कोई सोच भी नहीं सकता था कि तैमूर के वंशज बादशाह बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब के बाद मुगलों के वंश का इतना बुरा समय आएगा। तब योग्य शहंशाहों और शहज़ादों का इस कदर किल्लत पड़ गई कि कोई इस देश की गद्दी को संभालने को ही तैयार न था।
फर्रुखसियर से लगातार सीधे विवाद के कारण उसके जीते-जी ही सैय्यद बंधुओं ने उसे हटाने का मन बना लिया था। किस्सा यह है कि सैय्यद भाइयों ने तय किया कि बिदार दिल, जो कि शहजादे बिदार बख्त का बेटा और औरंगज़ेब का प्रपौत्र (बादशाह मुहंमद शाह का पौत्र) था, को नया बादशाह घोषित कर दिया जाए।
ऐसा इसलिए तय हुआ था कि लोगों की राय थी कि वर्तमान मुग़ल वंशजों में सिर्फ वही सबसे विद्वान और उपयुक्त था। पर यह इस शहज़ादे की किस्मत थी और उसके परिजनों का भय कि उसे बादशाह नहीं बनना था, इसलिए इस घटनाक्रम को लेकर तमाम अजीबोगरीब परिस्थितियाँ बनती चली गईं।
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बादशाह की खोज
हुआ यह कि जब सैय्यद (भाइयों) पक्ष की ओर से हरकारों को भेज कर शहज़ादे बिदार दिल को बुलाया गया तो उसके घर पर चीख-पुकार और रोने-धोने का माहौल बन गया। घर की औरतों ने दरवाजे खोलने से इन्कार कर दिया। भेजे गए दूतों ने उन्हें बहुत मिन्नतों के साथ बताया कि वे लोग बिदार दिल को इस मुल्क का बादशाह बनाने के लिए ले जाने आए हैं।
परंतु उन चीख-पुकार मचाती महिलाओं को यह बात बिल्कुल समझ नहीं आई। उनका दिमाग सिर्फ इतना सोचे बैठा था कि सैय्यद भाई देश के सिंहासन पर खुद बैठने से पहले मुग़ल वंश के हर उस इन्सान का कत्ल करना चाहते थे जो बादशाहत के काबिल हो सकता था। उन्होंने किसी भी कीमत पर दरवाजे खोलने से इन्कार कर दिया।
उन दूतों के सामने यह बड़ी अकल्पनीय स्थिति आन खड़ी हुई थी। उन्हें अपने आकाओं के आदेशों का पालन करना था, अतः मुख्य दरवाजे को काट कर तोड़ डाला गया। व्यापक छानबीन के बाद भी पूरे घर में बिदार दिल नहीं मिल सका।
बिदार को घर की औरतों ने किसी बड़े संदूक में छिपा दिया था। हताश होकर सैय्यद भाइयों के भेजे गए लोगों को कम उम्र के रफी-उस-शान के घर का रुख करना पड़ा। वहाँ उन्हें शहजादा रफ़ी-उद-दरजात (Rafi ud-Darajat) मिल गया, जिसे घर से घसीट कर बाहर निकाला गया।
किले में पहुँच कर एक ओर से वजीर और दूसरी ओर से राजा अजित सिंह ने उस किशोर का हाथ पकड़ा और मुग़ल बादशाह के लिए नियत तख़्त पर बिठाने के लिए ले जाया गया। तमाम दरबारियों और अन्य उपस्थित लोगों ने नये बादशाह का अभिवादन किया और नज़र भेंट कीं, जबकि नौबत ख़ाना में संगीतकारों ने एक नये शासन की शुरुआत की घोषणा की।
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मिल गया कठपुतली बादशाह
शहजादे रफ़ी-उद-दरजात के नाम के सिक्के ढालने का आदेश कर दिया था। उसे तमाम बलैयाँ लेकर राजसिंहासन पर बैठाया गया पर ‘इस पृथ्वी और समुद्र पर बादशाहों का बादशाह’ बीस साल का बादशाह एक अफीमची था, जिसके फेफड़े इस व्यसन का शिकार होकर बर्बाद हो चुके थे। उसे क्षय रोग ने लगभग जीते जी ही लील लिया था, बस वह किसी तरह से ज़िन्दा था।
पर वर्तमान परिस्थितियों में इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। 28 फरवरी की उस घटना के बाद जब बिदार दिल को बादशाह के सिंहासन पर बिठाने के लिए बुलाने के प्रयास असफल हो गए थे, तो निहायत मजबूरी में इस मुग़ल वारिस को गद्दी पर बिठाया गया था। इस समय ख़ास बात यह थी कि ऐसे किसी व्यक्ति को वारिस घोषित करना था, जिसकी वंशावली मुग़ल हो, उसका स्वास्थ्य और अन्य बातें अर्थहीन थीं।
अफीमची मगर अक्लमंद
मुग़ल बादशाह रफी-उद-दरजात कठपुतली बादशाह था, बीमार था, अफीम के नशे में रहता था, सिंहासन पर बैठने से पूर्व अकेलेपन और कठिन स्थितियों में दिन काट रहा था, पर वह कमजोर दिमाग न था। एक बार उसके सामने किसी पद पर तैनाती के आदेश को हस्ताक्षर कर स्वीकृति प्रदान करने के लिए लाया गया।
उसे याद आया कि शायद ऐसे ही एक आदेश पर वह कुछ दिन पहले ही अपनी मंजूरी दे चुका था। उसने वजीर से पूछा कि क्या यह वही मामला है, या यह उस नाम के किसी व्यक्ति का कोई अलग मामला है? वजीर को सच्चाई बतानी पड़ी। उसने बताया कि बाद का व्यक्ति इस तैनाती के लिए पहले से अधिक धनराशि देने को तैयार था, इसलिए उसी के नाम पर विचार करना बेहतर होगा।
तब बादशाह ने इस अभिलेख पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। बादशाह का कहना था कि सरकार के फैसलों का इकबाल बने रहना बेहद जरूरी है। इस बात के लिए यह तैनाती रद्द कर, दूसरे किसी व्यक्ति को उस पर तैनात करना कोई अच्छा उदाहरण नहीं बनेगी।
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सैय्यद हुसैन अली से निकलवाए जूतें
विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यह मुग़ल बादशाह अपनी प्रतिष्ठा, नियम-कानूनों के पालन और मान-सम्मान के लिए सचेत रहता था। एक बार बादशाह से एक निजी और अनौपचारिक भेंट में सैय्यद हुसैन अली खान ने बिना संकेत पाए बैठने की गुस्ताखी कर दिखाई थी।
बादशाह से बराबरी का और अनौपचारिक व्यवहार करने का तरीका इस शहंशाह को पसंद नहीं आया, पर उसने समझदारी से काम लिया। बादशाह रफी-उद-दरजात ने अपने पैरों को आगे बढ़ा कर सैय्यद हुसैन अली को अपने जूतों की ओर संकेत कर बोला,
“जरा उतार दो इन्हें!”
दरजात कभी बहुत बलवान रहे मुग़ल वंश का प्रतिनिधि था, मुल्क का बादशाह भी था, पर उसे पता था कि वह कठपुतली मात्र है। ऐसे में उसने जो आदेश दिया था, सैय्यद हुसैन अली ने अपने आंतरिक भावों, मन तथा चेहरे के माध्यम से आक्रोश व्यक्त करने की मन:स्थिति से बमुश्किल काबू पाया।
वक्त का तकाजा था, वह बादशाह से पंगा लेकर किसी जटिल स्थिति में पड़ने से बचना चाहता था। वह जानता था कि आम लोगों की भावनाएं अभी भी मुग़ल वंश के साथ जुडी थीं, सैय्यदों के नहीं !
सैय्यद हुसैन अली ने कोई आनाकानी नहीं की, आदेशानुसार बादशाह के जूतों को उतार कर अलग रख दिया था।
मुग़ल बादशाह रफी-उद-दरजात का शासन व्यवस्था में किसी प्रकार का संपर्क, पर्यवेक्षण या कोई नियंत्रण नहीं था। अपनी बीमारी और कई मामलों में आत्मग्लानि के कारण तीव्र गति से बढ़ती उसकी बीमारी शीघ्र ही प्राणघातक बन गयी।
वह बमुश्किल चार माह भी जीवित नहीं रहा। 13 जून 1719 को मात्र 19 साल की उम्र में उसका निधन हो गया।
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लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।