति में अभिवृद्धि हुई।

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युद्ध में लुटे जाते गुलाम

इस सदीं तक गुलामों के बाजार एक आम परम्परा का हिस्सा था। यह प्रथा यूनान से लेकर मिस्र, अरब और एशिया में बड़ी जोरों पर प्रचलित था। यह गुलाम सेवा, उत्पाद और रक्षा के मुख्य स्त्रोत थे।

दासों की प्राप्ति का प्रधान स्रोत था युद्ध में प्राप्त बंदी किंतु मातापिता द्वारा संतान विक्रय, अपहरण तथा संगठित दासबाजारों से क्रय द्वारा भी दास प्राप्त होते थे।

जो कर्जदार व्यक्ति अपना ऋण अदा करने में असमर्थ हो जाते थे, उन्हें भी कभी कभी इसकी अदायगी के लिए दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। एथेंस, साइप्रस तथा सेमोस के दासबाजारों में एशियाई, अफ्रीकी अथवा यूरोपीय दासों का क्रय विक्रय होता था।

बगदाद भी गुलामों का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध गुलाम खरेदी-बिक्री का बाजार था। घरेलू कार्यों अथवा कृषि तथा उद्योग धंधों संबंधी कार्यों के लिए गुलाम रखे जाते थे। गुलामों को अपने मालिक की निजी संपत्ति समझा जाता था और संपत्ति की तरह ही उसकी खरीद-फरोख्त हो सकती थी।

लेकिन गुलामों के साथ बर्बर और अमानवीय व्यवहार प्रचलित था। उन्हें कोई न्यायिक अधिकार नहीं थे। वे पूरी तरह मालिको के अधिकार में उनकीं निजी मिल्कियत में थे।

लेकिन पैगम्बर मुहंमद (स) और इस्लाम के आगमन के बाद क़ुरआन के माध्यम से दासप्रथा के लिए आदेशित सूचनाओं से गुलामों की जिन्दगी में एक नया आयाम जुड़ गया। इस्लाम के समतावादी तत्वों ने एक नया पैगाम इन गुलामों के जीवन में दिया।

पैगम्बर मुहमंद ने आदेश दिया कि गुलामों के साथ मानवीय व्यवहार करो। उन्हें वही सब दो जो तुम अपने लिए इस्तेमाल करते हो और चाहते हो। क़ुरआन ने बेटों और रिश्तेदारों के बाद संपत्ति पर गुलामों का अधिकार निश्चित किया। मालिक और सेवक के बीच इबादत (भक्ति) से लेकर खान-पान और पेहराव की समानता को शिक्षा ने गुलामों की जिन्दगी में नया उजाला ला दिया।

गुलामो का शिक्षा का पूरा अधिकार इस्लाम ने प्रदान किया और गुलाम को अगर वो चाहे तो मुक्ति का आदेश भी दिया, और भलाई के लिए स्वंय मालिक को मुक्ति का आदेश दिया। अच्छे दासों से विवाह के लिए मंजूरी समाजिक चेतना में बड़ी पहल थी, जिसे इस्लाम ने शुरु किया।

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मलिक बचपन मे बिका

इसवीं 1549 में इथियोपिया के अलहारा शहर के करीब एक देहात में आदिवासी हब्शी कबीले में इस पुत्र का जन्म हुआ। ग़रीबी, दरिद्रता के आलम में परिवार था। दरिद्रता के चलते इस बेटे को मां-बाप बचपन में ही बगदाद के गुलामों के बाजार में जाकर बेंच दिया, जिसे मक़्क़ा के रहनेवाले काज़ी-उल-कुज्ल ने खरीदा।

काज़ी-उल-कुज्ल ने सेवा के लिए मलिक को अपने दोस्त ख्वाजा मीर कासिम को दिया। मीर कासिम बहुत दयालु, श्रद्धावान थे। उन्होंने  इस आदिवासी बालक को मलिक अम्बर नाम दिया और इस्लाम में दीक्षित किया। खुद के बेटे के समान मलिक अम्बर की देखभाल की। उन्होंने मलिक अम्बर को पढ़ाया, शिक्षा दी और युद्ध कला भी सिखाई।

लेकिन हालात बदले और चंद समय बाद मलिक अम्बर सहारा रेगिस्तान पहुँच गया। वहां दूसरे मालिक के पास मलिक अम्बर बतौर सेवक कार्य करने लगा। वहां उसे एक मालवाहू जहाज पर रखा गया और इस जहाज के साथ वह दक्षिण भारत आ गया।

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भारत में आगमन

दक्षिण भारत मे उस समय निज़ामशाही का राज्य था। इसका बड़ा सरदार मिराक दबीर उर्फ चंगिज खान ने मलिक अम्बर को अपनी सेवा में लिया। मिराक दबीर के पास एक हजार सेवक थे।

मलिक अम्बर की बुद्धि कुशाग्र, प्रकृति प्रतिभायुक्त और उदार थी, अत: उसे अन्य गुलामों की अपेक्षा ख्याति पाने में देर न लगी। चंगेज खान के संरक्षण में रहकर निज़ामशाही राजनीति तथा सैनिक प्रबंध को समझने का उसको अवसर प्राप्त हुआ।

चंगेज खान की आकस्मिक मृत्यु होने के कारण वह कुछ समय तक इधर-उधर ठोकरें खाता रहा। निज़ामशाही राज्य पर काले बादलों को आच्छादित होते देखकर तथा दलबंदी के संताप और मुगलों के निरंतर आक्रमणों से भयभीत होकर राजाश्रय के लिए दकन की अन्य सल्तनतों में गया। परंतु जब इन राज्यों में भी यथेष्ट सुअवसर प्राप्त न हुआ तब वह अन्य हब्शियों के साथ फिर अहमदनगर लौट आया।

मलिक अम्बर का हुनर और ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा देखकर मिराक दबीर ने मृत्युपूर्व मलिक को अपनी गुलामी से मुक्त कर आज़ाद कर दिया। मलिक अम्बर निज़ामशाही के राज्य में था, लेकिन किसी की सेवा स्वीकार करने से पहले ही  इस बलाढ्य शाही के पांच टुकड़े हो गए और मलिक अम्बर घुमते-फिरते ‘खड़की’ (वर्तमान औरंगाबाद) आया।

सैफुद्दीन साहिल अपनी किताब ‘तवारीख़ ए शिवाजी’ लिखते है, “भटकते हुए मलिक अम्बर खड़की पहुँचा। थकहार कर एक पेड़ के नीचे बदन ओढ़कर सो गया, लेकिन ऊंचा बहोत होने से उसके पैर चादर के बाहर थे।

उसी समय निज़ामशाही का एक बड़ा सरदार ‘साबाजी अनंत’ उसी राह से अपने काफिले के साथ जा रहा था। मलिक के बाहर झांकते पैरों की चौड़ाई देख साबाजी ने कहा कि यह बहोत बडा योद्धा मालूम पड़ता है।’’

साबाजी ने अम्बर को जगाया और अपने साथ निज़ामशाही दरबार ले गया। निज़ाम के दरबार मे उसे पेश किया। इसकी तहकीकात होने के बाद निज़ामशाही में मलिक अम्बर को नौकरी दे दी गई। उसे आगम खान के नेतृत्व में एक सैन्य टुकड़ी का प्रमुख बनाया गया। यही से मलिक अम्बर का स्वतंत्र रूप से आगे का सफर शुरू होता है।

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सर्वोच्च सेनापति

मलिक अम्बर को 150 अश्वारोहियों का सरदार नियुक्त किया गया था। वह अपने आश्रयदाता के साथ चुनार पहुँचा और उसने मुगल आक्रमणकारियों को परेशान करना प्रारंभ किया। शत्रु के शिविरों पर छापा मारकर वह रसद लूट लेता था और उसके प्रदेश में घुस पड़ता था।

इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी ख्याति बढ़ने लगी। परंतु जब अहमदनगर पर मुग़लों का अधिकार हो गया और निज़ामशाही राज्य अपनी अंतिम साँसें ले रहा था तब मलिक अम्बर को अपने अदम्य साहस, शक्ति एवं गुणों का परिचय देने का अवसर मिला।

निज़ामशाही राज्य फिर से प्रभुता तथा ऐश्वर्य की ओर उन्मुख हो गया। मलिक अम्बर इस निज़ामशाही का सेनापति बनाया गया। परिस्थिति उसके अनुकूल थी। शहज़ादा सलीम के अकस्मात् विद्रोह के कारण मुग़ल सेना का दक्षिण से हटना अनिवार्य हो गया था।

फलत: मलिक अम्बर ने मुगलों द्वारा विजय किए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार करना प्रारंभ कर दिया और अहमदनगर, प्राय: समस्त दक्षिण भाग, हस्तगत कर लिया। इसके बावजूद ईसवीं 1605 तक मलिक अम्बर की परिस्थिति दृढ़ ही होती गई। मुग़लों से टक्कर लेते लेते उसने मुग़लों को लोहे के चने चबवा दिए।

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