औरंगजेब कि जिंदगी का एक बडा अरसा दकन में गुजरा। शिवाजी महाराज के निधन के बाद राजा संभाजी तख्तनशीन हुए। संभाजी ने मुगल सत्ता को चुनौती दी थी।
औरंगजेब के बागी शहजादा अकबर को पनाह देना, इसकी मदद करके औरंगजेब के खिलाफ लडाई करने के लिए उकसाना, बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) को लगातार तीन दिनों तक जलाना और लुटना, जैसी हरकते मुगल शासकों के लिए नाकाबिल ए बरदाश्त हो गयी थी।
संबंधित लेख ‘औरंगजेब के दरबारी अखबारात’ का उर्दू अनुवाद है, जिसका नाम अहदे आलमगीर के दरबारी अखबारात हैं। प्रस्तुत लेखक के किताब ‘राहे नजात किस राहपर’ का एक संपादित अंश है…
दकन कि कुतुबशाही और बिजापूर की आदिलशाही हुकुमतों का खात्मा वगैरा औरंगजेब के दकन मुहीम का पहला मकसद था। इसीलिए राजपूतोंसे फुरसत मिलते ही औरंगजेब 8 सितंबर 1681 को दकन की तरफ रवाना हुआ। और करीब 27 साल अपनी जिंदगी कश्मकश से गुजार देने के बाद वह दकन की सरजमीन में ही सुपुर्द ए खाक हो गया और पूर्वोत्तर भारत वापस जाने से वंचित रहा।
औरंगजेब जिस समय अपनी जिंदगी के आखिर दौर में एक शासक के हैसियत से दकन में दाखिल हुआ उस वक्त उसकी उम्र 56 साल थी। अजमेर से रवानगी के बाद वह 13 नवंबर 1681 को बुरहानपुर पहुंचा।
फिर 22 मार्च 1682 को औरंगाबाद में दाखिल हुआ। वहां से रवाना होकर औरंगजेब ने अहमदनगर में छावनी डाली। अहमदनगर के पश्चिम में बहादूरगड जो अब पेडगांव कहलाता है, वहां मुकाम किया। और 24 मई 1685 को औरंगजेब शोलापूर पहुंचा।
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औरंगजेब इन दिनों सिर्फ सफर नहीं करता था, बल्की दकन के कुछ हिस्सों में फौजी मुहीम भी रवाना करता रहा। इसी दौरान बिजापूर का महासिरा शहजादा आझम के नेतृत्व में शुरु हो चुका था। शहंशाह ए वक्त के हैसियत औरंगजेब पहली बार शोलापूर आया था। बिजापूर का महासिरा बहोत सारी वजुहात कि वजह से बढता जा रहा था, कामयाबी के असार नजर नहीं आ रहे थे।
औरंगजेब को अब यह लगने लगा था कि उसकी दखलअंदाजी के बिना बिजापूर की फतह मुमकीन नहीं है। इसीलिए वह शोलापूर में तकरीबन 1 साल 1 माह रहने के बाद बिजापूर रवाना हुआ। तवील मुहासरे के बाद 12 दिसंबर 1686 को बिजापूर फतह होने के बाद 28 जनवरी 1687 को गोलकुंडा फतह करके उसने कुतुबशाही सल्तनत खत्म कर दी।
गोलकुंडा के आखरी सुलतान अबुल हसन तानाशाह को औरंगाबाद के करीब दौलताबाद के पुराने किले में रखा गया। औरंगजेब जिस समय वह दकन में दाखिल हुआ और बुरहानपुर पहुंचा वहीं से वह दकन के विभिन्न इलाकों में अपने सरदारों और शहजादाओं कि कमान में मराठाओं के खिलाफ फौजी मुहीमात रवाना करने का सिलसिला शुरु किया था।
तजकीरे गोलकुंडा के बाद बिजापूर में औरंगजेब ने अस्थायी छावनी कायम की थी। यहां से भी मराठों के खिलाफ औरंगजेब ने मुहीमात रवाना किए थे। इसी समय नवंबर 1688 में बिजापूर में प्लेग कि बिमारी फैल गई।
किले व शहर में तकरीबन 1 लाख लोग मर गए। जिसमें औरंगजेब कि बीवी भी शामील थी। यह वाकिया औरंगजेब के लिए काफी दर्दनाक साबित हुआ। इसके बाद औरंगजेब दिसंबर के आखरी दिनों में बिजापूर से 85 मील दुरी पर अकलुज शहर मौजूद है, वहां से करीब मालशिरस तहसिल में कुछ दिन रहा।
3 मार्च 1689 को पुना से करीब कोरेगांव में औरंगजेब ने छावनी डाली। 11 जनवरी 1690 को औरंगजेब दुबारा बिजापूर चला गया और बिजापूर करीब गलगली में कई दिन तक रहकर आखरी और पांचवी बार बिजापूर गया।
वहां तकरीबन डेढ महिना गुजारकर शोलापूर के दक्षिण में ब्रम्हपूरी के किले में आ पहुंचा। यहां औरंगजेब 21 मई 1695 से 19 अक्तूबर 1699 यानी तकरीबन साडे चार साल रहा। फिर 19 अक्तूबर 1699 को बडी फौज के साथ उसने ब्रम्हपुरी छोड दी।
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ब्रम्हपुरी में अपनी बेटी जिनतुन्निसा बेगम, बीवी उदयपुरी महल, शाही खानदान के दुसरी औरतों को रखा। इसके बाद सन 1700 तक महाराष्ट्र में मराठों के कुछ अहम किले औरंगजेब ने फतह कर लिए, जिसमें वसंतगड, पन्हाळगड वगैरा शामील है।
19 अक्तूबर 1704 औरंगजेब पुणे के करीब खेड में था वहां से बेडर कबिले के सरदार पेड्डा नायक को साथ लेकर वह वाकिनखेड का किला (ता. शिरपूर जि. गुलबर्गा) को फतह करने की आखरी मुहीम के लिए रवाना हुआ। इस समय औरंगजेब की उम्र 87 साल की थी।
इससे कुछ वक्त पहले मराठों के हमले से बने खतरे की वजह से ब्रम्हपुरी में रहनेवाली बेगमात को बहादुरगड को भेजा गया। पुणे से रवाना होकर शहंशाह औरंगजेब लंबे अरसे के बाद बेगमात से मुलाकात करके औरंगजेब वाकीनखेडा की मुहीम के लिए 10 अप्रैल 1705 को बेडरों का किला वाकिनखेडा फतह कर लेता है। सारी जिंदगी कश्मकश, निरंतर सफर और मुहीमात हिस्सा लेने के बाद औरंगजेब को थकान महसूस होती है।
इसी वजह औरंगजेब किले से करीब देवापूर नामी गाव में बिमार हो जाता है। जिस्म अब जवाब दे चुका था, 23 अक्तूबर 1705 को तकरीबन 23 साल के बाद औरंगजेब अहमदनगर लौट आया।
22 फरवरी 1707 को फज्र (सुबह) कि नमाज अदा कि और उसके बाद सुबह 8 बजह औरंगजेब इंतकाल हो गया। औरंगजेब की इच्छा के मुताबिक खुलताबाद में सुफी औलिया सय्यद जैनोद्दीन शिराजी की दर्गाह के करीब दफनाया गया।
औरंगजेब जबतक दकन में रहा यहां हर लम्हा मैदान ए जंग व्यस्त रहा। शहर शोलापूर के करिब ब्रम्हपूरी को औरंगजेबने इसी दरमियान अपनी हुकुमत की राजधानी का दर्जा बहाल किया था।
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लेखक प्रसिद्ध उर्दू इतिहासकार रहे हैं। उन्होने उर्दू भाषा महात्मा फुले, बाबासाहब अम्बेडकर और शाहू महाराज के जीवनी लिखी हैं। सोलापूर सेशन कोर्ट में वह वकील भी रहे हैं।