नेहरु कि लेखमाला :
पंडित नेहरू ने ‘Glimpses of world history’ किताब में मध्यकालीन भारत के इतिहास पर विस्तृत रोशनी डाली हैं। इसमें सम्राट अकबर पर लिखा लेख उसका बेहतरीन व्यक्तित्व पेश करता हैं। आज जब मध्यकाल के इतिहास को तोड-मरोडकर पेश किया जा रहा हैं, तब नेहरू कि यह किताब हम सब के लिए जरुरी हो जाती हैं। हम डेक्कन क्वेस्ट के माध्यम से पाठको को इस किताब का रिविजन करा रहे हैं।
सम्राट अकबर को एक नये साम्राज्य को जीतने और उसे मजबूत बनाने में जिन्दगी भर कोशिश करनी पड़ी। लेकिन इसके अंदर अकबर का एक और विचित्र गुण नजर आता है। यह थी उसको असीम ज्ञान पिपासा – दुनिया की वस्तुओं को जानने की इच्छा और उसकी सच की खोज।
जो कोई भी किसी विषय पर रोशनी डाल सकता था, उसे बुलाया जाता था। अलग-अलग मजहबों के लोग इबादतखाने में उसके चारों तरफ बैठते थे और इस महान, बादशाह को अपने धर्म में शामिल करने आशा रखते थे।
वे अक्सर एक दूसरे से झगड़ पड़ते थे और अकबर बैठा-बैठा उनकी बहस सुनता रहता और उनसे बहुत से सवाल करता रहता था।
उसे शायद यह विश्वास हो गया था कि सत्य का ठेका किसी खास धर्म या फिरके ने नहीं ले रखा है। उसने यह ऐलान कर दिया था कि यह धर्म में सबके साथ सहिष्णुता के सिद्धान्त को मानता है।
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हर धर्म का आदर
अकबर के राज्यकाल के इतिहास लेखक (अब्दुल कादिर) बदायूनी ने, जो ऐसे बहुत से जलसों में शामिल होता रहा होगा, अकबर का बड़ा मजेदार बयान लिखा है, जो मैं यहां देना चाहूँगा।
बदायूनी खुद एक कट्टर मुसलमान था और यह अकबर की इन कार्रवाइयों को बिलकुल नापसंद करता था।
वह कहता है, “जहाँपनाह हरेक की राय इकट्ठी करते थे, खासकर ऐसे लोगों की जो मुसलमान नहीं थे, और उनमें से जो उनको अच्छी लगती उन्हें रख लेते और जो उनके मिजाज के खिलाफ और उनकी इच्छा के विरुद्ध जातीं उन सबको फेंक देते थे।
शुरू बचपन से जवानी तक और जवानी से बुढ़ापे तक, जहाँपनाह बिलकुल अलग-अलग तरह की हालतों में से और सब किस्म के मजहबो कायदों और फ़िरकों के विश्वासों में से गुजरे है, और जो कुछ किताबों में मिल सकता है।
उस सबको उन्होंने चुनाव करने के उस विचित्र गुण से, जो खास उन्हीं में पाया जाता है। इकट्ठा किया है और खोज करने की उस भावना से इकट्ठा किया है, जो मुस्लिम शरीयत के बिलकुल खिलाफ़ है।”
“इस तरह उनके दिल के आईने पर किसी मूल सिद्धान्त के आधार पर एक विश्वास का नक्शा खिंच गया है और उनपर जो-जो असर पड़े हैं उनका नतीजा यह हुआ कि उनके दिल में पत्थर की लकीर की तरह यह जबरदस्त यकिन पैदा होता और जमता गया है कि सब मजहबों में समझदार आदमी है।
सब जातियों में संयमी विचारक और अद्भुत शक्तिवाले आदमी हैं। अगर कोई सच्चा ज्ञान इस तरह हर जगह मिल सकता हो तो सत्य किसी एक ही मजहब में बन्द होकर कैसे रह सकता है?”
उस जमाने में यूरोप में मजहबी मामलों में बडी जबरदस्त असहिष्णुता फैली हुई थी। स्पेन, नेदरलैण्ड और दूसरे देशों में इनक्विजिशन का दौर-दौरा था और कैथलिक और कालविनिस्ट दोनों एक दूसरे को सहन करना बड़ा भारी पाप समझते थे।
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दिन ए इलाही
अकबर ने वर्षों तक सब धर्मों के आलिमों से अपनी धर्म चर्चा और बहस जारी रखी, लेकिन आखिर में वे उकता गये और उन्होंने अकबर को अपने-अपने मजहब में मिला सकने की उम्मीद बिलकुल छोड़ दी। अब हर एक मजहब में सच्चाई का कुछ न कुछ हिस्सा था तो वह उनमें से किसी एक को कैसे चुन सकता था?
जेसुइट (सोसाइटी ऑफ जीसस के मेम्बर) लोगों के लिखे मुताबिक वह कहा करता था, “चूंकि हिन्दू लोग अपने धर्म को अच्छा समझते है और इसी तरह मुसलमान और ईसाई भी समझते हैं। तो फिर हम इनमें से किसको अपनावें?”
अकबर का सवाल बड़ा मायने रखनेवाला था लेकिन जेसुइट लोग इससे चिढ़ते थे और उन्होंने अपनी किताब में लिखा है, “इस बादशाह में हम उस नास्तिक की सी आम गलती देखते है जो बुद्धि को यकिन का गुलाम बनाने से इनकार करता है।
जिस बात की गहराई को उसका कमजोर दिमाग न पा सके उसे सच न कबूल करता हुआ उन मामलों को अपने विवेक पर छोड़कर इत्मिनान कर लेता है, जो इन्सान की सबसे ऊँची विचार प्राप्ति की हद से भी बाहर हैं।” अगर नास्तिक की यही परिभाषा है तो जितने ज्यादा नास्तिक हों उतना ही अच्छा!
अकबर का उद्देश्य क्या था, यह साफ़ नहीं मालूम पड़ता। क्या यह इस सवाल को खाली राजनैतिक निगाह से देखता था? सबके लिए एक राष्ट्रीयता ढूंढ निकालने के इरादे से कहीं वह भिन्न-भिन्न मजहबों को जबरदस्ती एक ही रास्ते में तो नहीं डालना चाहता था? क्या अपने उद्देश्य और उसकी तलाश में वह धार्मिक था? मैं नहीं जानता।
लेकिन मेरा खयाल है कि वह मजहबी सुधारक को बनिस्बत राजनीतिज्ञ ज्यादा था। उसका उद्देश्य चाहे जो रहा हो, उसने वाकई एक नये मजहब ‘दीन ए इलाही’ का ऐलान कर दिया जिसका पीर वह खुद था।
दूसरी बातों की तरह मजहबी मामलों में भी उसकी मनमानी में कोई दखल नहीं दे सकता था और उसके आगे लेटना, कदम चूमना वगैरा की कवायद करनी पड़ती थी। यह नया मजहब चला नहीं। इसने तो उलटा मुसलमानों को चिढ़ा दिया।
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किताबें पढ़वा कर लेने का शौकिन
अकबर हुकूमतपरस्ती का तो खास पुतला था। फिर भी यह सोचने में मजा आता है कि उदार राजनैतिक विचारों का उस पर क्या असर हुआ होता। अगर मजहबी आज़ादी थी तो लोगों को कुछ राजनैतिक आज़ादी क्यों न हो?
विज्ञान की तरफ यह जरूर जब खिंचा होता। बदकिस्मती से ये खयालात, जिन्होंने उस वक्त यूरोप के लोगो को हैरान करना शुरू पर दिया था, उस जमाने के हिन्दुस्तान में चालू नहीं हुए थे।
छापेखानों का भी उस जगाने में कोई इस्तेमाल नहीं नजर आता। इसलिए शिक्षा का दायरा बहुत छोटा था। यह जानकर सचमुच ताज्जुब होगा कि अकबर बिलकुल अनपढ़ था, यानी यह बिलकुल पढ़-लिख नहीं सकता था। लेकिन फिर भी वह बहुत आला दर्जे का शिक्षित था।
किताबें पढ़वा कर सुनने का बड़ा भारी शौकीन था। उसके हुक्म से बहुत सी संस्कृत किताबों का फारसी में तर्जुमा किया गया।
सती प्रथा को किया बंद
यह भी एक मार्के की बात है कि उसने हिन्दू विधवाओं के सती होने के रिवाज को बंद करने का हुक्म निकाला था और लड़ाई के कैदियों को गुलाम बनाये जाने की भी मनाई कर दी थी।
64 साल की उम्र में करीब पचास वर्ष राज करने के बाद, अक्तूबर सन् 1605 ईसवीं में अकबर की मृत्यु हुई। उसकी लाश आगरे के पास सिंकदरे में एक खूबसूरत मकबरे में दफ़न की हुई है।
अकबर के राज्यकाल में उत्तर हिन्दुस्तान – काशी में – एक आदमी हुआ जिसका नाम उत्तर प्रदेश के हर एक ग्रामीण की जबान पर है। वहां वह इतना मशहूर है और इतना लोकप्रिय है जितना अकबर या दूसरा कोई बादशाह नहीं हो सकता। मेरा मतलब तुलसीदास से है जिन्होंने हिन्दी में रामचरित मानस या रामायण लिखी है।
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